Saturday, 28 July 2012

अन्ना आंदोलन : कल और आज

परसों बाबा रामदेव अपने साथ पांच हज़ार लोगों को लाकर, और नौ अगस्त को नौ लाख लोगों को दिल्ली लाने की घोषणा करके , अन्ना टीम को चिढ़ा क्या गए, कल ही उसका असर भी दिखाई पड़ गया. कल दोपहर तक भीड़ को ग़ैर ज़रूरी बताने वाले अन्ना शाम तक कुछ हज़ार लोगों के आ जाने से कुछ इतने उत्साहित लगे कि वह 2014 के चुनाव की रूपरेखा बताने लगे, कि कैसे उम्मीदवारों का चयन करेंगे और कैसे संसद को ईमानदार लोगों से भर देंगे, और परिणामस्वरूप जन लोकपाल क़ानून बनवा लेंगे.

कल शाम होते-न-होते खबर आई कि 7, रेसकोर्स रोड (प्रधानमंत्री निवास) के सामने प्रदर्शन के लिए पहुंच गए हैं, अन्ना-भक्त और समर्थक. टीवी पर दिखाया जा रहा था यह सब, प्रदर्शनकारी रोके जाने और धर-पकड़ का प्रतिरोध करते हुए. कल तक अन्ना को शिकायत थी कि बिका हुआ मीडिया उनके अनशन पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था. आज जब मीडिया ने अन्ना टीम से सवाल-जवाब करने चाहे, तो टीम का एक भी सम्मानित और "क्रांतिकारी" सदस्य कोई जवाब देने को तैयार ही नहीं था. स्वयं अन्ना मीडियाकर्मियों से बचते हुए एक महंगी-सी कार की तरफ़ बढने लगे. किरण बेदी का अचानक गला खराब हो गया, यह उन्होंने इशारे से बताया गाड़ी की तरफ़ बढ़ते हुए. सवाल सिर्फ़ यही तो था कि रेसकोर्स रोड के प्रदर्शन के बाद क्या अब और जगह भी ऐसे प्रदर्शन होंगे? क्या यह नई रणनीति है? तो फिर शांतिपूर्ण अनशन की सार्वजनिक घोषणा का क्या हुआ? यह सवाल पूछा जाना इसलिए भी वाजिब और जायज़ है कि पिछले दिनों एजेंडे में कोई न कोई नया बिंदु जुड़ जाता रहा है, हर दिन.

पिछले साल जब यह आंदोलन शुरू हुआ था, तो भ्रष्टाचार को बड़ी और जड़ से उखाड़ फेंके जाने के योग्य समस्या मानते हुए भी, और तमाम "रंगतों के भ्रष्टों" का विरोध करते हुए भी, मेरी यह समझ थी कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार को आंशिक रूप से भी ख़त्म नहीं कर सकता. लोकपाल, उसके पहले "जन" लग जाने के बावजूद अप्रभावी रहेगा, क्योंकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार व अन्य सामाजिक बुराइयों को जन्म देने वाली "पूंजी-केंद्रित" व्यवस्था पर तो कोई चोट करना ही नहीं चाहता. पिछले साल की इसकी शक्ति देख कर यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं था कि यह आंदोलन ज़्यादा-से-ज़्यादा सत्ता-परिवर्तन को समर्पित आंदोलन कहा जा सकता है. पर उससे भ्रष्टाचार पर रोक कैसे लग जाती. कांग्रेस की जगह भाजपा की सरकार आ भी जाए तो न तो आर्थिक नीतियां बदलती हैं, न भ्रष्टाचार की "जड़ों" पर कोई "प्रहार" संभव है. सब ने देख लिया है कि भ्रष्ट येदियुरप्पा ने कैसे पूरी पार्टी को घुटनों पर ला दिया ! सबने यह भी देख ही लिया है रेड्डी बंधुओं ने "ज़मानत" का जुगाड़ बैठाने के क्रम में तीन-तीन न्यायाधीशों की नौकरी ले ली है. राजनीति और न्यायपालिका के नापाक गठबंधन का इससे ज़्यादा शर्मनाक उदाहरण और क्या होगा? सो यह भी साफ़ हो ही गया है कि सत्ता-परिवर्तन यदि अभीष्ट भी हो, तो क्या होने वाला है भविष्य में, वह अभी दिख रहा है.

