Sunday, 29 January 2012

यह एक बयान है, गुस्से से भरा बयान

अभी तक सड़कें और
बड़े-बड़े बांध ही बने हुए थे
पर्याय विस्थापन के.
रिहाइशी इलाकों मे जगह-जगह
उग रहे बड़े-बड़े बहु-मंज़िला मॉल
नए-नए शामिल हुए हैं इस सूची में.

सत्ता और पूंजी की जुगलबंदी 
करती है यशोगान इनका 
विकास के चमचमाते कीर्ति-स्तंभों के रूप में.

रिहाइशी बस्तियों में
छीनी इन मॉलों ने सबसे पहले धूप
फिर डाला डाका हवा पर 
और इसके बाद लूटा घरों की "निजता" को
पिछले अठारह बरस से रह रहे थे जो 
अपने मन-पसंद छोटे-से घरों में
यकायक धकिया दिए गए पिछवाड़े 
कोर्ट-कचहरी कैसे आ सकते थे 
इनके साथ  वे तो रहे धूप और हवा तक
कब्ज़ा लेने वालों के साथ
भाड़ में जाएं क़ायदे-क़ानून 
क़ानून का राज सुनिश्चित करने वालों की बला से !  

एक सपना पूरा हुआ था जैसे 
अठारह बरस पहले 
एक मध्य-वित्त बस्ती में 
धूप-हवा से भरपूर ठिकाने पर
एक छोटा, पर अपना, घर 
पा जाने का.

बरसों इसी भरम में जीते रहने के बाद 
कि खुद का घर होना 
तो है "वैचारिक दोष" नैतिक 
अपराध भी क्योंकि
यह तो आता है 
निजी संपत्ति के दायरे में.
और निजी संपत्ति? वह तो 
देती है जन्म शोषण को दोहन को
भरम टूटा 
झटके से नहीं,
जो दिख रहा था उसे न समझ पाने के कारण
धीरे-धीरे. समझ का फेर था 
अपना ही,  जिन पर भरोसा था 
परचम उठाने का 
उनके तरीके इतने "महीन" भी नहीं थे
पर हमको ही दिखे नहीं.
और भरम के टूटने के बाद
मारे जब हाथ-पांव तो 
पाया एक आशियाना
निगल गया बेदर्दी से मॉल 
मुंह चिढाते हुए रखा 
जिसने ओ के प्लस अपना नाम.
कौन ओ के? मैं तो नहीं.
कौन प्लस? मैं तो हो ही 
नहीं सकता था "प्लस" जब 
कर दिया गया "माइनस". नया
आने वाला तो "प्लस", और इस इलाके का
"आदिवासी" रातों रात बन गया
"माइनस". कैसा है यह गणित?
वैसा तो नहीं कुछ भी 
जैसा पढ़ा था हमने 
न तो गणित और न भूगोल. 
इतिहास तो एकदम नहीं.

पूंजी का बल है जिनके पास 
क़ानून की धज्जियां
उड़ाने की अनुमति कैसे दे देती है सरकार
और कचहरी जो जब चाहे ले लेती है
संज्ञान कुछ दूसरे मुद्दों का 
कठघरे में खड़ा कर देती है
सरकार को जारी कर देती है 
गिरफ़्तारी के आदेश तुर्रम खां
अफ़सरों की. क्यों रहती है मौन
क्यों दिखती है लाचार इतनी 
पूंजी के बोरों के समक्ष? कि 
कुछ न करके साष्टांग करती दिखती है.
अपने ही नियमों को डालकर
रद्दी की टोकरी में 
जिनकी सेवा में हो जाती है 
तब्दीली भू-उपयोग में 
पार्क और अस्पताल दोनों 
हो जाते हैं ख़ारिज 
मॉल की सेवा में.

रिहाइशी को व्यापारिक में तब्दील 
कर देने के मायने कितने खतरनाक !
जीना चाहो यदि चैन से तो बेचो
अपने घर सौंप दो व्यापारियों को 
और नए सिरे से ढूंढो अपने सिर 
के लिए एक छत 
जैसे बहुत सरल हो कर पाना 
यह सब ! कितना फ़र्क़ हैं माफ़िया के 
सफ़ाई अभियानों और इस 
सरकारी हरक़त में  
सच कहो क्या ये दोनों जुड़वां 
कार्रवाई नहीं लगती हैं तुम्हें?
किसकी क़ीमत पर होंगे विकसित 
ये मॉल, और किसके भले के लिए 
क्या पूंजी के बोरों ने खरीद लिया है 
जिसे कहते हैं हम देश
अपना देश? किसके बूते पर 
बना-बढ़ा पूंजी का कारोबार
किसने बनाया किसान को मज़दूर
किसने दिखाया रास्ता किसान को 
आत्महत्या का  किसने 
बोलो किसने? किसने छीनी धूप और हवा 
इस बस्ती की हज़ारों ऐसी बस्तियों की?

मैं जो इस बस्ती का आदिवासी था 
कैसे बना पहला विस्थापित भी 
इस बस्ती का?

व्यक्ति से बनता है समाज 
चैन-छिना व्यक्ति बनाएगा कैसा
समाज? ये जो मोटे हैं और मुटाते जाएंगे 
कब तक? कब रिहाई होगी 
बंधक समाज की इन जोंकों से?
पूछता हूं फिर कि आखिर कब?


Friday, 27 January 2012

सरोकार, परिवर्तनकामी नौजवानों के

कल दो मित्र मिलने-चर्चा करने आए. दोनों, नौजवान. वर्तमान से असंतुष्ट, हमारे-जैसे बहुतों की तरह. पर फिर भी काफ़ी अलग. इस मायने में कि वे सिर्फ़ हालात के कारणों और उनके विश्लेषण से संतुष्ट नहीं. ऐसा नहीं कि वे इस काम को गैर-ज़रूरी मानते हों. क़तई नहीं. हां, वे इसे नाकाफ़ी मानते हैं. एक बड़े दार्शनिक पहले ही कह चुके हैं इस बात को, तो वे कोई मौलिकता का दावा करते हुए अपना आग्रह सामने नहीं रख रहे थे. वे महज़ अपने पक्ष को पूरी तरह रखने के लिहाज़ से इस बात को रेखांकित कर रहे थे. नौजवानों के मुंह से यह सुनना बहुत प्रीतिकर लगा कि ज़रूरत तो हालात को बदलने की है, ख़ासकर इसलिए भी कि आजकल इस बात पर नौजवानों का कोई ख़ास ज़ोर दिखाई नहीं पड़ता. इस आयु-समूह के लोग चीज़ों को बदलने के सपने तो देखते हैं पर उस "देखने" का ताल्लुक अधिकांशतः दूसरी किस्म के "सपनों" से होता है. सपने जिनका संबंध पूरे समाज से न होकर सिर्फ़ खुद की जीवनशैली के बेहतर बन जाने के साथ होता है : बेहतर जॉब, मोटा पैकेज, खुद का अधिक सुविधाओं से सुसज्जित घर, पढ़ी-लिखी अच्छा जॉब करती बीवी -- इनके इर्द-गिर्द घूमते हैं वे सपने. ज़्यादातर. सो इन नौजवानों से मिलना मुझे ताज़ा हवा के "मन-खुश-कर देने-वाले झोंके" की तरह लगा. यों तो नई पीढ़ी के और भी लोग आते रहते हैं, मेरे पास, पर उनका मक़सद अपने निजी हितों से इतर कुछ नहीं होता. 


