Wednesday 22 February 2012

सरोज कुमार की सात कविताएं


"बुद्ध को नाचीज़ मुर्दे ने
वह कह दिया,
जो संभव नहीं होता
धर्माचार्यों की पीढ़ियों से!

रौशनी
रेलिंग पकड़कर नहीं उतरती
और न सीढ़ियों से."

सरोज कुमार मंच-सिद्ध कवि तो हैं ही, उनकी कविताएं पढ़ने में भी उतना ही आनंद देती है, जितना सुने जाने पर. सिर्फ़ आनंद ही नहीं देतीं, सोचने को विवश भी करती हैं. इनके यहां व्यंग्य की धार काफ़ी पैनी और मारक है. चोहत्तर वर्षीय सरोज कुमार की अकादमिक सक्रियता भी उतनी ही बड़ी है, जितनी कि पत्रकारिता और साहित्य-सृजन के क्षेत्र में. 'जागरण' (इंदौर) के वर्षों तक साहित्य संपादक रहे सरोज कुमार, नई दुनिया (इंदौर) में दस साल तक हर शुक्रवार को नियमित स्तंभ लिखते रहे, "स्वान्तः दुखाय" शीर्षक से. पेशे से महाविद्यालयी-विश्वविद्यालयी शिक्षक रहे सरोज कुमार  के कई काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें अनेक प्रतिष्ठित सम्मान भी हासिल हुए हैं. आज यकायक अपने एक घनिष्ठ मित्र, डॉ. भारतीय (जो सरोज कुमार के गुरु रह चुके हैं) के घर पर जब उनका ताज़ा कविता संग्रह "शब्द तो कुली हैं" देखा तो मैं इसे उलटने-पलटने का लोभ संवरण नहीं कर पाया. कई कविताओं ने मेरा ध्यान अपनी ओर बरबस ही खींच लिया. मैंने अपने मित्र से इच्छा ज़ाहिर की, इनमें से कुछ कविताएं अपने ब्लॉग पर आप सबके साथ साझा करने की, तो उन्होंने सरोज कुमार को यह सूचना देने के लिए फोन ही कर दिया. मुझे खुशी है कि उन्होंने मेरी इच्छा का गर्मजोशी के साथ स्वागत-सम्मान करते हुए मुझे इन्हें साझा करने की अनुमति दे दी. अपनी कविता के बारे में सरोज कुमार का कहना है :"मेरी चक्की बहुत बारीक नहीं पीसती, न मुझे बारीक कताई भाती है. मैं पाठक/श्रोता तक सरलता से पहुंचना चाहता हूं.मेरे जैसा ही एक कवि, 13वीं शताब्दी में था, अद्दहमाण (जुलाहे का पुत्र अब्दुल रहमान). उसने अपनी कविता के बारे में, अपने ग्रंथ 'संदेश रासक' (अपभ्रंश) में जो कहा था, उसका अनुवाद यों है :"पंडितों का मेरी कुकविता से कोई संबंध नहीं रहता और मूर्ख अपनी मूर्खता के कारण कविता में रम नहीं पाता. इसलिए जो न पंडित हैं और न मूर्ख, जो मध्यम कोटि के हैं, उनके सामने इस कृति को पढ़ना."


1.   अलंकरण

डिग्री को 
तलवार की तरह घुमाते हुए 
वह संग्राम में उतरा  
वह काठ की सिद्ध हुई!

डिग्री को 
नाव की तरह खेते हुए
वह नदी में उतरा 
वह काग़ज़ की सिद्ध हुई!

डिग्री को
चेक की तरह संभाले हुए
वह बैंक पहुंचा 
वह हास्यास्पद सिद्ध हुई!

डिग्री को कांच में जड़वाकर 
उसी दीवार पर उसने लटका दिया,
जिस पर शेर का मुंह
और हिरन के सींग टंगे थे 
शोभा में, इजाफ़ा करते हुए! 

2.   राष्ट्रगीत 

वे नहीं गाते राष्ट्रगीत 
महानता के फ़्रेम में जड़े हुए 
विजेता के अंदाज़ में, मंच पर खड़े हुए
'सब एक साथ गाएंगे', कहने पर भी
वे नहीं गाते राष्ट्रगीत!

