मामला ज़िंदगी का
पैबंद जो लगे हैं
यहां-वहां
क्या हासिल होगा
उन्हें छिपाने से?
और उन्हें देख
लजाने से,
नज़रें चुराने से?
मामला ज़िंदगी का है
सिर्फ़ कपड़ों का नहीं !
क्या से क्या हो गया!
चढ़ा तो बहुत
धीरे-धीरे था वह
पर जब गिरा तो
कोई वक़्त ही
नहीं लगा. लुढ़कना शुरू
हुआ नहीं कि आ पड़ा
औंधे मुंह
धरती पर, निश्शब्द
पैबंद जो लगे हैं
यहां-वहां
क्या हासिल होगा
उन्हें छिपाने से?
और उन्हें देख
लजाने से,
नज़रें चुराने से?
मामला ज़िंदगी का है
सिर्फ़ कपड़ों का नहीं !
क्या से क्या हो गया!
चढ़ा तो बहुत
धीरे-धीरे था वह
पर जब गिरा तो
कोई वक़्त ही
नहीं लगा. लुढ़कना शुरू
हुआ नहीं कि आ पड़ा
औंधे मुंह
धरती पर, निश्शब्द
निश्चेतन.
'चढ़ने' का विलोम
हर हाल में
'उतरना' ही नहीं होता,
'लुढ़कना' भी होता है,
जिसमें प्रयत्न-प्रतिरोध की
नहीं होती कोई गुंजाइश!
हालांकि लुढ़कना भी
होता है परिणाम
खुद ही की नासमझी का
भूल का!
पर समझाए कौन?
और क्यों?
किसी को काटा थोड़े है
काले कुत्ते ने !
'चढ़ने' का विलोम
हर हाल में
'उतरना' ही नहीं होता,
'लुढ़कना' भी होता है,
जिसमें प्रयत्न-प्रतिरोध की
नहीं होती कोई गुंजाइश!
हालांकि लुढ़कना भी
होता है परिणाम
खुद ही की नासमझी का
भूल का!
पर समझाए कौन?
और क्यों?
किसी को काटा थोड़े है
काले कुत्ते ने !
विवशता आदिवासियों की
कविता में आती है
आदिवासियों की व्यथा-कथा.
निजी आयोजनों में
नाच दिखाने की
उनकी विवशता
कब जगह पाएगी कविता में?
जिस नाच के साक्षी ही नहीं,
उसमें शरीक भी रहे हों कवि
पूरी उन्मुक्तता और
उन्मत्तता के साथ?
आदिवासियों की व्यथा-कथा.
निजी आयोजनों में
नाच दिखाने की
उनकी विवशता
कब जगह पाएगी कविता में?
जिस नाच के साक्षी ही नहीं,
उसमें शरीक भी रहे हों कवि
पूरी उन्मुक्तता और
उन्मत्तता के साथ?
-मोहन श्रोत्रिय
No comments:
Post a Comment