उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत पसंद की जाने वाली ज़ुबानों में से एक है जिसका अभ्युदय भारत में मुस्लिम शासन के लगभग 800 सालों की हुकूमत के दौरान हुआ, मुस्लिम हुकूमत के अंतिम 100सालों में (1800 के आते आते और उसके बाद) इसका प्रचार प्रसार लेखन में अभिव्यक्ति के बतौर इतिहास में दर्ज़ किया जाने लगा. मुस्लिम हुकूमत के दौरान मध्य एशिया के विभिन्न देशों से आये सैनिकों जिनमें तुर्क, मंगोल, ईरान और अरब के सैनिकों की संख्या अधिक थी, इन्हीं अहम नस्लों की फ़ौजी छावनी में एक मिश्रित भाषा अपने सहज-मानवीय व्यवहार के दौरान बनी जिसका नाम उर्दू है. उर्दू ज़ुबान को छावनी से निकल कर महल और सत्ता के गलियारों से संबंध रखने वाले समाजी तबके में अपना असर महसूस कराने में काफ़ी वक्त भी लगा और मेहनत भी. ज़ाहिर है मुग़लिया हकुमत के दौरान फ़ारसी ही राज्य भाषा थी जिसके समानान्तर या यूं कहें कि इसकी छत्रछाया में उर्दू ने अपने पैरों पर चलना सीखा. यह कहना ऐतिहासिक रुप से सच नहीं होगा कि उर्दू शुद्ध रुप से भारतीय भाषा है या इसका मुसलमानों से कोई वास्ता नहीं. यह भाषा शुद्ध रुप से भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों के आगमन के पश्चात ही विकसित हुई जिसमें कालान्तर में देवनागरी के शब्दों का प्रचलन-सम्मिश्रण भी वैसे-वैसे बढ़ा जैसे-जैसे इसका असर और रसूख समाज के दूसरे इदारों में बढ़ा और इसे सामाजिक स्वीकृति मिली.
ज़ाहिर है, उर्दू का विकास क्योंकि छावनी में हुआ और उसका फ़ैलाव सत्ता से जुड़े सामाजिक तबके में ही हुआ लिहाज़ा यह जन भाषा कभी नहीं बन सकी. राजा के दरबार में साहित्य, काव्य अथवा राजा से जुड़े उसके मनसबदार, नवाब, सूबेदार, फ़ौज के अफ़सर, शासन चलाने वाले हाकिम, मालगुज़ारी वसूलने वाले और ज़मींदारों के बीच ही इसका प्रचलन बढ़ा. सामंती समाज में इसी तबके के पास पढ़ने लिखने, काव्य और मौसीकी के लिये वक्त था तब इनके मानसिक मनोरंजन या विलासिता के लिये जिस बाज़ार का निर्माण तत्कालीन समाज में हुआ उसे उर्दू से पूरा किया. ज़ाहिर है इस तबके को स्थानीय भाषा अथवा उसके कवियों से उस सुख की अनुभूति स्वाभाविक रूप से नहीं मिल सकती थी जिनका खून उन्हें चूसना था...जिनसे उन्हें लगान वसूलना था या जिन पर उन्हें शासन करना था. ब्रज भाषा, भोजपुरी, अवधी, खडी बोली में उनकी सत्ता के मद का रस भला कैसे व्यक्त किया जा सकता था? स्थानीय भाषाओं का दर्द उनके वर्गीय चरित्र के अनुरूप था जबकि मलाईदार सामंती तबकों को अपनी मानसिक संतुष्टि (ऐय्याशी) के लिये जिस फ़ाहे की जरुरत थी, वह रुहानी फ़ाहा फ़राहम कराने का काम