भारत भाग्य विधाता... वगैरह
इस अदा से सुनते हैं
मानो उनकी ही प्रशस्ति हो, 
वे ही तो हैं जन-गण-मन अधिनायक, 
जय-जयकार उचारें जिनका 
समारोह के गायक!

पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा...
इस अंदाज़ से सुनते हैं
मानो उनकी ही रियासतें हों
विन्ध्य, हिमाचल, यमुना, गंगा...
उनके ही टीले हों, झरने हों, झीलें हों!

मंचों पर बार-बार खड़े-खड़े विश्वास बढ़ता जा रहा है,
कि बख्शीशें मांगता हुआ हिंदुस्तान
उनकी ही जय-गाथा गा रहा है!

3.   सेनापति

आईने के सामने बैठते ही
चिड़िया
अपने प्रतिबिम्ब को
चोंच मारने लगी!

उसे बताया
कि वो तू ही है
दूसरी नहीं,
तेरी चोंच टूट जाएगी
फिर तू कैसे खाएगी 
कैसे चह्चहाएगी!

बोली, मैं नहीं
वो मुझे चोंच मार रही है
पहली चोंच उसने ही मारी थी, 
मैं तो केवल
जवाब दे रही हूं!

मैंने समझाया :
जवाबी चोंच मत मार
लड़ाई 
अपने आप रुक जाएगी!

बोली :
ये बात किसी सेनापति से 
कहला दे,
तो जानूं!
तू तो कवि है
लड़ाई के मामले में 
तेरी बात 
क्यों मानूं?

4.    तुम कहीं के भी कवि क्यों न हो 

हो सकता है मेरे यहां दिन हो
तुम्हारे यहां रात हो!
मेरे यहां वसंत हो
तुम्हारे यहां पतझर!
मेरे यहां प्रजातंत्र 
तुम्हारे यहां तानाशाही!
मेरे यहां ग़रीबी 
तुम्हारे यहां ऐश्वर्य!
मरती हों मेरे यहां औरतें कुएं में गिरकर
तुम्हारे यहां गोलियां खाकर !
इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?
वसंत जब भी होगा और जहां भी
फूल खिलेंगे
कोशिश जब भी होगी और जहां भी 
कवि पैदा होंगे!

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता 
तुम्हारी चमड़ी के रंग 
और जीने के ढंग से,
तुम्हारी आस्थाओं और ईश्वर से!
यह काफ़ी है तुम्हें जानने के लिए 
कि तुम कवि हो 
और अगर हो, तो 
कहिं के भी क्यों न हो,
तुम्हारी अनुभूतियों के आलंबन 
और संवेदनाओं के मूलधन 
अनजाने नहीं हैं, 
कविता का पहला प्यार पीड़ा है!

आग जहां भी होगी,
आग होगी,
ईंधन के हिसाब से,
आज की ज़ात नहीं बदलती!

नदी जहां भी होगी, 
नदी होगी,
किसी देश की नदी
पहाड़ पर नहीं चढती!

तुम्हारी कविताएं
जितनी तुम्हारी हैं, उतनी हमारी भी,
कविता की कोई
मेकमहन रेखा नहीं होती!
कविता का समूचा जुगराफ़िया
एकमात्र इंसान है -
जिसकी संप्रभुता में 
प्रभुता नहीं प्यार है!

5.    लड़की को बड़ी मत होने दो

तुम इधर क्या ऊंघ रहे हो?
उधर लड़की बड़ी होने लगी है--
धीरे-धीरे
पांव पर खड़ी होने लगी है!
धरती को हिलाओ,
लड़की को डिगाओ,
अगर वह सचमुच खड़ी हो जाएगी
तो हमसे भी बड़ी हो जाएगी!

फिर हाथ पसारती
राखियों का क्या होगा?
हमारी सौंपी 
बैसाखियों का क्या होगा?

वह पांव खड़ी हो गई,
तो चलने भी लगेगी
नया-नया देखेगी,
मचलने भी लगेगी !
संविधान देख लेगी,
तो अधिकार मांगेगी
पिता की पासबुक से
कार मांगेगी!

फिर सनातन पगडंडियों का 
क्या होगा?
होनहारों की मंडियों का 
क्या होगा?

उसे कंचे, पांचे और 
कौडियां ही झिलाओ
सिलाई-बुनाई के
झुनझुनों से खिलाओ!

उसे देवरानी, जिठानी की
कहानी ही कहने दो
आंचल में दूध,
पानी आंखों में रहने दो!