इनमें से एक अनुवादक हैं, और दूसरे पत्रकार. अच्छा लगा जानकर कि इन दोनों ने पढ़-लिख खूब रखा है. सफल जीवन के लिहाज़ से चाहे नहीं, पर निस्संदेह बहुत कुछ ऐसा जो जीवन को सार्थक बना सकता है, उसे मायने-मतलब दे सकता है. अर्थपूर्ण बना सकता है. "अर्थपूर्ण" पैसे-धेले के अर्थ में नहीं, बल्कि बड़े-व्यापक अर्थों में.

बातचीत एकदम औपचारिक तरीक़े से शुरू हुई : "क्या लिख-पढ़ रहे हो" की तर्ज़ पर. पांच-सात वाक्यों के आदान-प्रदान के बाद अपनेआप ही चर्चा अनौपचारिक रूप अख्तियार करती चली गई. और यहीं से चर्चा में रस-संचार होने लगा. यह बड़ा शहर है, और यहां पढ़े-लिखे "ज्ञानी" लोगों की कोई कमी नहीं है. फिर भी बाहर से आकर बसने वाले को जो सबसे ज़्यादा हतोत्साहित करने वाली चीज़ यहां आते ही अखरने लगती है वह है "बौद्धिक ऊर्जा" का निपट अभाव. ऐसा नहीं कि लोग आपस में मिलते-जुलते नहीं, पर उस सबके चलते भी जो विशिष्टता (यदि उसे विशिष्टता कह सकते हों तो) यहां की साफ़ दिख जाती है, वह है एक तरह का "सतहीपन". दिलचस्पियों का, संवाद का, रिश्तों का भी - ऐसा कि पहली बार तो धोखा दे जाए, पर उसके बाद किसी तरह के भरम को असंभव बना दे जो. ये दोनों मित्र  दुनियाभर के कम्युनिस्ट आंदोलनों के इतिहास का सघन अध्ययन कर चुके हैं. समूह के भीतर अभी भी अध्ययन से अर्जित निष्कर्षों पर चर्चा करते रहते हैं. यह समूह-चर्चा वाला पक्ष मुझे गुज़रे ज़माने के उजले पक्षों की याद दिला जाता है, जब स्टडी सर्किल हुआ करते थे, जहां पढ़ने के साथ-साथ पढ़े हुए को औरों के साथ बांटने पर ज़ोर हुआ करता था. "पढ़े हुए" को कितना समझ लिया गया इसकी पहचान हो जाती थी, साथ ही इस बात की भी कि आप "पढ़े और समझे हुए" को कितना संप्रेषित कर पाते हैं औरों को. यह वो ज़माना था जब किताबें इतनी इफ़रात में उपलब्ध नहीं हुआ करती थीं. विडंबना देखिए जब किताबें जम के उपलब्ध होने लगीं तो "पढ़ना" एकदम निजी और एकांतिक क्रिया बनती चली गई. तो मुझे जानकर बहुत अच्छा लगा कि चाहे सिर्फ़ मुट्ठी भर लोग हों, पर हैं अभी भी जो पढ़कर, "पढ़े हुए" पर चर्चा को पढ़ने की क्रिया का ही एक अनुपूरक हिस्सा मानते हैं. यहां अचानक खयाल आया कि अरबी भाषा में एक शब्द है "मश्शाईन" जिसका अर्थ है विद्वानों का वह संप्रदाय जो एक दूसरे के पास जाकर पठन-पाठन में संलग्न होते थे, इसके बरखिलाफ़ "इशाक़ीन" थे जो निजी स्तर पर पठन-पाठन कर्म में संलग्न होते थे. कहना ना होगा कि "मश्शाईन" पठन-पाठन को एक अधिक अर्थपूर्ण सामूहिक क्रिया में तब्दील कर देते थे.

मुझे एक बात जो ख़ास लगी इन मित्रों में वह थी इनकी अति संवेदनशीलता और साथ ही इनकी सजग बौद्धिकता. बिना संवेदनशील हुए कोई भी उन प्रश्नों में सिर नहीं खपाता जो इन्हें मथ रहे हैं, और बिना सजग बौद्धिकता के कोई उस तरह तर्क नहीं कर पाता, जिस तरह ये कर रहे थे. पूरा ध्यान केंद्रित हो जैसे उन दरारों पर जहां से बात को आगे बढ़ाने के सूत्र पकड़े जा सकते हैं. इनका मक़सद सुनना भर नहीं था, सुनाना भी था और साथ भी यह आकलन करना भी कि इनकी जो समझ बनी है, पढ़कर और यहां-वहां जन संघर्षों से जुड़ कर वह कितने दूर तक इन्हें ले जा सकती है, सही रास्ते पर. बिना भटकाए. ज़ाहिर है, न तो रास्ता साफ़ है, न मंज़िल क़रीब, पर वो जज़्बा है जो झाड़-झंकाड़ को विचलन अथवा हताशा का सबब नहीं बनने देता. यह आश्वस्तिकारक है, बुरे वक़्त में, ख़ास तौर पर.

सफलता के पीछे भागने वालों की तुलना में ऐसे लोग यदि मुझे अधिक आकृष्ट करते हैं तो इसके पीछे कहीं यह तथ्य भी होगा ही कि ज़िंदगी के श्रेष्ठतम चालीस से अधिक वर्ष मैंने भी एक सपने के पीछे भागने में लगाए थे, विभिन्न पेशों से जुड़े अनेक लोगों को उस सपने को साझा सपना समझने के किए प्रेरित-शिक्षित-प्रशिक्षित करने का काम हाथ में लिया था. यह अलग बात है कि तेज़ी से बदलते समय, वैश्विक यथार्थ और साझे सपने को निजी सपने द्वारा विस्थापित कर दिए जाने के घटनाक्रम ने इन प्रयत्नों को तगड़ा झटका दिया. तात्कालिक विफलता आपके मार्ग-दिशा-चयन को ग़लत साबित नहीं कर देती, यह याद रखने और अपनी ज़िद पर क़ायम रहने की ज़रूरत भी बनी रहनी चाहिए. इन मित्रों से मिलकर लगा कि कहीं तो आग बची हुई है, राख की परतों के नीचे. यही ख़ास बात है.

फूल खिलते हैं, झर जाते हैं


यह कविता नहीं है. पिछले दिनों, अठारह घंटों के फ़ासले पर घटित दो घटनाओं पर एक नोट है. एक टिप्पणी है. लयात्मक टिप्पणी. जीवन के रंग-बिरंगे और धूसर बिंबों को साधती हुई टिप्पणी. मन के तल पर क्या कुछ गुज़र जाता है, एक-दूसरे की उलट स्थितियों में ! जीना इसी का नाम है ! जीना और एकरसता परस्पर-विरोधी लगते हैं जहां ! 


बहुत दिनों बाद आया कोई मित्र
खुशी जैसे फैल गई इंटरकॉम की घंटी से 
घर में हर तरफ़
हर कोने में .
भरा-भरा लगने लगता है घर
कोई आत्मीय आ जाए तो.

सूनापन पिघलने लगता है  
ज़रा सी गर्मास से पिघलने लगती है 
जैसे बर्फ़. और अचानक आ जाना
उसका जो प्रिय हो  
लगता है उतना ही सुखद जैसा
ग़मले में नई पत्ती का अंकुआना 
या एक कली का यकायक 
चटक उठना.

अभी कुछ दिन पहले एक साथ 
आना था कई मित्रों को 
पहले से तय था सब कुछ
रसोई हुलस कर अति सक्रिय हो गई
डाइनिंग टेबल प्रतीक्षातुर
बिना कुछ किए ही 
जैसे हर कोना जगमग था 
चमचम करता घर 
बुझ गया झटके से 
जब उन्होंने जताई असमर्थता 
आ पाने में. 
घर भी जैसे समझ जाता हो सब कुछ 
हमसे भी पहले
घर बेजान नहीं होता नहीं होता नासमझ भी.
घर और मकान में यही तो होता है फ़र्क़.

