Wednesday 28 March 2012

तब और अब

बहुत पुरानी नहीं है यह बात
गर्मी के मौसम में बढ़ती थी जैसे ही
किल्लत पानी की
हर दूसरे-चौथे दिन झंडों की अगुवाई में
निकलती थी औरतें
मुसे कपडे पहने हुए, पर
इस सबके प्रति बेपरवाह
निकलती थी औरतें
टीकाटीक दुपहरी में पुराने मटकों को
रख कर सिर पर
पानी के दफ़्तर में फोड़ने के लिए
कोसते हुए सरकार को समवेत स्वर में.

महंगाई और जमाखोरी के खिलाफ़
निकलती थी रैलियां
ट्रेड यूनियनों की तरफ़ से
गुंजाते हुए आसमान को ओजस्वी नारों से
आम सभा में बदल जाती थी रैली
शहर के बीचो-बीच. बहरों के कान पर
नगाड़े बजाने की क़वायद जो कई दिनों तक
चढ़ी रहती थी लोगों की जुबान पर.
रैली निकालने वालों से पांच गुना भीड़
इकठ्ठा होती थी इन सभाओं में.
जहां 'सींग समाएं' वहीं बैठे-खड़े
सुनते थे वक्ताओं को.

यह कैसा उदारवाद आया है
जिसने हर दुख-तकलीफ़ को
झेलने और हालात के अपरिवर्तनीय होने का
ज़हरीला भाव भर दिया है जन-गण के मन में
नियति ही मान लिया गया हो जैसे
फालिज मार गया हो प्रतिरोधी मंसूबों को.

और ये जो कलश-यात्राएं देख रहे हैं आप
कभी भागवत कथा और कभी
गायत्री शांति-संपन्नता यज्ञों के नाम पर?
इन्होंने जगह ले ली है मटका-फोड़ अभियानों की
कितने उत्साह से
गहनों से लदी-फंदी महिलाएं चमचम
वस्त्रों में हंसती-बतियाती उल्लसित
निकालकर लाई जाती हैं घरों से पूरी
तैयारी के साथ जैसे जता रही हों
सबको कि सब कुछ तो ठीक है
इतना जितना पहले कभी नहीं था
धर्म-ध्वजा फहरा रही है
चमक रहा है आर्यावर्त्त
अब और क्या चाहिए? नव-धनाढ्य वर्ग
पाता है सामाजिक प्रतिष्ठा
मन को गहरे गुदगुदाने वाली स्वीकार्यता
अधर्म से अर्जित धन को उलीच कर
धर्म के नाम पर. एक ज़माना वह था
जब बुरा माना जाता था
प्रदर्शन धन का और
वैभव का निर्लज्ज प्रदर्शन
और आज? मुंह बाए देखते रहते हैं
राहगीर, और श्रद्धा(?) से बैठे दर्शक-श्रोता
मन के भीतर चलता हो जो भी
ऊपर से जयकारा है खुले गले से
धन्य धन्य धन्य धर्मात्मा,
त्यागी, दानी, अपरिग्रही
और न जाने क्या-क्या!

बच्चों की परीक्षाएं चल रही हैं
ज़ाहिर है पढ़ना तो तब तक है ही
जब तक एक भी पर्चे का धरा हुआ है बोझ छाती पर
यह पत्थर हटेगा तो रख जाएगी
कोचिंग की शिला जो धरी रहेगी अगले
साल की परीक्षा तक. दुविधा में
मां-बाप
नहीं कह पाते खुलकर कि गूंजते
लाउड स्पीकर के स्वर बरछी से चुभते हैं

उनकी छाती में और
उनके बच्चों के कानों में
और यह गूंज अंधियारा फैला देती है
उनकी आंखों के सामने. दुविधा पैदा होती है
इस डर से कि उन्हें नास्तिक धर्म-विरोधी
समझ लिया जाएगा. मैंने कहा
ऐसे कुछ दुखियारों से कि विरोध
पाखंड का, ढोंग का, वैभव के नंगे प्रदर्शन का
करने पर मिलता है ख़िताब गर
नास्तिकता का तो यह
बात शर्म की नहीं विजय की है
उल्लास मनाया जाना चाहिए जिस पर.
खुद के हितों पर पड़ रही हो चोट
फिर भी सच को सच न कहना
और ग़लत ढंग से प्रतिष्ठा अर्जित करने वालों
को बेनक़ाब करने से कतराना
व्यावहारिकता नहीं कायरता है
और कायरता की शर्मिंदगी उठाते
चले जाना चिंता की बात है
नास्तिकता का तमगा गर्व की बात है
वे चाहे गाली के रूप में ही कह रहे हों इस बात को.

तब और अब का फ़र्क़ दिखाना
प्रेरित नहीं है अतीत-मोह से
झुंझलाहट है जो पैदा होती है
खुले दिमाग, खुली आंखों और अच्छी स्मृति
के संयोजन से. लुप्त होते चले जाना अच्छी चीज़ों का
और दिखते रहना असहनीय ग़लत चीज़ों का
पैदा तो करता ही है गुस्सा
यह गुस्सा सामूहिक गुस्से में कब बदलेगा?
"उदात्त सामूहिक क्रोध" में जो भस्म करने की शक्ति से
भरा हो, और राख से नया सृजन करने की
संभावना को मूर्त रूप देने के
भाव और जोश से भर दे, हम सबको.

                                    -मोहन श्रोत्रिय 

3 comments:

  1. एक सम्पूर्ण चित्र तब और अब का और "उदात्त सामूहिक क्रोध" की राह तकती, "राख से नया सृजन करने की
    संभावना" पर विराम लेती एक सम्पूर्ण रचना!
    सादर!

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  2. वक़्त को बदलते देखा है। आपके वक़्क का असर हमारे जवान होते वक़्त भी था पर फिर सब कुछ तेजी से बदलता गया। रामशिलापूजन यात्राएं, रामकथाएं और नवउदारवाद साथ-साथ आए। धीरे-धीरे प्रतिरोध को गैरजरूरी बताया गया और प्रतिरोधी स्वरों को गली-मुहल्ले तक में निशानों पर लिया गया। झुंझलाहट स्वाभाविक है और आपकी अपेक्षा भी उचित ही है। यह भी सही ही कहा कि यह अतीत मोह नहीं है वर्ना नॉस्टेलजिया कहकर मजाक बनाया ही जाता है। उस दौर को बार-बार याद करना, रेकॉर्ड पर रखना भी एक बड़ा काम है।

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  3. खुद के हितों पर पड़ रही हो चोट
    फिर भी सच को सच न कहना
    और ग़लत ढंग से प्रतिष्ठा अर्जित करने वालों
    को बेनक़ाब करने से कतराना
    व्यावहारिकता नहीं कायरता है

    बहुत सार्थक लेखन सर....
    हर शब्द पैना........
    सादर
    अनु

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