मीडिया पिछले साल "लाड़ला" था अन्ना टीम का. इसलिए उसे जन लोकपाल के दायरे से बाहर रखा ही जाना था, सब तरफ़ से उठ रही मांग के बावजूद. एनजीओ को भी बाहर रखना था वरना अपने अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और किरण बेदी तो बरबाद ही हो जाते. फ़ोर्ड फाउंडेशन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों से मिलने वाले लाखों डॉलर का हिसाब मांगने लग सकता था कोई भी सिरफिरा. पिछले साल कॉर्पोरेट संस्थानों ने कितनी आर्थिक मदद दी थी अन्ना आंदोलन को, यह भी अब तो उजागर ही है. सो कॉर्पोरेट को तो बाहर ही रखा जाना था, सख्त जन लोकपाल के दायरे से. चुनाव व्यवस्था को भ्रष्‍ट बनाने में कार्पोरेटी चंदे की कितनी भूमिका है, इसके आंकड़े देकर और इस तरह अन्ना टीम की आंख में उंगली डाल के दिखाने की ज़रूरत है क्या, इस सबके बावजूद भी, कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने की इच्छा तक से प्रेरित-चालित नहीं है.

कुछ लोग, जो ईमानदारी और सच्चे मन से इस आंदोलन से बड़ी-बड़ी उम्मीदें बांध बैठे हैं, कहते हैं कि यह आंदोलन यदि सफल नहीं हुआ/ होने दिया गया, तो भविष्य में कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संगठित और प्रभावी आवाज़ नहीं उठाई जा सकेगी. यह भय और आशंका सही नहीं है. भ्रष्टाचार इस व्यवस्था की अनिवार्य बुराई है. जैसे दलाली, अनापशनाप मुनाफ़ाखोरी, मिलावटखोरी, दहेज प्रथा तथा और बहुत सी बुराइयां हैं. इसके मायने ये हैं कि यह व्यवस्था चलती रहे, और बुराइयां दूर हो जाएं - यह न केवल विरोधाभासी है, बल्कि नामुमकिन भी है. एकमात्र विकल्प यह है कि जनता के व्यापकतम हिस्सों को लामबंद किया जाए सिर्फ़ भ्रष्टाचार को नहीं बल्कि समूची व्यवस्था को उखाड फेंकने के लिए. एक अच्छा चिकित्सक रोग के लक्षणों पर नहीं, रोग की जड़ पर प्रहार करता है. आज ऐसे बड़े उद्देश्य से प्रतिबद्ध व्यापक आंदोलन की तैयारियां बीज रूप में भी यदि नहीं दिख रही हैं, तो इसका यह आशय क़तई नहीं है, कि भविष्य में ही ऐसा नहीं होगा. यह तर्क ठीक नहीं है कि जब तक वैसा न हो पाए इस आंदोलन को तो सफल बनाया ही जाए. समझने की ज़रूरत यह है कि इस तरह के "रंग-रोगन-पलस्तरवादी" आंदोलनों की आंशिक सफलता भी उस बड़े और वांछित बदलाव की लड़ाई की जड़ों में मट्ठा डालने का ही काम करेगी. हालात जिस तरह बिगड़ रहे हैं - आसमान छूती महंगाई, बेरोज़गारी, स्त्रियों के खिलाफ़ बढते अपराध, जान-माल की असुरक्षा, आदि - ये सब ज़मीन तैयार कर रहे हैं नए तरह के जन-उभार के लिए. और इसे संभव बनाने का संदेश दिया-लिया भी जाने लगा है. पांच अहंकारी लोग, जो कभी अपने आपको "पांडव" कह दें और कभी "भगवान", जन आंदोलन के लिए "मुफ़ीद" नहीं हो सकते, क्योंकि अपने बारे में इस तरह के "भ्रम" फैलाने वाले लोग एक फ़ासिस्ट सोच को ही अभिव्यक्त करते हैं. वैसे भी पांडवों ने किस जनता के हितों के लिए लड़ाई की थी? भगवान के बारे में मुझे पता नहीं !