पर इस बार ऐसा नहीं हुआ.

अपनी बेटी से भी कम उम्र का 
यह मित्र आया, भींच लिया बांहों में.
बातें चलती रहीं दुनिया भर की
मेले की  मित्रों की  लिखने की 
पढ़ने की   कितनी ही बातें 
हुलसा मन 
खासकर इसलिए 
कि आया था मित्र वहां से
जिसे कहते हैं आभासी दुनिया 
सच कहूं कितनी ही बार 
असल से ज़्यादा असल लगती है
यह दुनिया  इतनी कि करता नहीं मन
मानने को इसे आभासी.
इतना अपनापन कहां 
मिलता है यहां  
न कोई चाहत   न कोई ईर्ष्या 
किताबों की सौगात लेकर आया मित्र 
सूफ़ियाना किताबों की 
लगता है कई बार 
ज़्यादा काम के हैं
सरमद शहीद, बुल्लेशाह 
और बाबा फ़रीद 

ज़ोर देते हैं जोड़ने पर
सिर्फ़ जोड़ने पर  सबकी एकता पर 
मज़हब इसके एकदम उलट 
तोड़ते ही तोड़ते हैं
फ़साद मचवाते हैं  
देखो इधर चाहे उधर या फिर 
किधर भी. सच कहूं भीग गया 
भीतर तक मन. 
जाना अच्छा नहीं लगा 
इतनी जल्दी मित्र का 
पर जाना था उसे कोई और 
मित्र गिन रहा था एक-एक मिनट 
उसके इंतज़ार में. बार-बार बजते
फ़ोन ने समझा दी अहमियत मित्र की
दूसरे मित्रों की नज़र में.

अगली सुबह वैसी ही थी जैसी
होती है हर सुबह 
काफ़ी देर तक रही वैसी ही
पर झटके से टूट गया
अहसास सुबह के आम होने का
फ़ोन पर. फ़ोन पर? जी हां, फ़ोन ने बताया
एक हादसे के बारे में जो घट गया था
परिवार में मेरे ही.

चला गया दुनिया को छोड़कर
मेरा चचेरा भाई
वह जिसे अभी खूब जीना चाहिए था 
बहुत कुछ करना था उसे अभी. और 
चल दिया इस तरह 
खोल कर मोह की तमाम गांठें
जैसे जाना नहीं चाहिए किसी को भी
दुश्मन को भी नहीं. दो साल पहले 
ऐसे ही चला गया था 
उससे जो था बड़ा 
सगा-सहोदर 
जनवरी का  ही महीना 
जैसे निर्धारित हो वज्राघातों के लिए 
हमारे परिवार पर. मैं रोता नहीं अब
पाकर मौत की खबर
पर बार-बार डोलता रहा चेहरा
बहू का, अभी-अभी ब्याही बेटी का 
अपने पांवों के नीचे तलाशते हुए ज़मीन 
उसके बेटे का
और सबसे ऊपर उसके पिता का
जिन्होंने दो साल के फ़ासले पर खो दिया था
अपना दूसरा और आखिरी बेटा.
चेहरे सबके गड्ड-मड्ड
किसी का सिर तो आंखें किसी की,
हाथ किसी और के 
सिर ढंका हुआ, झुका हुआ 
आंख टपकती हुई
हाथ आंसू पोंछता हुआ, और इनसे 
अलग एक चेहरा एकदम पथराया 
निर्विकार भावशून्य स्थितप्रज्ञ
यह चेहरा सब से उम्र-दराज़ चेहरा
ध्यान से देखें तो 
दिख जाएंगे कितने ही निशान इस 
चेहरे पर जो छोड़े हैं वक़्त की मार ने.

जाना ज़रूरी था, सो हम गए 
सबकी पीठ पर रखना था हाथ, हमने रखा
भरोसा दिलाना था अपने होने का
दिलाया वह भी, मौन और निश्शब्द
यूं भी संप्रेषित होते हैं भाव, हुए
यूं भी निकलते हैं अर्थ, निकले.
चेहरे सब के सब थे बिल्कुल वैसे 
जैसे डोले थे मेरी भीतर की आंखों के सामने
जब सुनी थी खबर वज्राघात की.

फिर जाना है एक बार 
अगले हफ़्ते ही, पर
लौट आने पर भी बंद नहीं हुआ है
चेहरों का घूमना. पता नहीं 
कब होगा या होगा भी कि नहीं
कब मिलेगी मुक्ति
मिलेगी भी या नहीं.

