Thursday, 29 September 2011

सुनो, भगत सिंह, सुनो !






मैंने कहा था
कुछ नहीं है इस समय ऐसा
जो तुम्हें ख़ुशी दे सके. मुझे
और बहुत कुछ बता देना चाहिए था
तभी एक सांस में , बिना रुके...
यानी वह सब जो तुम्हारे पीछे से
हुआ है इस देश में. यह देश
बदल देना चाहते थे तुम
जिसकी तकदीर, जिसका मुस्तक़बिल
लिख देना चाहते थे अपने नए अंदाज़ में,
सच कहूं यह देश तुम्हारे लायक था ही नहीं.
क्यों आखि़र? सिर्फ़ इतना ही काफ़ी है
कि तुम्हारी शहादत को रुकवा सकते थे जो
वे मन से चाहते ही
नहीं थे कि आज़ादी का/ क्रांति का रास्ता
अपनाया था तुमने जिसे
वह सम्मान पा जाए
हक़दार था जिसका वह
भरपूर. यानी ग़ुलामी की ज़ंजीरों
को तोड़ कर एक नया भारत
बनाने का श्रेय तुम्हारे विचारों और
तरीक़ों को न मिल जाए यह
दिली ख्‍़वाहिश थी उनकी. विनम्रताओं
के पीछे भी
छुपी होती हैं कैसी महत्वाकांक्षाएं !
कैसे अहंकार !

और फिर जब तुम नहीं रहे
कम-से-कम देह के स्तर पर तो नहीं ही
(रूहानी मौजूदगी
तो बनी ही हुई है अभी तक,
उसे कौन कर सकता था ख़त्म? )
तो हिंसा/अहिंसा की चालाकी भरी
व्याख्याएं चल निकलीं
सुनियोजित तरीक़े से
ऐसे कि विरुदावली तो
'गाई जाती' लगे, पर 'किंतु-परंतुओं' की
झड़ी भी लग जाए.

तुमने विचार के सूत्र लिए थे
जहां से अपने यशस्वी जीवन
के आखिरी वर्षों में
उनके जो असल ध्वज-वाहक थे तुम्हारी शहादत
के बाद, उनको लेकर
तो कर ही चुका हूं
क्षमा-याचना पहले ही.
तुम्हारी 'नायक' की छवि
इतनी सम्मोहक थी
तुम्हारी आकर्षण-क्षमता
बन गई थी जैसे एक असरदार पर्याय
चुम्बक का,
कि 'लाल' को 'गेरुआ' में तब्दील करने को आतुर
एक खास तरह की 'देशभक्ति' ने
शुरू कर दिया अहर्निश जाप
तुम्हारे नाम का. बिना कोशिश किए
समझने की तुम्हारे विचारों की दुनिया को
तुम्हारे 'लिखे-पढ़े-किए' की
पड़ताल तक किए बिना
वैसे सच तो यह है कि
ऐसा कर पाने की सामर्थ्य भी
अर्जित नहीं कर पाए थे वे. आज तक नहीं
कर पाए हैं. जैसे- जैसे
और जब-जब उन्हें पता लगने लगा
अन्य स्रोतों से
कि तुम तो अग्नि-पिंड हो
कभी दिखावटी अनुराग से मुक्त होते
और फिर कभी
फ़ासला रखते हुए अपनाने का छल करते रहे.
ग़नीमत है अब तुम्हारी तस्वीर
लगती है सिर्फ़ प्रतीक के तौर पर
उनके सम्मेलनों- अधिवेशनों में.

मज़ा यह है भगत सिंह
कि तुम्हारे नाम का दोहन
सर्वाधिक किया है उन्होंने जिन्हें
बिना संकोच-झिझक तुम घोषित
कर देते अपना 'वर्ग शत्रु'
पूंजी पर टिके
फिल्म व्यवसाइयों ने.
पर यह तो मानना ही होगा
तुम्हें भी कि उन्होंने तुम्हारे नायकत्व
की 'कमाऊ' क्षमता को सबसे
पहले पहचान लिया था. सब से ज़्यादा भी.
तुम्हें 'बेचा' उन्होंने
'ब्रांड' बनाकर
एक-दो बार नहीं, कई-कई बार.
यह अलग बात है कि
उनमें से कोई भी तुम्हारे क्रांति-कर्म
के मर्म को छू तक नहीं पाया
उसे आत्मसात करने की
तो कौन कहे.