अराजकता की ओर ले जाना आसान है आंदोलन को, पर यह समझ लेना चाहिए सबको कि वैसा हो जाने पर यह शेर की सवारी करने जैसा हो जाएगा. शेर पर जब तक चढ़े हुए हैं, तब तक तो ठीक है. पर उसके बाद? कभी तो उतरना ही होगा. उतरने के बाद का हश्र सबको पता होता है. क्योंकि फिर तो जो भी होना होगा, वह शेर के मन पर ही निर्भर होगा. और ऐसे में शेर क्या करता है यह क़यास लगाने की बात नहीं है.

कोई जगह नहीं है यहां स्त्रियों के लिए: दो कविताएं


बेटियों को नीलामी पर चढ़ाने को अभिशप्त है यह मां

वह लड़कियां
बेचने-ख़रीदने का काम
नहीं करती. वह तो बस मां है
आदि से अंत तक मां
बस एक मां ! खुले बाज़ार में
अपनी चार-चार बेटियों को
बोली पर चढ़ा देने का अर्थ
लड़कियों की तिजारत
कहां से हो गया?

यह उसकी तरफ़ से ऐलान है
जो भी सुन ले, उसके नाम
कि नौ महीने से छः साल
तक की बेटियों को पाल
नहीं सकती है वह.
किसके गाल पर तमाचा है
यह सच? इसमें क्या व्यक्त
नहीं होती इक मां की घनघोर
हताशा और उसका कनफोड़ू
हाहाकार? जानती है वह
कि ऐसे तो मर ही जाएंगी बेटियां
होकर भूख और कुपोषण की शिकार.
उसने लगाई होगी बोली जब
तो क्या उसने दबाया नहीं होगा
अपनी चीख को? भद्र लोग
नापसंद करते हैं कविता में
चीख और हाहाकार के आ जाने को
क्योंकि विघ्न डालता है यह
उनके आनंद-रस-बोध में
जो होना ही चाहिए कविता में,
कुछ भी होता रहे चाहे समाज में
जिसे कहते हैं हम मनुष्य-समाज !

इसलिए यह है सिर्फ़ एक बयान
एक हलफ़िया बयान !
बक़लम खुद...पूरे होशो हवास में...
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कैसा है यह संदेश...!?!

कभी नहीं पकड़े जाएंगे
वे मां-बाप जिन्होंने
परसों
रेल के टायलेट में
जन्मी बच्ची को,
जन्मते ही त्याग दिया
नहीं नहीं नहीं
"नाल" समेत टायलेट की
सीट से पटरियों के बीच गिरा दिया
तय मानकर कि गिरते ही मर जाएगी
मर गई होगी. कड़ी-जान
वह सद्य-जात
सात घंटे तक चिढ़ाती रही
चिकित्सकों को, और तब तक
बहुत दूर निकल चुके माता-पिता को.

कभी नहीं पकड़े जाएंगे ये
जैसे नहीं पकड़े जा सके
तीन दिन पहले
ऐसे ही अपराध के दोषी माता-पिता
जिन्होंने बारां में यही किया था
फ़र्क़ सिर्फ इतना था कि
बेटी को "कूड़ा" मान फेंक
दिया था उन्होंने
कूड़े के ढेर में.

हर दो-चार दिन में दोहरा दी जाती हैं ये
घिन मितली और गुस्सा
पैदा करने वाली
क्रूरता और हृदयहीनता की शर्मनाक
मिसालें
वीरों की धरती कहे जाने वाले
मेरे अपने राजस्थान में!

नहीं होता मन
वीर मान लेने का
भगोड़ों और हत्यारों को !
कम वीभत्स नहीं है यह
असम, लखनऊ थाने
और खापों के चुनौती भरे
भयभीत करने वाले
संदेशों से !

एक तरह से संदेश
बहुत साफ़ है
जन्मते ही ऐसा नहीं कर दिया जाय तो
तैयार रहें आगे के अपराधों, धमकियों
कुकृत्यों के लिए. कोई
कुछ नहीं करेगा
न सत्ता, न क़ानून...
जातियों के अलमबरदार
बता रहे हैं सीना ठोंक कर
इसे अपने घर-परिवार का
मामला जिसमें
बरदाश्त नहीं किया जाएगा
हस्तक्षेप किसी का भी कैसा भी
बड़े अक्षरों में लिख दिया गया है जैसे
"कोई जगह नहीं है यहां स्त्रियों के लिए!"