Thursday, 19 January 2012

आना न आना तोताराम का

जिस आवासीय सोसाइटी परिसर में मैं रहता हूं, वहां कबूतरों की संख्या, एक अनुमान के अनुसार, तीन हज़ार को पार कर गई है. दिलचस्प बात यह है कि, और कोई पक्षी दिखाई नहीं पड़ते. कभी-कभार किसी मुंडेर पर दो-तीन कव्वे दिख जाते हैं. बहुत संभव है कि किन्हीं परिवारों को उनके यहां आने वाले मेहमान-पावणों की पूर्व-सूचना देने आ जाते हों. पिछले साल गर्मियों में एक तोता न जाने कहां से भटकता हुआ आ गया. जिस तरह वह उड़ने की कोशिश करता, उससे लगता कि वह उड़ने की आदत और अभ्यास दोनों ही भूल चुका था. शायद किसी घर का पालतू 'मिट्ठू' था, जो जैसे-तैसे पिंजरे से बाहर आ गया था. छोटी-छोटी दूरियां उड़कर पार की होंगी उसने कि हमारे परिसर के बड़े पार्टी लॉन के बीचोबीच का घनेरा दरख़्त दिख गया होगा उसे. यह भी संभव है कि वह बाहर सटी हुई बस्ती के किसी मकान से ही निकल भागा हो, या भगा दिया गया हो. सो इस दरख़्त को अपना ठीया बना लेना ही मुनासिब समझा होगा उसने. पर एक संकट था उसके सामने, जैसा जल्दी ही मुझे समझ में आया. खाने-पीने का क्या करे? कैसे जुगाड़-बैठाए. लंबी उड़ान भर पाना उसके लिए संभव नहीं था. घरों के आस-पास आए तो कुत्ते-बिल्लियों का डर. यहां पालतू कुत्तों की संख्या है भी चकित करने वाली. आम तौर पर कुत्ता पालते हैं लोग, घर की चौकसी के लिए, सुरक्षा के लिए. और यहां तो सुरक्षा के इंतज़ाम एकदम चाक-चौबंद हैं, तो फिर यहां क्यों? पालतू बिल्ली एक ही फ्लैट में है.
एक दिन सवेरे मैं टेरेस में बैठा चाय पी रहा था कि अचानक मेरे दाहिनी तरफ़ रखी प्लेट में रखी बिस्कुट पर चोंच मारी उस तोते ने. जिस तेज़ी से उसने झपट्टा मारा, मैं थोडा हडबडा गया, कुर्सी से गिरा तो नहीं. तोता निधड़क भाव से बिस्कुट पर चोंच-प्रहार कर रहा था पर बिस्कुट टूट नहीं पा रही थी. मैंने हाथ बढाकर मदद करने की सोची, तो तोता फुदक कर मेरे कंधे पर आ बैठा. जीवन में पहली बार ऐसा हुआ कि कोई पक्षी कंधे पर आ बैठा, वरना इससे पहले तो पुराने घरों में घोंसला बना लेने वाली घरेलू चिड़ियों तक ने इस लायक़ नहीं समझा था मुझे. कोई और होता मेरी जगह, तो वह "शुभ/अशुभ" के चक्कर में भी पड़ गया होता. ऐसा क़यास है मेरा, निष्कर्ष नहीं, क्योंकि बहुधा लोग सिर या कंधे पर पक्षियों के आ बैठने की भाग्य-सूचक मीमांसा करने/करवाने लग जाते हैं. बहरहाल, मैंने बिस्कुट के छोटे-छोटे टुकड़े करके प्लेट को बाईं तरफ़ की रेलिंग के पास उतने ही ऊंचे प्लेटफ़ार्म पर रख दिया. तोताराम निश्शंक भाव से प्लेट में रखा भोजन, अधिकारपूर्वक, करके उड़ गया, और उसी दरख़्त पर जा बैठा. अगले दिन ठीक उसी समय पर वह फिर नमूदार हो गया. उसे आते देख, मैंने बिस्कुट के टुकड़े करके पहले दिन वाली जगह पर ही रख दिया प्लेट को. चैन से तोताराम अपना काम पूरा करके वापस हो लिए. आज कोई प्यार-मोहब्बत का इज़हार नहीं किया उसने. तीसरे दिन पहले से ही व्यवस्था कर दी गई. उसे भी समझ आ गया कि उसकी जगह कौनसी है. वह सीधा वहीं जा पहुंचता. मज़ा यह कि दिन में कभी भी वह तोता इधर नहीं आता. कभी स्विमिंग पूल की मुंडेर पर तो कभी बिजली के पोल पर मिनट-दो मिनट के लिए झलक दिखला जाता.
पर एक दिन क्या हुआ कि हम घर पर थे नहीं. तोताराम आए, और न केवल आए बल्कि हमें नदारद पाकर, बहुत उत्पात भी मचा गए. हमें तो पता ही न चलता, अगर टेरेस का नज़ारा वैसा नहीं मिलता, जैसा कि मिला. नज़ारा परेशान करने वाला था. एक बड़ा ग़मला तो नीचे गिरा पड़ा था, चकनाचूर. उसमें लगा पौधा असहाय-सा पड़ा था, उखड़ कर दूर जा गिरा था. और एक दूसरे ग़मले में जो सबसे सुंदर पौधा लगा हुआ था, उसखी छाल, जगह-जगह से नोची हुई थी. मैं सन्नाटे में था, अपने सबसे प्रिय पौधे की दुर्दशा देखकर. हमारे टेरेस के सामने तैनात सीक्योरिटी गार्ड ने बताया कि तोते ने किया था यह सब. उत्तेजना के क्षण में, मैंने मन ही मन फ़ैसला किया, अब तोताराम का आना बंद !
पर ऐसा हो कैसे सकता था! अगले दिन सवेरे तोताराम फिर अवतरित हो गए. मैंने लाख कोशिश की उसे उड़ाने की, पर वह इधर से उधर मंडराता ही रहा. जाकर ही न दे ! उसका भोजन उसी जगह लाकर रख दिया, तो चुपचाप खाकर उड़ गया, दरख़्त की ओर. मुझे लगा पहले दिन उसने जो भी किया, निस्संदेह घोर हताशा से पैदा हुए गुस्से के वशीभूत ही किया होगा. मुझे अपने गुस्से पर शर्म आने लगी. उस दिन से यह तय हो गया कि उसका खाना उसे सही समय पर वहां मिल ही जाना चाहिए, प्लेट न छोड़ें तो भी. कुछ समय बाद एक दिन फिर ऐसा हो गया कि हमें कहीं जाना पड़ा, अलस्सुबह, और हम उसका खाना रखना भूल गए. जब याद आया तो मन में चिंता हुई, कि आज लौटने पर फिर कहीं वैसा ही नज़ारा देखने को न मिले. तीसरे पहर लौटे तो सबसे पहले टेरेस का दरवाज़ा खोल कर देखा तो सब कुछ एक दम सामान्य पाया. गार्ड से पूछा कि सुबह तोते को देखा था क्या? उसने जो जानकारी दी, उसने मुझे तोताराम का मुरीद बना दिया: कि तोता आया था, काफ़ी देर तक मंडराता रहा, फिर खाना न देखकर जाली के दरवाजे पर देर तक चोंच मारता रहा. घर में कोई हलचल न होती देख, वह निराश मन से, पर बिना कोई नुक्सान किए वापस उड़ गया. मैं स्तब्ध था. इतनी जल्दी तो मनुष्य भी सबक़ नहीं लेता !
अभी कोई पंद्रह दिन पहले तक यह सिलसिला मुसलसल चलता रहा. तोता आता, खाना खाता, उड़कर चला जाता. लेकिन पिछले दिनों अचानक उसका दिखना, उसका आना बंद हो गया. कहीं और चला गया क्या? या फिर किसी बिल्ली के पेट में चला गया? तोताराम के न दिखने से दिन पहले की तरह शुरू होता नहीं लगता. जैसे कोई अपना बिना बताये कहीं चला गया हो. रूठ कर? शायद नहीं, क्योंकि पिछले दिनों तो कोई भूल भी नहीं हुई थी हमसे. तोताराम के इस तरह चले जाने से और कई सवाल सिर उठाने लगे. कि क्या हो गया है कि इतने बड़े परिसर में कहीं भी चिड़ियों के घोंसले तक नहीं दिखते?  छोटे-छोटे घरों तक में, आम तौर पर जहां बिजली के मीटर लगे होते  हैं, वहां चिड़ियों के  घोंसले ज़रूर मिल जाते हैं. यह बेशक आज तक समझ नहीं आया कि बिजली के मीटरों के पास चिडियां इतना सुरक्षित क्यों अनुभव करती हैं ! पर यहां ऐसा नहीं है. तोता प्रकरण की शुरुआत के समय से ही मुझे लगने लगा, सही या ग़लत नहीं जानता, कि पक्षी मनुष्य को अधिक मानवीय बनाते हैं. हमारे इर्द-गिर्द पक्षियों  भांति-भांति के पक्षियों - का न दिखना कहीं हमारे मनुष्य होने पर कोई टिप्पणी तो नहीं है? 

Monday, 16 January 2012

कोई ट्रॉफ़ी है क्या प्रेम जिसे ड्राइंग रूम में सजा कर रख दें...