उर्दू भाषा ने पूरा किया, इसके मिठास पर चर्चा करने वाले, उस पर रात-दिन एक करने वाले अदीब भारतीय इतिहास के इस करुणामय तथ्य को भूल जाते हैं कि आम जनता के लिये उस कठिन समय में इस मिठास का लुत्फ़ लेने वालों के हाथ कोहनियों तक और पैर घुटनों तक खून में रंगे हैं. ज़मीन पर विदेशी हुकमरानों का कब्ज़ा हुआ था, जिनकी ज़मीनें थीं वही देशज भाषी जोतदार-गुलाम बने और उर्दू बोलने वाले उनके राजा, हाकिम, लगान वसूलने वाले बने. निसंदेह उर्दू का इतिहास बताने वाले इस भाषा के सामंती चरित्र पर हमला किये बगैर ही इसका महिमामंडन यदि करते हैं तब उनके वर्गीय चरित्र का मूल्यांकन ज़रुर करना होगा. दूसरी एक वजह, इस भाषा का मुसलमानों से संबंधित होने के कारण इसके राजनीतिक रुप से संवेदनशील होना भी है जिसके चलते इस भाषा के वर्गीय चरित्र पर ऐतिहासिक मीमांसा ऐसे नहीं हुई जैसी होनी चाहिये थी. इतिहास के किसी क्रम और उससे जुडे़ अनाचार को भुलाकर किसी भाषा की समीक्षा करना न केवल एकांगी होगा वरन इतिहास के साथ निर्मम धोखाधड़ी भी होगा. भारत के संदर्भ में यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है, संस्कृत, पालि, अवधी, ब्रज, तमिल, तेलुगू आदि से लेकर उर्दू तक हमें इन भाषाओं के वर्गीय चरित्र और इनके सामाजिक आधार की समीक्षा ज़रुर करनी होगी तभी किसी फ़ैसलाकुन नतीजे पर पहुंचा जा सकता है.
सामंती चरित्र की विशेषताएं विलक्षण हैं, सामंत अपना घर, अपनी बैठक, खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, खाना-पीना, कपडे, तलवार, हत्यार, बैंत, जूती, धर्म, संस्कार, तौर-तरीके, मूंछ का बाल, यहां तक कि नाई-धोबी-लोहार-दर्जी आदि पर ही न केवल अपनी दबंगई की छाप छोड़ता है बल्कि उससे भी अधिक उसे अपनी भाषा पर घमंड होता है. सामंती सोच की इस कमज़ोरी को, या यूं कहें कि इस लक्षण को उर्दू ने बखूबी अपने काम में लगाया. इस भाषा ने न केवल भारत के सामंती तबके की वैचारिक नज़ाकत को प्रश्रय दिया बल्कि इस वर्ग के साथ खुद को जोड़ कर अपनी विशिष्टता बनाए रखने में भी कामयाब हुई, नवाब-सामंत-हाकिम भी इससे संतुष्ट था कि उसकी ज़ुबान की नज़ाकत सिर्फ़ उसे ही समझ में आती है, आम कामगार, खेत मज़दूर अथवा श्रमिक उसकी भाषा से अनभिज्ञ है, इससे उसके व्यक्तिगत दंभ को भी बल मिलता. यह दंभ दोनों को एक दूसरे की हिफ़ाज़त करने में मददगार साबित हुआ, लिहाज़ा उर्दू भारत के शासक वर्ग की ज़ुबान बन गई जबकि ज़मीनी स्तर पर जनता की ज़ुबान इलाकाई भाषाएं ही रहीं, लेकिन मुसलमान शासक वर्ग दिल्ली, कलकत्ता, मैसूर, हैदराबाद जैसे दूरस्थ स्थानों पर भी एक ही ज़ुबान मज़बूती से बोलता दिखा.