बहुत अनुसंधान हुआ भगत सिंह
जीवन और जगत से जुड़े
तुम्हारे विचारों, लड़ाई के तरीक़ों
और अपना निज़ाम कैसा होगा
आदि सवालों के इर्द गिर्द. बड़ा काम
जो नहीं हुआ होता
जब वह हुआ था
तो आज की जवान पीढ़ी
तुम्हारे नाम तक से परिचित नहीं होती.
पर जैसा कि होता आया है यहां
न जाने कब से
तुम भी बन गए एक 'वस्तु'
उनके लिए.
शोध तो हुआ पर जैसे
प्रतिशोध भी निहित था इसमें
प्रतिशोध जो लगता है
एकदम 'घिनौना'
कम-से-कम तुम्हारे संदर्भ में.
डायरी हो या
दूसरे दस्तावेज़
शीर्षक/ शक्ल/ आकार
और हां 'कीमत' में भी आता रहा बदलाव
छपे ये कभी यहां से
कभी वहां से
क्योंकि तुम फिर
लगने लगे थे 'कमाऊ'.
एक 'कभी न बिक सकने वाली शख्सियत' को
आसानी से
इन्होंने बना दिया था 'बिकाऊ'
ज़्यादातर इनमें से दिखते रहे
'झंडाबरदार' तुम्हारे.
यह कडुवा यथार्थ है, भगत सिंह
जिसे मैं कहने से बच रहा था
पर फिर सोचा कि
कह ही दूं
कि यह राष्ट्र अख़बारी ख़बर में ही
'कृतज्ञ' होता है-
बशर्ते ख़बर छप जाए
'कि कृतज्ञ राष्ट्र ने फलां-फलां को
श्रद्धा-सुमन अर्पित किए'-
उसके आगे-पीछे तो यह निरा कृतघ्न
ही बना रहता है
निर्लज्जता के साथ
जो जितना संपन्न वो उतना ही ख़ुदगर्ज़
आत्म-केंद्रित और
आज़ादी की जड़ों में
किसका खून बना था खाद
और किसने संजीवनी भर दी थी
इन जड़ों में - इस सबसे बेख़बर.

संघर्ष तो चल रहे हैं
भगत सिंह
यहां-वहां
पर एका नहीं है उनके बीच
कोई तालमेल नहीं
संघर्ष तो उतने ही अहम हैं
जितना होते हैं जीने-मरने के संघर्ष
बहुसंख्यक जनता पिस रही है
वंचनाओं की चक्की में और अर्थशास्त्री
कर रहे हैं बहस कि
बत्तीस रुपया या छत्तीस (?)
क्या उचित है ग़रीब न कहे जाने के लिए.
घिन आती है, भगत सिंह
कितनी चौड़ी होती जा रही है खाई
मनुष्य और मनुष्य के बीच.
महाश्वेता की एक कहानी में
बैलों का रखवाला
'बैल' बन जाना चाहता है क्योंकि
उसकी नज़र में
बेहतर होता है सलूक
'बैल' के साथ, खुद उसकी तुलना में.
कहीं रेत में ढंकी-दबी है आग
और कहीं सुलग भी रही है
नहीं दिखती वह शक्ति
संगठित जन शक्ति,
नहीं दिखता दूर- दूर तक
एक और भगत सिंह जो
दिशा दे सके असंतोष को
बदल सके इस असंतोष को
विध्वंस और नए सृजन की
नियामक-नियंत्रक ऊर्जा
के रूप में.

बाजीगर आ रहे हैं
मजमेबाज़ भी
और उन्हें पीछे से कठपुतलियों
की तरह नचाने वाले लोग
भेस बदल-बदल कर.
और मज़ा यह है कि
क्रांतिवादी मानते हैं जो ख़ुद को
वे भी अलग-थलग
न पड़ जाएं, ऐसी
जुगत बिठाने में लगे हैं
पूंजी के चेहरे पर रंग-रोगन पोतने वालों
के साथ खड़ा होना अटपटा लगता होगा
बेशक उन्हें भी,
खोज लाते हैं कोई न कोई तर्क
अपने पक्ष में.
ज़ाहिर है, बुरा समय है यह
भगत सिंह
पर बुरे समय में ही तो 'अपने'
याद आते हैं बहुत- बहुत.
और इसीलिए शायद
मैंने अपने मन की
तमाम पीड़ा, सारी चिंताएं,
मन का सारा अवसाद --सब कुछ ही
उंडेल दिया है
तुम्हारे सामने
कि जी हल्का हो सके.
स्वार्थी भी दिख सकता हूं मैं.
पर सुनाना भी तो तुम्हीं को था !