प्रेम हो जाना या प्रेम में पड़ जाना स्वाभाविक है, फिर भी यह कोई सामान्य घटना नहीं है. रोज़मर्रा घटित हो सकने वाली घटना तो एक दम नहीं. लोग इसका कितना भी सामान्यीकरण क्यों न कर दें. यह कोई वस्तु नहीं है. यह कोई ट्राफ़ी भी नहीं है, जिसे अपने ड्राइंग रूम में सजा कर रख दें. यह न कोई बिल्ला है जिसे सीने पर टांगे फिरते रहें. न कोई बाज़ूबंद है जिसे बात करते वक़्त हाथ हिलाते-हिलाते दिखाते रहें.
हरेक की ज़िंदगी में ऐसा एक क्षण आता है जब उसे लगता है कि वह प्रेम में है. जिससे है प्रेम, उसे भी है या नहीं, यह अक्सर अनकहा रह जाता है. पूछा भी नहीं जा सकता. शालीनता की श्रेणी से बाहर माने जाते हैं इस तरह के सवाल. चलो, मान लेते हैं कि प्रेम में हैं. तो क़ायदे से यह दो व्यक्तियों के बीच की बात है - दो इकाइयों के  बीच की, जो पूरी तरह से स्वायत्त इकाइयां हैं या उन्हें ऐसा होना चाहिए. तीसरा तो 'बाहरी' ही रहता है इस प्रसंग में, वह कितना भी अंतरंग क्यों न हो आपके लिए ! 
प्रेम जीवन की चालक शक्ति बन सकता है. प्रेरणा का कारक बन जाता है. हिम्मत भी देता है, हौसला-अफ़ज़ाई भी करता है. बड़े मुश्किल काम कर गुज़रता है इंसान, यदि पीठ पर प्यार-भरा किसी का हाथ हो तो. कई मामलों में ऐसा पाया भी गया है. इसके उलट, एक दिखावे का नज़ारा भी देखने को मिलता है. किताबों, और इनसे भी अधिक विश्वविद्यालयी शोध-प्रबंधों,  के समर्पण/कृतज्ञता वाले पृष्ठ पर बहुत से लेखक इसका उल्लेख भी करते हैं. आपको कितनी बार ऐसे उल्लेख "यक़ीन-करने-जैसे" लगे? सच बताइए. कितनी ही बार क्यों लगता है ऐसा, कि यह सब "दुनिया-दिखावे"(public consumption) के लिए होता है? "उल्लेखक" और "उल्लेखित" दोनों इस बात को जानते हैं. जो एक-दूसरे को फाड़-खा जाने के लिए न केवल तत्पर रहते हैं प्रतिक्षण, बल्कि ऐसी कुख्याति भी अर्जित कर चुके होते हैं, वे भी इस तरह का प्रेम-प्रदर्शन करते पाए जाते हैं.
प्रेम परवान चढ़ने का पैमाना क्या होता है? विश्वसनीय पैमाना? क्या इसके फलीभूत होने के निशान देह तक सीमित होते हैं? यह कहना चाहेंगे क्या कि आत्मा को तो किसने देखा है? पर जब बात आत्मीयता की होती है, तो इसका संबंध दिल से होता है. दिल जो पूरे शरीर को शुद्ध खून पंप करता रहता है, और इस तरह ऊष्मा का संचार करता रहता है - ऊष्मा जो गर्मास देती है. गर्मास प्रेम का, और ठंडापन उदासीनता का प्रतीक/परिचायक माना जाता है. प्रेम/करुणा जगाने वाली बातों के बारे में कहा जाता है कि वे दिल को छू जाती हैं. कुछ दूसरी तरह की बातें ठेस पहुंचा जाती हैं, दिल को. ऐसी बातें प्रेम का विलोम होती हैं.
साहित्य में, और उससे भी ज़्यादा फ़िल्मों में, प्रेम एक अनिवार्य-सा तत्व बन गया है: सुनिश्चित सफलता का नुस्खा. जितना रूमानी, उतना ही लोकप्रियता का बीमा करने वाला भी. आज नब्बे फ़ीसद कविता प्रेम के इर्द-गिर्द घूमती है. अंग्रेज़ी-हिंदी समेत अनेक भाषाओं की श्रेष्ठ प्रेम कविताएं पढ़ पाने का सौभाग्य मुझे भी हासिल हुआ है, पर वह अलग किस्सा है.  प्रसिद्ध अंग्रेज़ी कवि जॉन डन (John Donne) की एक बेहद प्रसिद्ध प्रेम कविता है "Sunne Rising" (सूर्योदय के बाद). सूरज उगने के बाद कमरे की खिड़कियों के पर्दों को चीरती आती उसकी किरणों से' कविता का नायक, 'प्रेमी' खीझ उठता है, और सूरज को बुरा-भला कहता है, "प्रेम का दुश्मन" तक. वह सूरज को फटकारने के लहज़े में कहता है कि वह खेतों पर रौशनी बरसाए, जहां खेतिहर लोगों को उसकी ज़रूरत है, कारखानों  के परिसरों में भी अपना जलवा दिखाए. आशय यह कि सूरज वहां-वहां जाए जहां लोग मेहनत-मशक्कत करके जीवन-यापन की जुगत बठाने में लगे हैं. यहां आ कर 'प्रेम' में खलल डालने की क्या ज़रूरत है? इसे "कविता-प्रेमी पढ़े-लिखे समझदार लोग" अंग्रेज़ी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कविताओं में गिनते हैं. एक बड़ी प्रोफ़ेसर, "जॉन डन" पर व्याख्यान देने आईं, एम ए के विद्यार्थियों के समक्ष. यानि मेरे विभाग के विद्यार्थियों के समक्ष. कुल मिलाकर अच्छा व्याख्यान दिया. विद्यार्थियों ने उनके सामने अपने सवाल रखे, जिन्हें सुन कर उन्हें लगा कि वे उनके सवाल नहीं हो सकते थे, कि शायद उक्त कविता को पढाने वाले शिक्षक ने वे प्रश्न विद्यार्थियों को पहले से दे दिए हों. तो ज़ाहिर है, जवाब देने में वह थोड़ी अचकचाईं. मुझसे भी  उन्होंने आग्रह किया कि अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में, मैं भी अपनी राय दूं, कविता और व्याख्यान, दोनों पर. ज़ाहिर है, यह दायित्व तो मुझे वैसे भी निभाना ही था. मेरा कहना था कि शेक्सपीयर से "जॉन डन" तक के पूरे काल-खंड में (और तबसे लेकर बीसवीं शताब्दी के कविता संसार में), यह अकेली कविता है जो प्रेम को ठोस रूप में पूर्णकालिक कार्य-व्यापार के रूप में चित्रित करती है, और इसलिए यह प्रेम की सामाजिकता और निजता दोनों पर प्रश्न उठाए जाने का स्पेस प्रदान करने वाली कविता के रूप में भी सामने आती है. ज़ाहिर है, इसे पढते हुए अनंत में अश्मीभूत किसी क्षण (frozen moment) के बारे में तो सोचा तक नहीं जा सकता, क्योंकि कविता की बुनावट ही ऐसा करने की अनुमति नहीं देती. यह अविराम चलने वाला कार्य-व्यापार  नायक को एक "होल-टाइम लवर" की जिस छवि से मंडित करता है वह, इसके व्यावहारिक होने/ न होने की बात छोड़ भी दें तो, सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से 'वरेण्य' भी बन सकती है क्या? न कमाना-धमाना, न किसी सामाजिक दृष्टि से उत्पादक कार्य में संलग्न होना, और सूरज तक से खीझे रहना, खेती-बाड़ी करने वालों, कल-कारखानों में काम करने वालों के प्रति तिरस्कार का भाव रखना, और प्यार को शयन कक्ष तक के कार्य-व्यापार मात्र में तब्दील कर देना आदि प्रेम के किस पक्ष को रेखांकित करते हैं - इसे न केवल देखना, बल्कि इसे "प्रेम-संस्कृति" की कसौटी बनाए बिना इस कविता का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता. ज़ाहिर है, वह विदुषी पहले तो चौंकी यह सब सुनकर, फिर धीमे स्वर में कविता पर इस तरह से विचार करने को उचित एवं उपयोगी मानने की दिशा में दो क़दम आगे बढ़ती दिखाई दीं.
प्रेम "दिल को हथेली पर रख कर चलने" का पर्याय नहीं है. प्रेम रिश्तों की संश्लिष्टता में व्यक्त होने पर ही सहज लगता है, एक उत्प्रेरक का रूप भी धारण कर पाता है. अंदर से पूरी तरह 'रीते' लोग कृत्रिम रूप से स्वयं को 'रस-सिक्त' दिखाने के लिए भी 'प्रेम-प्रेम' खेलते हैं, कविता में. जीवन में भी. अनवरत और खुल कर. यह बिना 'अहसास' के चलने वाला खेल है, और इसीलिए पाठक को भिगो नहीं पाता. देर तक स्मृति में टिके रह पाने की क्षमता भी अन्तर्निहित नहीं होती इसमें. ध्यान देने योग्य बात है कि कई बार काल्पनिक प्रेम से अधिक असरकारी होती है वास्तविक बिछोह से उपजी रचना, क्योंकि किसी के 'होने' के मायने बेहतर समझ में आते हैं उसके 'न होने' की स्थिति में ही. क्या 'खो गया' है का आख्यान उस खोये हुए के महत्त्व को सजीव ढंग से 'मूर्तिमान' बना देता है. "सोज़े-मोहब्बत" का अपना जलवा होता है.
प्रेम का गुणगान हमारे पुरखा कवियों ने खूब-खूब किया है, सूक्तिपरक शैली में, पर वह 'निर्वैयक्तिक' है अपनी संरचना और चरित्र में, यह भी ध्यान रखने की बात है. इससे कुछ सीख लेने, और तदनुरूप अपनी समझ साफ़ करने की भी ज़रूरत है. विवेकशील व्यक्ति, समाज और साहित्य का भला भी है इसमें. 

