Tuesday 10 January 2012

प्रतापराव कदम की तीन कविताएं

प्रतापराव कदम काफ़ी लंबे अरसे से कविताएं लिख रहे हैं, और कवि के रूप में उनकी पहचान भी बनी हुई है. उनकी कविता की खासियत है सहज संप्रेषणीयता. वह अपने आस-पास से कविता के विषय चुनते हैं और सरल भाषा में, अक्सर व्यंग्य का सहारा लेते हुए, अपनी बात सादगी से कह जाते हैं. समाज में व्याप्त तरह-तरह की कुरीतियों पर भी वह नज़र डालते हैं और तमाम तरह के पाखंड और नैतिक दृष्टि से भ्रष्ट आचरण को निशाना बनाते हैं. 'धर्म कहां' और 'लानत भेजता हूं मैं' में इसे साफ़ तौर पर देखा जा सकता है. कवि को जब यह लगे कि कुछ चीज़ें बदलनी ही चाहिए तो वह कविता के कला पक्ष पर उतना ध्यान देना ज़रूरी भी नहीं समझता क्योंकि कितनी ही बार वास्तविकता कवि से एक फौरी कार्रवाई की मांग करती है. ऐसे में यह कुछ लोगों को सपाटबयानी लग सकती है, पर है नहीं. प्रतापराव 'लोटा' में  पाखंड के सहारे कुछ लोगों के धनकुबेर बन जाने की प्रक्रिया पर न केवल टिप्पणी करते हैं बल्कि कुछ बृहत् सामाजिक संदर्भ भी प्रदान करते हैं. तांबे के खनन से लेकर लोटे की शक्ल अख्तियार करने तक का जो रूपक उन्होंने बांधा है, 'लोटाधीशों का रूपक', वह 'जो दिखता है' उससे ज़्यादा को अभिव्यक्त कर देने में सक्षम है.

धर्म कहां

वह बकरा जिसे सदाशयता दिखाते
काटा नहीं, बलि नहीं चढाई जिसकी
छोड़ दिया मंदिर के अहाते में
पंडित-पुजारी ने लगाते लंबा टीका.
वह दासी जिसकी शादी आदमी से नहीं
देव के साथ हुई, पत्थर के
देव से बांधा उसे तमाम पत्थरों ने
देवदासी देवदासी पुकारते उसे

बकरा और दासी के बीच धर्म कहां?
मैं ढूंढ रहा हूं
पुजारी के लगाए तिलक में
उस मंत्रोच्चार में
उन मंत्रों में जो
दासी को पत्थर से बांधते हुए
उच्चारे गए, उस धोती में
उस जनेऊ में, चोटी में
ढूंढ रहा हूं मैं
धर्म कहां !

लानत भेजता हूं मैं

लानत भेजता हूं मैं मज़म्मत करता हूं
तुम्हारी इस अंधी आस्था की
तुम्हारे इस पाखंड की
कि तीन-मुंहा बालक पैदा हुआ
मां की जान हलक में अटकी और
कुछ सूझ नहीं रहा था पिता को जब
तो तुमने त्रिपुंडधारी
कहा देखो तीन मुंह हैं
ब्रह्मा-विष्णु-महेश हों जैसे
चमत्कार है यह प्रभु चमत्कार
जचकी के बाद ही दाई ने कहा था
पर बजाय अस्पताल जाने के
डॉक्टर को दिखाने-मशविरा करने के
तुम चीखे
चमत्कार है चमत्कार
कितनी भीड़ उमड़ी फिर
कितनी लंबी होती गई लाइन
कितने नारियल हार फूल
कितना चढ़ावा
तुम्हारे चमत्कार-चमत्कार के
कान-फोडू शोर में
चल बसा बालक
और पीछे-पीछे मां भी
बाप पागल-सा बकता है
आंय-बांय-सांय
लगता नहीं चार
तुम्हारी खोपड़ी में
तुम्हारे ही खडाऊं से.

मैं लानत भेजता हूं मज़म्मत करता हूं
इस पाखंड की.

लोटा

वसीयत में तमाम बातों के अलावा
लोटे का भी है ज़िक्र कि
रहेगा वह देवालय में.
खंडन के लिए बरक़त वह
शरीर पर कपड़ों के अलावा
फ़क़त लोटा लेकर ही आए थे वे
हर बखत लोटा रहा साथ
और बरक़त रही धंधे में
एक माड़ी बनी पहले
फिर देखते-देखते
हो गए दसियों मकान
गाड़ी-घोड़े खेत-खलिहान भी
इधर बही खाता रंगता गया
उधार गिरवी छुड़ाते जान सांसत में
कितना टका ब्याज नहीं जानते
धर्मालु वह, धरम-करम में आगे
मंदिर-मस्जिद में फ़र्क़ नहीं
न ब्याज वसूलने में
शूल की तरह सदैव
बरक़रार मूल
सब लोटे की महिमा
यही लेकर आए थे.
एक के दस हुए और
दस के दस हज़ार
गिनती फिर कम पड़ गई
पर लोटा रहा केवल एक
तांबे का लोटा देवालय में रखा
खदान से किन मज़दूरों ने
निकाला होगा तांबा
अलग किया होगा किन्होंने दूसरे
धातुओं से
भट्टी की आग किन
मज़दूरों ने सही होगी
किस कसार ने तांबे को शक्ल दी लोटे की
उनके लिए बरकत नहीं साबित हुआ लोटा
इसे ही फला
लोटा जो धरा है देवालय में
इसकी किस्मत में भी देखो क्या बदा है
किसी की प्यास बुझाने के काम नहीं आया
उलटे सारे धतकरम पाखंड
पाप सारे मढे जा रहे हैं
इसके मत्थे !

3 comments:

  1. क्या क़िस्मत पाई लोटे ने !

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  2. hamare dharm, chamatkaoka kya kahane ..ham to jante hai keval jeena jeeneke liye lutana aur jo bhi ban pade vo sab karate hai ham..

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  3. bakra aur dasi ke vich dharm kahan hai ...?bahut hi sarthak viyangya hai .lekin dharm karm se jude logon ke swarth etne bade hain ki unhe vaicharik prkriya se koi sambadh hi nahi.prtap kadam ki kavitaa padhwane ke liye shroriya ji aapka aabhar.

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