Wednesday, 18 July 2012

दो कविताएं - मूसा जलील


तातारी (रूसी) कवि जो सिर्फ़ अड़तीस साल जिए. 1906 में जन्मे और 1944 में उनकी मृत्‍यु हो गई. 'ऐसा भी होता है कभी-कभी' एक “यातना झेल रहे” कवि-मित्र के बारे में है. कवि-मित्र का नाम न देने का कारण न बताया जाए तो भी समझ आ ही जाना चाहिए . दूसरी कविता 'शॉल' स्वयं उनके जीवन से संबंधित है.


1.ऐसा भी होता है कभी कभी

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि
अविचल बनी रहती है आत्मा हालांकि
मौत की क्रूर आंधी चलती रहती है
चौतरफ़ा. आत्मा का लजीला-सा फूल भी
इतना गर्वीला कि कैसे सिहर जाए:
छोटी से छोटी पंखुड़ी भी बनी रहती है स्थिर.
उसके चेहरे पर दुख और पीड़ा की
छाया तक नहीं है. जो कवि को परेशान
कर सके दुनिया की ऐसी कोई चिंता-फ़िक्र नहीं.
“लिखना – और अधिक लिखना”
यही आकांक्षा है जो संचालित करती है
उसके अशक्य हाथों को.
क्रोधित होकर तुम हत्या भी कर दो, उसे
तुमसे कोई भय नहीं. काया जकड़ी है तो भी
उन्मुक्त है उसकी आत्मा. उसे चाहिए सिर्फ़
काग़ज़ का टुकड़ा और
बस एक पेंसिल
कितनी भी घिसी हुई क्यों न हो.

2. शॉल

जब हम अलग हो रहे थे
उसके प्यारे-से हाथों ने
दिया था मुझे क़शीदाकारी से सज्जित
यह शाल. लड़ाई के मैदान में मिले
घावों पर रख लिया मैंने इसे.
सबसे प्यारी सौगात है यह
मेरे जीवन की.

यह शॉल खून से रंग गया है
प्यारी-सी कहानी कहता हुआ
जैसे लड़ाई के बीचोबीच
झुकी हुई है मेरे सिर पर
मेरी प्रियतमा.

मैंने अपनी एक इंच भूमि पर भी कब्ज़ा
नहीं छोड़ा है. कभी भी नहीं टेके हैं
घुटने दुश्मन के सामने.
पता चल जाता है इस
शॉल से ही
कि कितनी क़द्र करता हूं मैं हमारे प्यार की.