Friday, 13 January 2012

तिरेसठ बरस पहले की बात है यह

बात चौंसठ साल पुरानी है
मां जब छोड़ गई उससे एक
साल पहले की.

मुझे अचरज होता है कि
कितनी पक्की है दर्ज़
मेरी स्मृति में. चार बरस से कम का मैं
और यह दृश्य शायद पिछले
इतने सारे सालों में रोज़ाना
जीया है मैंने. अतिशयोक्ति न समझें इसे
चौबीस घंटों में कभी भी
एक बार तो गुज़रता ही रहा है यह
मुसलसल बिला नागा.
और लगता है जैसे कल ही हुआ था.

वह ज़माना था जब ससुर से
बोल नहीं सकती थी बहुएं
फिर भी मां हाथ पकड़ कर
ले गईं मुझे अपने
काका ससुर के पास
मेरे दूसरे हाथ में थी चमचमाती पट्टी
जिस पर सुंदर से अक्षरों में
लिख दिया था मैंने
वह सब
जो मां ने बोला था.

पट्टी को घोटे से चमकाया था मां ने
नरसल की छोटी सी कलम भी छीली थी
उसने ही. स्याही की दवात में
कलम भी उसने ही डाल कर रखी थी.

वह जैसे बहुत जल्दी में थी
कोई पन्द्रह दिन के भीतर ही
संयुक्ताक्षर लिखने सिखा दिए थे
उसने मुझे
संयुक्ताक्षर उसकी ज़रूरत हों जैसे
सबसे बड़ी ज़रूरत.

पट्टी पर लिखा था उस दिन
जो कुछ भी मैंने
वह आज तक हर दिन
वैसा ही कौंधता रहा है : "मैं
मां को बहुत प्यार करता हूं
दुनिया में सब से ज़्यादा
मां ने बताये हैं अपने सपने
और मैं उन्हें पूरे करूंगा
जब मां नहीं रहेगी."

ज़ाहिर है इस सबका मतलब नहीं
समझा था मैं तब
जब मैं लिख रहा था यह सब.
एक-एक शब्द ज़ोर देकर धीरे-धीरे
बोला था मां ने. जी हां, ज़्यादा
और ज़ाहिर में नुक़ता
लगाना भी सिखाया था
मां ने ही.

सीढियां चढ़कर ऊपर पहुंचते ही
अपने काका ससुर के सामने
रख दी थी पट्टी.
वह कुछ समझ नहीं पाए.
हां, लिखे हुए को पढ़कर जैसे ही
उनका चेहरा ऊपर उठा
अपने खनखनाते दर्प भरे स्वर में
बोली मां, 'यह लिखा है मेरे बेटे ने.'

मेरे छोटे दादा अवाक्
हां, यह इसने लिखा है
इसने ही लिखा है यह सब
अपने छोटे-से हाथों से
बोलो यह मेरा सपना पूरा
करेगा या नहीं
मदद करोगे न आप ?
कहते ही इतना सब
धड-धड करती वह उतर गई सीढ़ी.

दादा ने खींच कर मुझे
सीने से लगा लिया
लगभग भींचते हुए
अपने आपसे बतियाते हुए जैसे

वह चकित थे कि दस
दिन की उनकी गैर हाज़िरी में
कैसे मैं छोटा-सा बच्चा
उतना सब लिख पाया
बार-बार यह पूछते रहे हों खुद से ही जैसे
यह क्या हो गया है लक्ष्मी को?
ऐसी आवाज़ तो अब तक सुनी नहीं
किसी ने और यह भाग कैसे गई
धड-धड करती. और यह
'जब मां नहीं रहेगी' का मतलब क्या?

मैं क्या समझ सकता था
और
समझा सकता था क्या
उन्हें जो
सुबह ही लौटे थे लाहौर से
और उस "लिखे" के मतलब
मैं भी कहां समझता था
समझ गया होता तो लिख कैसे पाता?

दादा की सरपरस्ती में
पढ़ने के क्या मतलब थे मैं
समझा नहीं सकता आपको
किसी को भी. बस मैं जानता हूं
और यह 'गूंगे-के-गुड' जैसा है.

मां दिन भर में सबसे ज़्यादा उत्साहित
होती थी उस समय
जब मैं कोई नई इबारत
लिख कर दिखा देता था
फुदक-फुदक कर चलती थी वह
और मैं इसका मतलब समझने के
लिहाज़ से बहुत छोटा था तब.

पर मुझे मां का इस तरह खुश रहना
बहुत अच्छा लगता था
और मैं हर दम यही चाहता
रहता कि मां ऐसे ही खुश रहे हर दम.
रही भी, जितने दिन बचे थे उसके
पर ज़्यादा कहां थे ये दिन ?

'मरने' का मतलब
मैं क़तई नहीं जानता था तब
तब भी नहीं जाना जब
सुबह-सवेरे घर में कोहराम मच गया
पूरी हवेली जैसे हिल गई हो
लाल चादर में ढंका कोई शरीर था
या शरीर-जैसा कुछ जिसे
कंधों पर उठाकर ले चले थे
घर के - मोहल्ले के लोग
सब तरफ़ से लोग आकर
चलने लगे साथ-साथ.
और ठट्ठ के ठट्ठ लोग जुड़ते गए
कहां जा रहे हैं ये सब?
और लाल चादर में क्या है?
ये कौतूहल का विषय था मेरे लिए.

मैं एक से दूसरी और तीसरी गोदी
में लिया जाता रहा
याद है अभी तक मैं निकल
भागना चाहता था क़ैद से

कैसी तो गर्मी थी और
कैसी तेज़ धूप
मेरे पैरों में जूते नहीं थे
इसीलिए शायद गोदी की क़ैद
में रखा जा रहा था मुझे.

तभी एक ततैये ने काट
लिया था मुझे गाल पर
आग सी लग गई थी पूरे
बदन में. और मैं चीख पड़ा ज़ोर से
सबने समझा मैं लाल चादर के
मायने समझ गया हूं शायद
और इसीलिए हो सकता है
दादा बोले तेरी मां को रामजी ने
बुला लिया है
मैं रामजी को नहीं जानता था
तुतलाते पूछा मैंने रामजी के बारे में
और लाल चादर के बारे में
जो बदलते कंधों पर
चल रही थी. किसको फ़ुर्सत थी
मेरे सवालों के जवाब देने की. या
शायद ज़रूरत भी नहीं थी. बच्चों के
सवाल वैसे भी खिझाते ही हैं
'बड़ों' को.

'चिता' कहां समझता था मैं?
पर जब लिटाया जा रहा था
लकड़ियों पर
लाल चादर को तो मैं चुपके से
दो लोगों की आड़ से देखकर
झलक पा गया अपनी मां के चेहरे की
सुर्ख लाल बिंदी
मोटी-सी बिंदी की
और बिना कुछ समझे हुए
रो पड़ा दहाड़ मार कर, ऐसे
जैसे फिर कभी नहीं रोया.
कोई भी गया, कभी नहीं.
वह दहाड़ मारकर रोना तो
आखिरी ही था. कोई एक काम
जो चार बरस की उम्र में ही
'आखिरी बार' हो गया !
चिता को अग्नि देने के लिए
हाथ लगवाया गया मेरा और
तुरत ही वहां से हटा भी
दिया गया मुझे.