                                 -मोहन श्रोत्रिय

क्या कहूं, भगत सिंह !?






क्या कहूं, भगत सिंह
सिवा इसके कि मैं क्षमा-प्रार्थी हूं
उन सबकी ओर से
जो ज़ोर-ज़ोर से कहते थे
हर जलसे-जुलूस में
इंकिलाब ज़िंदाबाद
ज़िंदाबाद इंकिलाब.
बड़े होते थे इनके जलसे,
और उनसे भी बड़े होते थे जुलूस
बेहद अनुशासित/ मर्यादित.

अनुयायी कहते थे ख़ुद को ये सब
उसी क्रांतिकारी का
जिससे* बात कर रहे थे तुम फांसी के ऐन पहले
हम ही नहीं भूले हैं तो तुम कैसे
भूल गए हो सकते हो
किताब पढ़ रहे थे तुम जब
जेलर तुम्हें ले जाने आया था 'वध-स्थल तक की
यात्रा के लिए. तुमने सही ही आदेश दिया
उसको ठहर कर प्रतीक्षा का
क्योंकि तुम्हारे ही शब्दों में
"एक क्रांतिकारी कर रहा है बात
दूसरे क्रांतिकारी से." रौंगटे आज भी
खड़े हो जाते हैं, भगत सिंह इन
शब्दों की याद आते ही. हम कितने ही निकम्मे
सिद्ध हो गए हों, फिर भी.

जिससे तुम बात कर रहे थे
वह क्रांतिकारी गांधी से एक बरस छोटा था
पर गांधी से तीस बरस पहले ही
पा लिया था अपना लक्ष्य,
उसने पूरा कर लिया था अपना 'मिशन'.
गांधी को तो तीस बरस
बाद भी करना पड़ा था संतोष
खंडित लक्ष्य-प्राप्ति से ही.

उस क्रांतिकारी की तेजस्विता का प्रमाण ही था यह
कि ये अनुयायी आज़ादी के बाद
वोट के ज़रिये दूसरी सबसे बड़ी शक्ति बनकर उभरे थे
पहली ही लोक सभा में. चलते रहते
उसी रास्ते पर संकल्प की प्रचंडता के साथ
तो यक़ीन मानो, भगत सिंह , नहीं देखने पड़ते
ये दिन, जिन्हें 'दुर्दिनों' के अलावा किसी और नाम से
पुकारना नासमझी होगी या चालाकी
जो मैं करना नहीं चाहता.
आज हम वहां खड़े हैं, भगत सिंह
जहां जनता बस कहना ही चाहती है कि
ऐसा राज अब और बर्दाश्त नहीं होगा हमें,
और सत्ता भी निकम्मेपन और
हालात पर नियंत्रण खो चुकने
के कारण यह महसूस कर ही लेने वाली है
कि शासन इस तरह नहीं चलाया जा सकता.
उस क्रांतिकारी विचारक
और दुनिया की पहली सफल क्रांति के नायक ने
"क्रांति की अनिवार्य स्थिति कहा था" ऐसी
ही परिस्थिति को.
लानत फेंको
'अपनी और तुम्हारी प्रतिश्रुति' से दग़ा
करने वाले हम सब पर. कितनी ही बार
सार्वजनिक शर्मिंदगी भी राह भूल भटक गए हैं जो
उन्हें सही रास्ते पर ले आती है
मंज़िल की ओर फिर से
चल पड़ने को प्रेरित/ विवश कर देती है.
कुछ भी ठीक नहीं है, भगत सिंह इस समय तो
ऐसा जो तुम्हें तनिक भी खुश कर सके.
आज बस इतना ही, शेष फिर.

*लेनिन

                                       -मोहन श्रोत्रिय