चादर को 
माथे की पगड़ी मत होने दो,
लड़की है,
लड़की को बड़ी मत होने दो.

6.    मां

मां, जिसने मुझे जन्म दिया
मेरे लिए
ज़रूरत बेज़रूरत
मरने को भी तैयार हो 
जाएगी
बिना एक पल खोए!

पिता नहीं!

मैं कृति हूं मां की
ऐसी चित्र-कृति
जिसमें उंडेल दिए थे उसने
अपने सारे रंग
सारी सांसें, सारे सपने !

पिता तो बस
ईज़ल रख कर जा चुके थे.


7.   सपाट संसार

जो झूठ को झूठ नहीं कह पाता, 
वह सच को सच क्या कहेगा!
जो दुश्मन को दुश्मन नहीं कह पाता,
वह दोस्त को दोस्त क्या कहेगा!
जो कांटे को कांटा नहीं कह पाता,
वह फूल को फूल क्या कहेगा!

जिसे बुरा, बुरा नहीं लगता, 
उसे भला, भला कैसे लगेगा!
जिसे अन्याय, अन्याय नहीं लगता,
उसे न्याय, न्याय कैसे लगेगा !
जिसे गुलामी, गुलामी नहीं लगती,
उसे आज़ादी, आज़ादी कैसे लगेगी!

जिसके लिए पाप, पाप नहीं है,
उसके लिए पुण्य, पुण्य कैसे होगा?
जिसके लिए आग, आग नहीं है,
उसके लिए पानी, पानी कैसे होगा?
जिसके लिए धरती, धरती नहीं है, 
उसके लिए आकाश, आकाश कैसे होगा?

ज्ञान और साहस है-
तो जीवन है, ठाठ है!
जड़ता है, भय है-
तो संसार सपाट है!

14 comments:

  1. वाह, सभी कवितायेँ एक से बढ़कर एक है....भूमिका के अंत में जो पंक्तियाँ आपने उद्धृत की वे इन कविताओं पर सटीक मालूम होती हैं, हर कविता सहज शब्दों में मानवीय संवेदनाओं को उभारती प्रतीत होती है, श्रेष्ठता के दंभ से परे ये कवितायेँ अंतर्मन पर बहुत गहरा असर छोड़ जाती हैं......'अलंकरण' कविता में डिग्री की सार्थकता पर उठाये प्रश्न प्रासंगिक हैं और 'सेनापति' कविता तो गागर में सागर है....सरल शब्दों में आपको सोचते हुए छोड़कर कविता अपना प्रयोजन सिद्ध कर जाती है,..... 'तुम कहीं के भी कवि क्यों न हो' तो सभी लोगों के लिए जो सोचते हैं वे कविता लिख रहे हैं, अनुकरणीय अभिव्यक्ति है, 'लड़की को बड़ी मत होने दो' बहुत ही भावुक कविता है और मैं खुश हूँ कि एक पुरुष ने इन्हें लिखा....साधुवाद, ......इस तरह सभी कवितायेँ बहुत मानीखेज हैं.....सरोज जी को बधाई...उनकी और कवितायेँ पढना चाहूंगी......और बाबा (मोहन सर) को फिर से धन्यवाद हमेशा की तरह ऐसी अच्छी और सार्थक कवितायेँ हम तक पहुँचाने के लिए (शेयर कर रही हूँ, और लोगों को भी इन्हें पढना चाहिए)

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  2. दंग रह गया हूँ सरोज कुमार जी की इन कविताओं को पढ़कर। इतनी गहरी संवेदना और एक तीख़ा व्यंग्य लिए ये कविताएं भीतर तक उतरती चली गईं। मुझे नहीं याद आता कि समकालीन हिंदी कविता को पढ़ते हुए मैंने इससे पूर्व कभी सरोज कुमार जी की कविताएं पढ़ीं हों। (इसे मैं अपना दुर्भाग़्य ही मानता हूँ)। यूं तो सभी कविताएं स्पर्श करती हैं लेकिन 'अलंकरण' 'तुम कहीं के भी कवि क्यों न हों','लड़की को बड़ी मत होने दो' और 'सपाट संसार' ने कहीं गहरे छुआ। सरोज कुमार जी ने सही लिखा/कहा कि -
    कविता की कोई
    मेकमहन रेखा नहीं होती!
    कविता का समूचा जुगराफ़िया
    एकमात्र इंसान है -
    जिसकी संप्रभुता में
    प्रभुता नहीं प्यार है!