मुझे याद नहीं कितनी देर तक
मेरी रोती हुई आँखों में
मेरी मां की सुर्ख लाल बिंदी तैरती रही.
सच मानें वह बिंदी मेरे बाल-मन पर
ऐसी अंकित हुई, कि अब भी मैं जब चाहूं
आंखें मूंदते ही उसे देख सकता हूं
उसी रंग और आकार में
जैसी दिपदिपाती थी मेरी मां के माथे पर
नज़र हटती भी नहीं थी,
और अब जब वैसी बिंदी किसी के
माथे पर दिख जाए तो
पहुंच जाता हूं आज से चौंसठ साल पहले
यादों की अंधेरी कोठरियां खुलने लगती हैं.

अंधेरी कोठरियों का भी अजब हाल है
खुलती हैं तो चीज़ें बेतरतीब
सामने आती हैं
हर बार अलग क्रम में.
मां का न रहना मेरे लिए
न जाने क्या-क्या खो जाने का
मिला-जुला रूप था. मेरे लिए
कुछ भी अब वैसा
ही नहीं रह गया था.
आप सोच सकते हैं कि
भरे-पूरे परिवार में भी
मां के जाते ही
एक छोटा-सा निरीह-सा बच्चा
'अनाथ' समझने लगे अपने आपको
बिना 'अनाथ' का मतलब समझे?

धरती जैसे कीली पर से उतर गई थी
चकराया-सा मैं जैसे एकदम गूंगा
हो गया था अदृश्य भी. किसी को
कोई परेशानी नहीं थी मेरे न दिखने से
गूंगे हो जाने से

हलवाई बैठा दिए गए थे मिठाइयां और
तरह-तरह के पकवान बन रहे थे
मां की 'शांति' के लिए
पर मुझे याद आता
मां को तो कभी पसंद नहीं थे
ये भांति-भांति के पकवान
और मैं समझ नहीं पाता इनका क्या रिश्ता
हो सकता था शांति से. 'शांति'
जो नाम था मेरी मां का इस घर में आने से पहले
यहां आकर वह 'शांति' से 'लक्ष्मी' बन गई
क्योंकि शांति यहां पहले से क़ायम थी
बुआ के रूप में. नाम बदल सकता था सिर्फ़ उसी का
जो ब्याहता होकर यहां आई थी पराये घर से.
जिस दिन वह चीत्कार मचा था
घर में उससे पहली रात ही
तो पता चला था
कि आया है घर में मेरा
छोटा-सा प्यारा-सा भैया
फिर खुसर-पुसर सुनाई दी कि
वह तो चला गया, और फिर
बहुत बाद में आया समझ में
कि जाते-जाते ले गया मेरी मां को भी.
यह तब की बात है जब लाल चादर का
'रहस्य' रहस्य नहीं रह गया था. तो
उस दिन से वह
'न-देखा' भैया मुझे दुश्मन लगने लगा.

और पिता?
वह तो जैसे अदृश्य हो गए
भूमिगत जैसे. वाद्य यंत्रों का संग
चुन लिया उन्होंने.
अरसे तक यह सिर्फ़ सुना मैंने
देखा नहीं.
बहुत बाद में समझ आया कि
क़ुरबानी की थी पिता ने
अपने सुखों की मेरे लिए
पर यह उदासीनता भी तो अंकित
हो ही चुकी थी बहुत गहरे मेरे मन पर,
और सच कहूं, तर्क-विवेक अपनी जगह
मैं कभी सहज नहीं हो पाया.
कितने ही कोड़े लगाए हों मैंने
बचपन से बनी ग्रंथि को, पर बात
वहीं जमी रही, और बावजूद तमाम खुलेपन के
बर्फ़ पिघल ही नहीं पाई.
वह जीवन भर स्वीकार न कर पाए
मां के चले जाने के अर्थों को और
मैं भुला नहीं पाया कभी भी
कि वह मौत सबसे ज़्यादा वंचित और शापित
बना गई थी मुझे ही.

'मां' कोई साधारण शब्द नहीं है
यह तो पूरा संसार है
कौन सिखाए
कौन हंसाए
कौन उंडेले दुनिया भर का प्यार
कौन बनाए रखे संतुलित
जीवन की पतवार?

मेरी दुखती रग को पहचाना
जब मैं बड़ा हो गया मेरे
मित्रों की मांओं ने
मेरे अपने घर की बड़ी स्त्रियों से
कहीं कहीं ज़्यादा. उनमें से कोई भी नहीं लगाती थी
वैसी सुर्ख लाल मोटी-सी बिंदी
पर शायद वे समझ पाईं
कि खोज रहा था
जो कुछ खो चुका था उसकी परछाई
वैसी तो न थीं पर ये परछाइयां
न मिली होतीं तो मैं मैं नहीं होता
वह नहीं होता जो सपने में देखा था मां ने.

फिर भी अनेक अवसरों पर
कसक रही कि मां होती
उपलब्धियों से खुश तो वह ही
हो सकती थी पुरस्कारों
सोने के मेडल में उसका सपना
ही तो दिख सकता था उसे
जिनसे भी साझा की मैंने
विषाद मिश्रित खुशी
हर बार मैं खोजने लगता
वह चमक चेहरे पर जो उस सुर्ख
लाल बिंदी वाले चेहरे पर होती.

किसी मां को नहीं मर जाना चाहिए इस तरह
जैसे मर गई थी मेरी मां
एक दिन अचानक
सुबह-सवेरे
मुझे इस क़दर अकेला छोड़ कर
अपने सपनों की भारी गठरी
मेरे सिर पर छोड़ कर.
यह कोई तरीक़ा नहीं है प्यार
जताने का और जो प्रिय है उसका
जीना दुश्वार बना देने का !!!