भारत पर अंग्रेज हुकूमत के दौरान और उससे निजात पाने की जुस्तजु यानि आज़ादी की लडाई के दौरान उर्दू के सामंती चरित्र पर थोडी चोट लगी. आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे सनानियों जिसमें मुसलमान तबका भी शामिल था अब आम जनता से बातचीत करने को तैयार दिखा, लिहाजा उर्दू की किताबें, इश्तहार और देशभक्ति के तरानों के माध्यम से उर्दू किसी हद तक आम जनता के घरों में आ पहुंची. हिंदी- हिंदू- हिंदु स्तान जैसे नारे का चलन 1930 के दशक से शुरु हो जाने के कारण उर्दू को मुस्लिम और हिंदी को हिंदू जैसे सख़्त लबादे ओढ़ने पर मजबूर होना ही था. धर्म के आधार पर जंगे आज़ादी की लडाई जब तकसीम हुई तब उर्दू को मुकम्मिल तौर पर मुसलमानों के आंगन तक ही सिकुड़ना था जोकि तर्कसंगत भी था. दार्शनिक, लेखक, कवि इक़बाल ने मुसलमानों को एक मुक़म्मिल राष्ट्र की अवधारणा के रूप में निरूपित कर ही दिया था, मौहम्मद अली जिन्ना ने इसी आधार पर द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की रचना की और एक स्वतंत्र मुसलमान राज्य की स्थापना करने में जुट भी गये, 1944 में गांधी को लिखे एक पत्र में जिन्ना ने खुद को मुसलमानों का एकमात्र नेता मानते हुए कुछ यूं कहा, " हम 10 करोड़ लोगों के एक मुक़म्मिल राष्ट्र हैं, हम अपनी विशिष्ट संस्कृति, सभ्यता, भाषा, साहित्य, कला, भवन निर्माण कला, नाम, उपनाम, मूल्यांकन की समझ, अनुपात, क़ानून, नैतिक आचार संहिता, रिवाज़, कलेंडर, इतिहास, परंपरा, नज़रिया, महत्वाकांक्षाओं के चलते एक राष्ट्र हैं. संक्षेप में हमारा जीवन पर और जीवन के बारे में एक विशिष्ट नज़रिया है लिहाजा किसी भी अंतर्राष्ट्रीय नियम क़ायदे-क़ानूनों के मद्देनज़र हम एक राष्ट्र हैं." इस व्यक्तव्य से भाषा के महत्व और उसकी गंभीरता को समझा जा सकता है.
भारत की आज़ादी और पाकिस्तान बनने के बाद उर्दू के लिये हुए संघर्ष को समझने के लिये हमें पाकिस्तान के इतिहास को ही टटोलना होगा. पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू ही होगी, यह पहले ही मुस्लिम लीग ने स्पष्ट कर दिया था लेकिन भविष्य में इस प्रश्न को लेकर कितना गंद-गुबार छिपा है इसे कौन जानता था? बंटवारे से पहले जिन्ना 10 करोड़ मुसलमानों के स्वयंभू नेता थे, लेकिन जो पाकिस्तान उन्हें मिला, दुर्भाग्य से उसमें अधिसंख्यक 4.5 करोड़ बंगाली मुसलमान थे जिन्हें अपनी भाषा और संस्कृति से बेहद प्यार था. जो तर्क जिन्ना ने भारत के बंटवारे से पहले अपने लिए दिए थे, उन्हीं तर्कों के आधार पर बंगाली समाज अपने हिस्से का "पाउण्ड आफ़ फ़्लेश" मांग रहा था जिसे मुस्लिम लीगी सामंती नेतृत्व अपने दंभ के चलते देने को तैयार नहीं था. बंगाली मुसलमानों के बहुमत होते हुए भी इस दंभी नेतृत्व ने उर्दू को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया. पृथ्वी पर बने पहले नवजात मुस्लिम राष्ट्र को सबसे पहले भाषा के सवाल पर ही चुनौती झेलनी पडी. पूरा पूर्वी पाकिस्तान (पूर्व बंगाल) में उर्दू को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिये जाने पर गहरे विक्षोभ में डूब गया, इसी विरोध के मद्देनज़र जिन्ना ने ढाका विश्वविद्यालय के कर्जन हाल में 21 मार्च 1948 को अपने भाषण में कहा:
"मुझे आपके सामने यह स्पष्ट कर देना है कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी. जो भी इस संदर्भ में आपको गुमराह करने की कोशिश करेगा वह असल में पाकिस्तान का दुश्मन है. बिना एक राष्ट्रीय भाषा के कोई भी देश मजबूती के साथ एकजुट नहीं रह सकता और न ही कार्य कर सकता है. दूसरे देशों का इतिहास देखो इसीलिये जहां तक पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा का प्रश्न है, वह उर्दू ही होगी."