                                                    अनुवाद - मोहन श्रोत्रिय

Wednesday, 11 July 2012

गंगा ढाबा: यादों के गलियारों से



जून 1976 के पहले सप्ताह में, मैं पहली बार जेएनयू के नए कैंपस में गया था, उत्तराखंड स्थित नामवरजी के निवास पर. तब तक जितना भी विकसित था कैंपस, पहली नज़र में बेहद आकर्षक लगा. अप्रेल के महीने में सतना में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में उदय प्रकाश से हुई मुलाक़ात काफ़ी घनिष्ठता में बदल गई थी, उन तीन दिनों में ही. उदय ने बेहद आत्मीयता से यह इच्छा व्यक्त की थी कि मैं जेएनयू आऊं. संयोग से इन्हीं दिनों यूजीसी ने टीचर फ़ेलोशिप स्कीम शुरू करने का ऐलान कर दिया. तो इसी क्रम में मिलने जाना हुआ नामवरजी से. मैं पिछले दस साल से अंग्रेज़ी साहित्य का अध्यापन कर रहा था, और इस वक़्त अजमेर ज़िले के ब्यावर स्थित राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में कार्यरत था. मेरा मन था कि अंग्रेज़ी-हिंदी तुलनात्मक साहित्य का विषय लेकर जेएनयू में नामवरजी के निर्देशन में काम करूं. नामवर जी जब जोधपुर में थे तबसे मुझे जानते थे, और वहां उनसे अक्सर मिलना हो जाता था. उनके जोधपुर-काल में, मैं भीनमाल (ज़िला जालोर) में था, और (स्वयं प्रकाश के साथ) साहित्यिक त्रैमासिक क्यों का संपादन करता था. जोधपुर जाना अक्सर होता था, इसलिए नामवरजी से मिलना भी होता ही रहता था. प्रगतिशील लेखक संघ के नाम पर भी उनसे जुड़ाव था ही, तो जब मैंने नामवरजी से यूजीसी की स्कीम के बारे में बताया तो उन्होंने प्रसन्नता ज़ाहिर की. स्कीम के तहत राज्य सरकार इस सुविधा का लाभ उठाने की स्वीकृति तभी जारी कर सकती थी जबकि कहीं मेरा प्रवेश-चयन हो जाए.
इस सारी प्रक्रिया के पूरा होने में कुछ वक़्त लगना ही था. अंततः, 16 अगस्त से  भारतीय भाषा केन्द्र में टीचर फ़ेलो के रूप में मेरा नाम जुडना था. जेएनयू पहुंचकर मैं कुछ समय तक उदय के साथ रहा, पेरियार हॉस्टल के सबसे ऊपरी माले पर. परिवार के साथ रहने के लिए विश्वविद्यालय द्वारा जगह उपलब्ध कराये जाने तक उदय के साथ ही रहा.
शाम होते ही सारे रास्ते गंगा ढाबा की ओर मुड़ने लगते थे. गर्मागरम चाय के दौर, और साथ ही और भी गर्म राजनीतिक चर्चाओं के कभी न खत्म होते दौर! छोटे-छोटे समूहों में बंटे-बैठे लोग अलग दिखते हो सकते थे, पर लगभग सभी चर्चाएं राजनीति के इर्द-गिर्द ही घूमती थीं, आपातकाल के ढलान के इस दौर में! कुछेक पुराने मित्र अपने उन साथियों के किस्से भी सुनाते थे, वहीं बैठ कर, नए आए लोगों को. कुछ दिन बाद मैं ढाबे और चट्टानों के पीछे बने स्टाफ़ क्वार्टर्स में शिफ़्ट हो गया, 720 नंबर के क्वार्टर में. यह आवास विश्वविद्यालय द्वारा मुझे औपचारिक रूप से आवंटित तो नहीं हुआ था, पर मूनिस साब ने अनौपचारिक रूप से यह सुविधा मुहैया करा दी थी. यहां रहने वाले कम्प्यूटर इंजीनियर जीवी सिंह प्रशिक्षण पर बुल्गारिया जा रहे थे, उनसे जब मूनिस साब ने मेरी समस्या बताई तो वह एक कमरे में अपना सामान-असबाब बंद करके बाक़ी दो कमरे मुझे सौंप गए. तो गंगा ढाबा यहां से भी उतना ही दूर था, जितना पेरियार हॉस्टल से. ओल्ड कैंपस से आने पर बस से उतरते ही यहां थे. गंगा ढाबा का एक विस्तार मेरा घर भी हो गया था, और अक्सर कुछेक मित्र यहां से उठकर वहां भी आ जाते थे.
ढाबे, सड़क-किनारे के भी, जीवंत होते ही हैं, पर गंगा ढाबा की जीवंतता कई अर्थों में लाजवाब थी. शाम को यह पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता था. क्षेत्रों की दृष्टि से, मज़हबों, जातियों और पृष्ठभूमियों की विविधता की दृष्टि से भी. दो समूह वामपंथी छात्रों के थे, और एक फ़्री थिंकर्स का. त्रोत्स्कीवादियों का भी एक समूह था, छोटा-सा. ठीक-ठाक पढे-लिखे लोग थे ये. दक्षिणपंथी राजनीति अंकुआने बेशक लगी थी पर, मुखर नहीं थी. एक तरह से आतंकित भी रहती थी. हिंदी पट्टी से आने वाले लोग सहमे-सहमे रहते थे, अंग्रेज़ियत के माहौल में, पशुपतिनाथ सिंह और घनश्याम मिश्र जैसे अपवाद बेशक थे. हां, यह कभी समझ नहीं आया कि उर्दू की पृष्ठभूमि वाले लोग इतने बेख़ौफ़ और मुखर कैसे होते थे ! चाहे अली जावेद हों, या क़मरआग़ा या मौलाना अनीस. और भी कई लोग थे, जिनके नाम मशक्‍़क़त करने पर ही याद आ सकते हैं. एक दिलचस्प बात यह भी लगती थी कि अपने-अपने राज्यों में विद्यार्थी परिषद की राजनीति करते रहे कुछ लोग यहां आते ही एसएफ़आई में शामिल हो जाते थे. डीपीटी (देवी प्रसाद त्रिपाठी, आजकल राज्य सभा के सदस्य) से तो यह बात मैंने सीधे उनके स्वयं के बारे में ही पूछी थी. एक बार फिर, लंबी चर्चा के दौरान अपने घर पर.