    मोहन जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया कि इतनी जानदार और प्रभावकारी कविताएं आपने पढ़वाईं।

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  3. बहुत प्रभावशाली और प्रखर कवितायेँ ! कविता की यह भाषा आदर्श हो सकती है किसी कवि के लिए जो सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हो ! आभार इनकी प्रस्तुति के लिए !

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  4. कविताएं तो सभी अच्छी हैं लेकिन "लड़की को बड़ी मत होने दो" और "सपाट संसार " विशेष तौर पर मुझे पसंद आई...बधाई आपको...

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  5. सरोज कुमार और उनकी कविताओं से परिचित कराने के लिए आभार सर!!

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  6. तुम्हारी कविताएं
    जितनी तुम्हारी हैं, उतनी हमारी भी,
    कविता की कोई
    मेकमहन रेखा नहीं होती!
    कविता का समूचा जुगराफ़िया
    एकमात्र इंसान है -
    जिसकी संप्रभुता में
    प्रभुता नहीं प्यार है!
    वाह!
    इतना सुन्दर... इतना सत्य... इतना प्रभावशाली!!!
    कविता को भी मान होगा इस कवि पर!
    सरोज कुमार जी की कविताओं को साझा करने के लिए आपका हार्दिक आभार...
    सोची समझी मेरे लिए पसंदीदा पड़ावों में से एक है.
    सादर!

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  7. मोहन जी सरोज कुमार जी को पढवाने के लिये ह्रदय से आभारी हूँ …………बेहद बेबाक शैली मे साफ़ दिल से भावनाओं को उकेरा है …………हर कविता सोचने को विवश करतीहै और कवि का अन्दाज़ तो सीधा दिल छूता है।

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  8. कविताओं में मारक व्यंग है.सरोज कुमार जी की कवितायेँ पहली बार पढ़ रहा हूँ. ऐसे अनेक कवि है जो लगातार अच्छा लिख रहे है, पर प्रसिद्ध नहीं है. सरोज कुमार जी के परिचय को देखते हुए तो उन्हें अज्ञात कवि भी नहीं कहा जा सकता है, फिर भी हिंदी कविता के आलोचकों की दृष्टि उन पर क्यों नहीं गई ?

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  9. आज से पूर्व कभी सरोज कुमार जी की कविताओं से गुजरने का अवसर नहीं मिला मुझे सातो कविताओँ को ठिठक कर कई-कई बार पढ़ा जितने बार पढ़ा उनका असर और प्रभाव और गाढ़ा होता चला गया कविताओं की कहन इतनी गहराई से अंतर में अपनी जगह बना लेती है ...सचमुच विचारों के ऐसे सजग प्रवाह से गुजरना अद्भुत ही है ... ब्लॉग पर आना सार्थक हो गया सदैव की भांति ...

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  10. सेनापति और राष्ट्रगीत विशेष तौर पर अछ्छी लगीं . लेकिन आरम्भ में उद्दृत अंश सर्वाधिक आकर्षक है . इस कविता को पूरा पढवा दीजिए , प्लीज़.

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  11. धन्यवाद कहने आये हैं ,
    सरपट बाँधी समा दिखाए हैं |
    लोगों को लुभाए हैं ,
    गहराई में गोता लगाए हैं ||-
    वे फ्रेम में पड़े हैं ,
    राष्ट्र गीत नहीं गाते हैं |
    मंचासीन होने को अड़े हैं ,
    अपने मन से खड़े हैं ||
    आईने सामने रख बैठते हैं,
    देर तक दम हिलाते हैं |
    बाह बार-बार सरकाते हैं ,
    झट चोंच मार जाते हैं ||
    मेहनत की रेखाएं हैं ,
    संप्रभुता की दुआएं है |
    कुशलता की कलाएं हैं ,
    अपने मन से टिकाये है ||
    राखियाँ हाथ में हैं ,
    बैसाखियाँ साथ में हैं |
    पाँव में बेड़ियाँ है ,
    जीभ लपलपाये हैं ||
    सिलाई मशीन लाये हैं ,
    चादर फैलाए हैं |
    लड़की बड़ी हो रही-
    चुनरी सिलने आये हैं ||

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