पूरा हाल इस व्यक्तव्य के बाद "नो" से गूंज गया, राष्ट्रपिता (क़ायदे आज़म) जिन्ना को अपने ही नौनिहाल देश में यह पहले सार्वजनिक विरोध का सामना था. 11 सितंबर 1948 को जिन्ना की मृत्यु के बाद लियाक़त अली ख़ान ने अपने भरपूर सामंती स्वरुप में उर्दू की वकालत जारी रखी जिसके साथ साथ बंगाली मुसलमानों में बंगाली भाषा के लिये मोह बढ़ता गया. पाकिस्तानी हुकमरानों ने इस विवाद से निपटने के लिये एक भाषा समिति भी बनाई जिसकी सिफ़ारिशें गुप्त रखी गईं. बंगाली भाषा को सार्वजनिक रूप से हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा बता कर (क्योंकि उसका आधार संस्कृत है) उसका शुद्धिकरण करने जैसी तकमीलें निकाली गईं. रवींद्र संगीत और नज़रुल के गीतों को हिंदू संस्कृति का वाहक घोषित किया गया जिसके चलते गैर मुस्लिम बंगाली समाज में असुरक्षा का भाव लगातार गहराता गया. भाषा के मसले पर सभाएं, धरना प्रदर्शन होने से लगातार बंगाल का राजनैतिक माहौल गर्माता रहा जिसे उर्दू के पैरोकारों-सामंतों-नेताओं ने पाकिस्तान के विरुद्ध चल रही साज़िश बताया. इसी माहौल में 21 फ़रवरी 1952 को ढाका में एक प्रदर्शन के दौरान हुकूमत ने गोली चला दी जिसमें सैकड़ों ज़ख़्मी हुए और विश्वविद्यालय के चार छात्रों की मौत हो गई जिनके नाम रफ़ीक, जब्बार, सलाम और बरक़त थे. इस घटना को बंगलादेश के इतिहास में "एकुशै" त्रासदी के नाम से जाना जाता है, इन्हीं चार लोगों की स्मृति में ढाका की शहीद मीनार बनाई गई और इन्हीं चारों शहीदों को बंगाल राष्ट्र के अग्रज नेताओं के रुप में आज भी जाना जाता है. 1952 से लेकर 16 दिसंबर 1971 के 19 वर्षों के इतिहास में पश्चिमी पाकिस्तान को बंगाल पर एक औपनिवेशिक ताक़त और उनके ज़ुल्मो-सितम में कोई 30 लाख बंगालियों की हत्याएं इसी उर्दू अदब के प्रेमियों, दंभियों, फ़ासिस्ट ताक़तों ने अपनी नाजायज़ संतान जमाते इस्लामी जैसे संगठन, फ़ौज, पुलिस, खुफ़िया इदारों आदि के जरिये करवाई. उर्दू भाषी अल्पसंख्यक होते हुए भी, अपने दंभी संस्कारों के चलते पूरे पाकिस्तान पर इस भाषा को थोपने का नतीजा यह हुआ कि अपने जन्म के कुल 24 साल के भीतर इसे पूर्वी पाकिस्तान से हाथ धोना पड़ा. इन 24 सालों में यदि बंगाली समुदाय का संसद, फ़ौज, सरकारी नौकरियों, पुलिस आदि में आनुपातिक प्रतिनिधित्व देखें तब यह स्पष्ट हो जाता है कि पश्चिमी पाकिस्तान के हुकमरान इन्हें कितने संदेह की दृष्टि से देखते थे. भाषा के साथ-साथ पूर्वी बंगाल से जुड़े अन्य राजनीतिक प्रश्नों/कारणों पर यहाँ टिप्पणी करना न तो प्रासंगिक है, और न उचित ही होगा. आज़ाद बंगलादेश के लिये ऐकुशै (इक्कीस) फ़रवरी एक राष्ट्रीय पर्व बन गया है, राष्ट्रभक्ति और बंगला भाषा के प्रेम से ओतप्रोत कई मधुर काव्य रचनाएं की गईं हर साल उन चारों छात्र शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि पूरे बंगला देशवासियों द्वारा अर्पित की जाती है.