अनिल चौधरी (जो अब साठ साल के हो गए हैं), राजेंद्र शर्मा (जिन्हें बाद में लोग "डिक्टेटरकहने लगे, यह भी तब पता चला जब वह we love jnu से जुड़े), विजय शंकर चौधरी, अली जावेद, उदय प्रकाश, असद ज़ैदी, रमेश दीक्षित, रमेश दधीच और चमन लाल यहां नियमित रूप से मौजूद होने वाले मित्र थे. कभी-कभी सोहेल हाश्मी भी. मनमोहन, रामबक्ष आदि मित्र कम बोलने वालों में हुआ करते थे. आपस में तो खूब बोलते थे, पर समूह में संकोची-वृत्ति थी इनकी. रामनाथ महतो भी बोलते मजबूरी में ही थे, पर हलके से व्यंग्य अच्छा कर जाते थे. यही हाल महेंद्रपाल शर्मा का था, पर वह बोलते भी रहते थे, और व्यंग्य भी सटीक कर गुज़रते थे. पंकज सिंह दो-चार महीने में कभी अचानक अवतरित हो जाते थे, पर उसके बाद टिक कर रह जाते थे. उनसे मिलना-बात करना बेहद अच्छा लगता था. विजय शंकर और पंकज सिंह से तब के बाद मुलाक़ात का योग ही नहीं बैठा.
शनिवार की शाम को रीगल बिल्डिंग स्थित टी हाउस जाना होता था, क्योंकि वहां शहर भर के साहित्यिक मित्रों का जमावड़ा होता था. बाहर से आने वाले मित्रों से भी वहां मिलना हो जाता था. सो दस बजे से पहले लौटना हो नहीं पाता था. पर बस से उतरते ही कुछ लोग तो बैठे मिल ही जाते थे गंगा ढाबा पर.. पंद्रह-बीस दिन का वक्फ़ा ऐसा आया, जब गंगा ढाबा पर लगभग स्थाई अनुपस्थिति रही. वह इसलिए कि परसाईजी सफ़दरजंग अस्पताल में भर्ती थे, अपनी टूटी टांग का इलाज करा रहे थे. जबलपुर में हुआ ऑपरेशन बिगड़ गया था, अतः यहां आए थे. जब तक वह वहां रहे मैं नियमित रूप से उनसे मिलने जाता था, और क़रीब दो घंटे वहां बैठता था. संघियों ने परसाई जी की टांग तोड़ दी थी, उनके लेखन से त्रस्त होकर. परसाईजी अक्सर हंसते हुए लोगों को बताया करते था कि लड़कों ने घर में घुसकर उनके पैर छुए, और फिर हॉकी स्टिक से प्रहार करके उनकी टांग तोड़ दी. इसे मात्र संयोग कहेंगे क्या कि नाथूराम गोडसे ने भी गांधीजी पर गोलियां चलाने से पहले उनके पैर छूने का उपक्रम किया था? क्या यह उनकी संस्कृति का हिस्सा है? संस्कृति का या अपसंस्कृति का?
आपातकाल उठने और चुनाव के दिनों का माहौल काफ़ी गर्म और दिलचस्प दोनों ही हुआ करता था. गंगा ढाबा यानि देशभर की खबरों का प्रामाणिक अड्डा! देश के हर राज्य के लोग यहां थे, और वे आदतन वहां के अपडेट्स मित्रों से साझा किया करते थे.
जून के महीने में मैं अपने लिए आवंटित रूसी अध्ययन केन्द्र (सीआरएस) के वार्डेन फ़्लैट में शिफ़्ट हो गया, तो गंगा ढाबा और गीता बुक सेंटर सप्ताह में तीन-चार दिन का रह गया. एक कारण इसका यह भी था कि चूंकि मैं सपरिवार रहता था, मेरे कई मित्र परिवारों का मेरे घर आना-जाना बढ़ गया था. इनमें कुछ तो जेएनयू के शिक्षक मित्र थे, और कुछ यहां से बाहर के साहित्यिक मित्र थे. चूंकि मैं अखिल भारतीय शिक्षक आंदोलन में भी सक्रिय था तो जेएनयू के शिक्षकों से भी मेरे बड़े घनिष्ठ संबंध बन गए थे. पर गंगा ढाबा तो एक लत थी, जो छोड़े न छूटे. बाद के दिनों में कुछ नए युवा मित्र भी यहां से जुड़ गए थे. इनमें पुरुषोत्तम अग्रवाल से काफ़ी उम्मीदें थीं. समय ने सिद्ध भी कर दिया कि वे उम्मीदें ग़लत नहीं थीं.
पिछले दिनों जब गंगा ढाबा ब्लॉग पर "गेंग्स ऑफ वासेपुरकी समीक्षा पर टिप्पणी कर रहा था तो मन अतीत की भूली-बिसरी स्मृतियों से भर गया. मित्र आशुतोष कुमार ने आग्रह किया कि मैं उन दिनों के बारे में कुछ लिखूं. पता नहीं कैसा बन पाया है, पर यह जैसा भी बन सका, जेएनयू में गंगा ढाबा के केंद्रीय महत्त्व को उकेरने के लिए अतीत में झांकने की मेरी कोशिश की सूचना तो देता ही है. क्या बेफ़िक्री के दिन थे! मस्ती और उत्साह के दिन भी!
हां, एक बात और...वहां रहते हुए मैं कभी गंगा हॉस्टल में नहीं रहा था, जिसका नाम इस ढाबे के साथ जुड़ने पर गंगा ढाबा ने संस्थानिक रूप ग्रहण कर लिया, और पूरे देश में अपनी पहचान भी बनाई. अगस्त 1979 में मैं राजस्थान वापस आ गया. पर संयोग ऐसा बना कि अंग्रेज़ी एवं भाषाविज्ञान केंद्र में कार्यरत अपने मित्रों के आग्रह पर चार महीने के लिए जेएनयू फिर आया, एक विशेष टीचिंग असाइनमेंट पर. सोमवार से शुक्रवार तक वहां, और फिर दो दिन अपने परिवार के साथ. शुरू में तो मैं अपने मित्र हरीश नारंग के साथ रहा. वह उस समय पेरियार के वार्डेन थे. बाद के दो महीने, मैं अली जावेद के साथ रहा था गंगा हॉस्टल में. यह पुनरागमन जैसे पिछली बार रही क़सर को पूरा करने के लिए ही हुआ था.
जेएनयू से जुड़ना एक अप्रतिम अनुभव था, गंगा ढाबा से जुड़ना भी लगभग वैसा ही.