भारत में उर्दू भाषा का चरित्र मूलत: कुलीन वर्गीय ही रहा, खासकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जिसकी स्थापना का मूल उद्देश्य भारतीय मुस्लिम सामंतों, नवाबों और मध्य-उच्च वर्ग के बच्चों को अंग्रेज़ी तालीम देना था (सर्व साधारण मुसलमानों के लिये नहीं) लिहाज़ा वहां तालीम लेने गए कुलीन मुस्लिम नौजवानों ने इस ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को भली-भांति निभाया. इसी विश्वविद्यालय के पढे़ सूरमाओं ने सबसे पहले उसी मुल्क को तोड़ने का वैचारिक आधार पैदा किया जहां वह पले बढे, आज भी यह विश्वविद्यालय उन देशभंजक कवियों और उर्दू भाषा के नाम पर सीना ठोक ठोक कर दंभ मारने वालों के कसीदे पढ़ने में कोई कोताही नहीं बरतता बल्कि उनके लिये सालाना जलसे भी मनाता है. इसी विश्वविद्यालय के पढे दानिशवरों ने पाकिस्तान में जुबान को मज़हब से जोड़ने वाली अमरनाल की संचरना की जिसके चलते, न केवल भाषा को ही नुक़सान उठाना पडा बल्कि पूरे इतिहास को सिरे से खारिज करने की मंशा में एक पूरी पीढी को ज़हर से भर दिया जिसे अपने अतीत के सही अर्थों का न तो ज्ञान रहा, न मान. आज इन्हीं उर्दू के दंभियों ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बोली जाने वाली पंजाबी ज़ुबान जिसकी पैदाइश भारतीय है, उसकी नयी लिपि फ़ारसी-अरबी के आधार पर विकसित की जा रही है. जिस विषैली मानसिकता के चलते उन्होंने बंगला भाषा के शुद्धिकरण का प्रयास 1950 के दशक में किया था, उसी दूषित मानसिकता के चलते वह पंजाबी की इबारत लिखने में ,उल्टे हाथ से शुरु करने और उसका गुरुमुखी प्रभाव समाप्त कर उसे अरबी-फ़ारसी लिपि देने में साफ़ स्पष्ट हो जाता है कि ये किस मानसिकता से ग्रस्त तबका है.
यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि उर्दू भाषा के साहित्यकारों की एक लंबी फ़ेहरिस्त उन लेखकों से भरी पडी है जिन्होंने भारत में इंकलाब करने की कसमें खाई थी, सज्जाद ज़हीर से लेकर कैफ़ी आज़मी तक बाएं बाजू के इन तमाम दानिशवरों, शायरों, अफ़साना निगारों ने जंगे आज़ादी में बडी-बडी कुर्बानियां दी हैं. 1943 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (अधिकारी-लाइन के चलते) ने पाकिस्तान विचार को लेनिन के सिद्धांत के आधार पर खुली मान्यता दी और बाक़ायदा मुस्लिम साथियों को पाकिस्तान पार्टी बनाने के लिए भेजा गया, सज्जाद ज़हीर पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के पहले जनरल सेक्रेटरी भी बने, उनके बाद फ़ैज़ साहब ने किसी हद तक परचम थामे रखा बावजूद इसके कि उन्हें कई दौरे हुक्मरानों ने जेल की सलाखों के पीछे डाले रखा फ़िर भी वह मरते दम तक अपने इंकलाबी मक़सद से नहीं हटे. दुर्भाग्य से ये तमाम नेता उर्दू भाषी ही थे जो अपनी आला तालीम के बावजूद कोई बडा ज़मीनी आंदोलन शायद इसी लिये नहीं खडा कर पाये क्योंकि इनकी तरबियत भी सामंती निज़ाम, ज़ुबान, उसूलों और रस्मों रिवाज में ही हुई थी. इन्होंने मुशायरों में भीड़ तो इकठ्ठी की लेकिन उसे जलूस बना कर सड़क पर लाने में सफ़ल न हुये. शायरी से किताबी और काफ़ी इंकलाब तो जरुर हुआ लेकिन सुर्ख इंकलाब का परचम कभी घरों के उपर नहीं फ़हराया जा सका. इन्हें लेनिन पुरस्कार जैसे बड़े बड़े एज़ाज़ हासिल तो हुए लेकिन व्यापक जनता का खुलूस न मिल सका. आज भी कमोबेश यही हक़ीक़त हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों में देखी जा सकती है. इस ज़ुबान के शायर/लेखक टेलिविज़न चैनलों पर अच्छी बहस करते देखे जा सकते हैं लेकिन दांतेवाडा काण्ड-सोनी सोरी-आज़ाद हत्याकांड आदि पर जावेद अख्तर कभी नहीं बोलते देखे जा सकते, वहां अरुंधति राय उन्हें पटकी देती नज़र आती हैं. नतीज़ा यही हुआ कि सलमान तासीर की हत्या के बाद उसके विरोध में चंद आदमी सड़क पर उतरे जबकि उसके क़ातिल को अदालत में वकीलों की तरफ़ से हीरो जैसा सम्मान मिला.