Tuesday, 10 July 2012

जाग सको तो जागो...

वो दिन कब आएगा जब तमाम वामपंथी पार्टियों के ठिकानों (आप इसे "दफ़्तरों" पढ़ सकते हैं!) पर धावा बोलकर वहां बैठे पदाधिकारियों की आंखों में उंगली डाल कर आज के हिंदुस्तान का सच दिखाया जाएगा? लगता नहीं, कि ये अपने आप इस सच को देखने की ज़हमत उठाएंगे. कोई दीर्घकालिक योजना इनके पास है, इसका सबूत इनके दैनंदिन आचरण-व्यवहार से तो मिलता नहीं. हालात और कितने बदतर हों कि इनकी कुंभकर्णी नींद टूटे ! जब रणनीति ही नहीं है, तो कार्यनीति कहां से आएगी? इन्हें कार्पोरेटी-फ़ासिस्ट गंठजोड़ की वास्तविकता क्यों नहीं दिख पा रही? विकास के नाम पर जल-जंगल-ज़मीन, सब को सुंदर-सी तश्तरी में रख कर कारपोरेटों को भेंट कर देने की साज़िश समझ में क्यों नहीं आ रही? इन्हें अपने काडर के भीतर पनपता असंतोष भी क्यों दिखाई नहीं दे रहा? इतनी चुप्पी, इतना सन्नाटा इनके ठिकानों में, कि यह निष्कर्ष निकालना गैर-वाजिब नहीं होगा कि जनता को इनसे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. दुश्मन पीटता है, तो पिट लें! मारता है, तो मर जाएं ! महिलाओं की अस्मत लुटती है, तो लुटे! विकास के नाम पर सांप्रदायिक शक्तियां देश के सामने संकट पैदा कर रही हों तो करती रहें ! कब तक यह चलता रहेगा कि ये इस या उस मुद्दे पर इस या उस बुर्जुआ पार्टी के साथ खड़ी होकर अपने "होने" को प्रमाणित करती रहेंगी? दुनिया भर में चल रही परिवर्तनकामी कसमसाहट पर इनकी नज़र क्यों नहीं पड़ रही? इन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जनता यदि ज़ुल्म का प्रतिकार करने के लिए एकजुट हो गई किसी दिन, तो इन्हें अपनी पांतों में घुसने नहीं देगी! आस-पास फटकने भी नहीं देगी !

और किस खतरे की घंटी के बजने का इंतज़ार है, इन्हें??? ताले अभी भी बनते हैं. "अलीगढ़ी" पसंद न हों तो "चीनी" ताले खूब मिल रहे हैं. बाज़ार अंटा-पटा पड़ा है, चीनी तालों और कैंचियों से. और दुकान में सामान न हो तो, ताला लगा देना "अविवेकी" नहीं माना जाता. दुकान खुली रख कर मक्खियां मारते रहने से ज़्यादा बदनामी होती है. वैसे भी मक्खियां मारने का काम संभालने के लिए तो सत्ता ने करोड़ों लोगों को खेत-ज़मीन से बेदखल करके बेरोज़गार बना ही दिया है. मक्खियां मारना इन्हें "शोभा" थोड़े ही देता है !

परिवर्तन की वस्तुगत परिस्थितियां तो काफ़ी "पकी हुई-सी" दिखती हैं, उन्हें और पकाने के लिए जिस सही "उत्प्रेरक" की ज़रूरत होती है, उस काम का ज़िम्मा निहित होता है, परिवर्तन की इच्छा को फ़ैसलाकुन हमले की तैयारी में तब्दील करके जनता को लामबंद करने की नेतृत्व-क्षमता रखने वाली पार्टी/पार्टियों में! देर तो खूब हो गई है, फिर भी जागने का मन हो तो सवेरा हो ही जाएगा. यह दूसरी बात है कि यह सुबह "वो सुबह कभी तो आएगी" से जुदा हो, शुरुआत में. पर जागने पर होने वाली सुबह "उस सुबह" में बदल जाए इसके लिए बहुत पापड़ बेलने होंगे. यदि "पापड़ बेलने का मन” हो तो :

1. सभी रंगतों के वाम को एक साथ मिल-बैठ कर, आज के सामाजिक यथार्थ के "चरित्र" का विश्लेषण करके, एक समयबद्ध न्यूनतम साझा कार्यक्रम की रूपरेखा बनानी होगी;

2. समाज के विभिन्न संस्तरों में से अपने "स्वाभाविक मित्र/सहयोगी चिह्नित करने होंगे, तथा उनके मन में अपने प्रति विश्वास पैदा करना होगा;

3. पिछले चालीस-पचास साल में जो परिवर्तन-लक्षित चिंतन हुआ है, दुनिया भर में, उसके आधार पर, अपनी समझ को दुरुस्त करना होगा. अतीत के किसी (स्वर्णिम भी?) दौर में उलझे-अटके रहना, समझ की दुरुस्तगी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होगा, इस खतरे से बाखबर हुए बिना “कल” का रास्ता निर्धारित नहीं किया जा सकता, और न दिशा ही;

4. अपने वैचारिक/बौद्धिक हमदर्दों को हिक़ारत की नज़र से देखना बंद करके उनके साथ सतत जीवंत संवाद क़ायम करना होगा;

5. दलित-अदिवासियों-महिलाओं के मुद्दों को अपने अल्पकालिक व दीर्घकालिक, दोनों एजेंडों में न केवल प्राथमिकता के साथ शामिल करना, बल्कि यह दिखाना भी होगा कि एक बड़ी लड़ाई के परचम तले ही इन प्रश्नों का समाहार संभव है, विमर्शवादी तरीकों से नहीं. इन्हें एक ही लड़ाई का हिस्सा बनाकर सामाजिक समरसता को बनाए रखा जा सकता है, जिसके बिना लड़ाई बंट जाती है, और विफल होने को अभिशप्त होती है.

यह भी ध्यान रखें कि आपके हमदर्दों को भी जवाब देने पड़ते हैं, क्योंकि जवाब उनसे मांगे जाते हैं. इसीलिए यह आह्वान जागने का! आत्महंता दृष्टि यदि स्थाई भाव नहीं बनी है तो, जागो.