उर्दू का भविष्य पाकिस्तान में भी दिन ब दिन अंधेरे की गर्त में घुसता प्रतीत हो रहा है, जिन हालात से पाकिस्तान आज बावस्ता है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि ये मुल्क एक बार फ़िर टूटन के कगार पर है. अमेरिका की मौजूदगी, उसके साथ टकराव और पाकिस्तानी समाज एक आंतरिक अंतर्विरोध उसे फिर तोड़ दें तो ताज़्ज़ुब न होगा. बलोचिस्तान की स्वतंत्रता के बाद स्वाभिक रूप से पंजाब, सिंध अपनी अपनी राष्ट्रीयताओं की तरफ़ तेज़ी से बढेगें जैसे नार्थ वेस्ट प्रोविन्स में पठान बढे हैं, इस राज्य में पश्तो ज़ुबान राज्य भाषा हो ही चुकी है, पंजाबी अपनी ज़ुबान लेंगे, सिंधी अपनी और बलोच अपनी ही भाषा को महत्व देंगे...बचे मुहाजिर, जिनकी हक़ीक़त से आज पूरी दुनिया दो चार है, उनका नेता लंदन में बैठा तकरीरें करता है और दिल्ली में आकर मुहाजिरों की खता माफ़ करने और उन्हें वापस हिंदुस्तान में पनाह देने का ऐलान पहले ही कर चुका है, ऐसे हालात में उर्दू का यह डगमगाता जहाज़ कितनी दूर और आगे परवाज़ करेगा यह कहना अभी मुश्किल है लेकिन क़यास लगाया ही जा सकता है.
भारत में उर्दू ज़ुबान पर मुलायम जैसे नेताओं ने अपनी रोटियां सेक सेक कर इसे शुद्ध रुप से सांप्रदायिक प्रश्न बना दिया है, जितना प्रचार उर्दू के नाम पर किया जाता है उससे अधिक गति से हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान शहर, कस्बों और गांवों की दीवारों पर पुता दिखाई देता है. बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि जगह ज़मीनी स्तर पर उर्दू के प्रचार-प्रसार के संजीदा काम हुए हैं, मदरसों से पढे हुए छात्र आमतौर पर धार्मिक इदारों में ही खप कर रह जाते है जिनकी व्यापक समाज के हित में कोई रचनात्मक भूमिका न के बराबर है, लेकिन सियासी मसले पर यह तबका आंदोलित होकर जब सड़क नापता है तब उसकी प्रतिक्रिया ज़बरदस्त होती है.
उर्दू भाषा को सच्ची राह और दिशा हिंदुस्तान के गली कूचों से ही मिलेगी, इस भाषा का प्रचार जितना जड़ों में होगा उतना ही इसके सिर से सामंती बोझ कम होगा, जितनी भी यह जन भाषा होगी उतनी ही सरस होगी. जब जब इसे महारानी बना कर पेश किया जाता रहेगा तब तब इसके वंश और खानदान की पड़ताल होगी, इसके खिलाफ़ साज़िशें होंगी, इसे हुक्मरान की नज़र से देखा जाता रहेगा जिसका नतीजा हम देख ही चुके हैं, हां अगर ये दूसरी भाषाओं की बहन बन गयी, तभी से इसकी हिफ़ाज़त का ज़िम्मा सभी स्वत: ले लेंगे (आज भी इस सोच के लोग हैं जो इसी जज़्बे के चलते इसे न केवल सम्मान देते हैं बल्कि उसे अपने कुनबे की समझ कर इसकी सेवा करते हैं), सभी इसकी सेहत का, दाने-पानी का, इसके मिलने जुलने वालों को वही तवज्जो देंगे जैसे बहनों को मिली है, उन्हें दी जाती है, इसे भी दी जाएगी..शर्त यह है कि इसे महारानी के दंभी तख्तोताज़ से उतरना होगा जहां इसे नाजायज़ तरीके से कुंठित, दूषित, मानसिक तौर पर दिवालिया सियासी लोगों ने जबरन बैठा दिया है.
पाकिस्तान मे उर्दू साहित्य के हालात पर एक आलेख यहाँ पढ़ें.