Tuesday, 10 January 2012

रचना और समीक्षा से जुड़े चंद सवाल

यह देखने पर "ज़ोर" कम क्यों हो गया है, इन दिनों, कि कहानी में कितना "कहानीपन" बचा है? और कविता में कितनी "कविताई"? और इन दोनों में बोलना हमारे समय का? कहीं यह उत्तर-आधुनिकता का असर/लक्षण ही तो नहीं कि कविता-कहानी में मूल अंतर्वस्तु के सिवाय बहुत कुछ दिख जाता है? कि समय शिल्प में बोलता है या कथ्य में? कि शिल्प यदि अलग से बोलता है रचना में, तो वह रचना की ताक़त हो सकता है क्या? अक्सर बिंबों की प्रभावशीलता की भी दुहाई दी जाती है बिना इस बात का उल्लेख किए कि बिंब कविता की अंतर्वस्तु से निर्धारित होते हैं अथवा बिंबों की कोई स्वायत्त इयत्ता भी होती है. रूपक जीवन को प्रतिबिंबित करते हैं या स्वयं में इतने शक्तिशाली होते हैं कि कविता का आधार बन जाते हैं.
सवाल पुराने हैं. पर पुराने सवाल भी दोहराए ही जाने चाहिए, यदि वे आज भी प्रासंगिक हैं तो. ख़ासकर इसलिए कि उनके जो जवाब हमें विरासत में मिले, और जिन पर व्यापक सहमति भी बन चुकी थी, यदि आज भी विवादास्पद या गैर-ज़रूरी माने जाते हैं. चाहे एक ज़िद के तहत ही. सवाल जुड़ा है किसी भी रचनात्मक कर्म की प्रयोजनशीलता से. रचना क्यों की जाती है? क्या सिर्फ़ करने के लिए? या उसके माध्यम से हम कुछ हासिल करना चाहते हैं? कुछ मामलों में, अपने लिए. कुछ दूसरे मामलों में औरों के लिए, और तीसरी तरह के मामलों में अपने साथ-साथ औरों के लिए भी. यह सवाल आज फिर से उठाने का संदर्भ तो यह है कि कविता के सामाजिक प्रयोजन को रेखांकित करने की गरज़ से की गई एक टिप्पणी (जो एक लेख का हिस्सा थी) पर एक पत्रकार-कवि ने यह प्रति-टिप्पणी की :
"प्रेम कविताओं के सामाजिक साहित्यिक प्रयोजनों को समझने की ज़रूरत क्या है? किसी भी कविता के सामाजिक साहित्यिक प्रयोजन को समझने की ज़रूरत क्यों है? अगर है, तो भी ये कवि का काम नहीं है| ये काम उनका है जिन्हें ये लगता है कि ऐसी अप्रयोजनशील कविताओं से उनकी अपनी रचनाओं की पठनीयता पर असर पड़ रहा है| जहाँ तक कवि, कविता और समाज पर असर का सवाल है देश के कोने-कोने में अनाम कवियों की प्रेम रचनाएं पीढ़ियों से जिस ढंग से समाज के अलग-अलग तबकों में गाई और सुनाई जा रही हैं...."
दरअसल यह टिप्पणी साहित्य के बुनियादी सरोकारों के प्रति एक अराजक दृष्टि की ही परिचायक है. कोई भी रचना, चाहे वह पूरी तरह से "आत्माभिव्यक्ति" क्यों न हो, अपने मूल में उसके प्रयोजन को समाए होती है. रचना के "क्यों" पक्ष का उत्तर इसमें निहित होता है. कविता लिख रहे हैं क्योंकि लिखनी है, प्रेम कर रहे हैं क्योंकि कुछ करना है. क्या यह सब शब्दों का खेल भर है? साहित्य शब्दों से बनता है, इस तथ्य को कोई भी जानता है, यानि कौन नहीं जानता? पर क्या सिर्फ़ शब्दों से? शब्दों का अर्थपूर्ण संयोजन रचनाकार के "स्वत्व" का प्रतिनिधित्व करता है या उसके परे जा कर किसी बड़ी सामाजिक सच्चाई का भी? एक वाक्य में रखूँ इस बात को, तो रचना का कार्यभार (प्रकार्य-function) क्या होता है?
ये प्रश्न मुझे बार-बार इसलिए मथते हैं कि इन दिनों कविता के संसार में ज़बर्दस्त सक्रियता दिखाई पड़ती है और उसी अनुपात में कविता-बाहुल्य से खीजे हुए टिप्पणीकारों की संख्या भी बढ़ती दिखाई देती है. कुछ लोग, इस परिघटना के परिणामस्वरूप इतने उग्र और परेशान दिखते हैं कि कविता उन्हें न केवल स्वयं उनके लिए बल्कि अन्य लोगों के लिए भी संकट दिखाई देती है. वैसे, इस सोच और निष्कर्ष वाले मित्रों की भी यह जिम्मेदारी तो बनती ही है कि वे स्पष्ट रूप से रेखांकित करें कि कौनसी कविता उनके व अन्य लोगों के लिए संकट बन गई हैं. यह इसलिए भी ज़रूरी है कि कविताएं रची जाती ही रहेंगी पर रचनाकारों को लोकमत की जानकारी तक न होगी. हम यदि कविता के पक्ष में खड़े हैं तो यह हमारा दायित्व बनता है कि कवि तक न केवल अपनी शिकायतें पहुंचाएं बल्कि उसे अपनी अपेक्षाओं से परिचित कराते हुए उसके कार्यभारों का स्मरण भी दिलाएं.

प्रतापराव कदम की तीन कविताएं

प्रतापराव कदम काफ़ी लंबे अरसे से कविताएं लिख रहे हैं, और कवि के रूप में उनकी पहचान भी बनी हुई है. उनकी कविता की खासियत है सहज संप्रेषणीयता. वह अपने आस-पास से कविता के विषय चुनते हैं और सरल भाषा में, अक्सर व्यंग्य का सहारा लेते हुए, अपनी बात सादगी से कह जाते हैं. समाज में व्याप्त तरह-तरह की कुरीतियों पर भी वह नज़र डालते हैं और तमाम तरह के पाखंड और नैतिक दृष्टि से भ्रष्ट आचरण को निशाना बनाते हैं. 'धर्म कहां' और 'लानत भेजता हूं मैं' में इसे साफ़ तौर पर देखा जा सकता है. कवि को जब यह लगे कि कुछ चीज़ें बदलनी ही चाहिए तो वह कविता के कला पक्ष पर उतना ध्यान देना ज़रूरी भी नहीं समझता क्योंकि कितनी ही बार वास्तविकता कवि से एक फौरी कार्रवाई की मांग करती है. ऐसे में यह कुछ लोगों को सपाटबयानी लग सकती है, पर है नहीं. प्रतापराव 'लोटा' में  पाखंड के सहारे कुछ लोगों के धनकुबेर बन जाने की प्रक्रिया पर न केवल टिप्पणी करते हैं बल्कि कुछ बृहत् सामाजिक संदर्भ भी प्रदान करते हैं. तांबे के खनन से लेकर लोटे की शक्ल अख्तियार करने तक का जो रूपक उन्होंने बांधा है, 'लोटाधीशों का रूपक', वह 'जो दिखता है' उससे ज़्यादा को अभिव्यक्त कर देने में सक्षम है.

धर्म कहां

वह बकरा जिसे सदाशयता दिखाते
काटा नहीं, बलि नहीं चढाई जिसकी
छोड़ दिया मंदिर के अहाते में
पंडित-पुजारी ने लगाते लंबा टीका.
वह दासी जिसकी शादी आदमी से नहीं
देव के साथ हुई, पत्थर के
देव से बांधा उसे तमाम पत्थरों ने
देवदासी देवदासी पुकारते उसे

बकरा और दासी के बीच धर्म कहां?
मैं ढूंढ रहा हूं
पुजारी के लगाए तिलक में
उस मंत्रोच्चार में
उन मंत्रों में जो
दासी को पत्थर से बांधते हुए
उच्चारे गए, उस धोती में
उस जनेऊ में, चोटी में
ढूंढ रहा हूं मैं
धर्म कहां !

लानत भेजता हूं मैं

लानत भेजता हूं मैं मज़म्मत करता हूं
तुम्हारी इस अंधी आस्था की
तुम्हारे इस पाखंड की
कि तीन-मुंहा बालक पैदा हुआ
मां की जान हलक में अटकी और
कुछ सूझ नहीं रहा था पिता को जब
तो तुमने त्रिपुंडधारी
कहा देखो तीन मुंह हैं
ब्रह्मा-विष्णु-महेश हों जैसे
चमत्कार है यह प्रभु चमत्कार
जचकी के बाद ही दाई ने कहा था
पर बजाय अस्पताल जाने के
डॉक्टर को दिखाने-मशविरा करने के
तुम चीखे
चमत्कार है चमत्कार
कितनी भीड़ उमड़ी फिर
कितनी लंबी होती गई लाइन
कितने नारियल हार फूल
कितना चढ़ावा
तुम्हारे चमत्कार-चमत्कार के
कान-फोडू शोर में
चल बसा बालक
और पीछे-पीछे मां भी
बाप पागल-सा बकता है
आंय-बांय-सांय
लगता नहीं चार
तुम्हारी खोपड़ी में
तुम्हारे ही खडाऊं से.

मैं लानत भेजता हूं मज़म्मत करता हूं
इस पाखंड की.

लोटा

वसीयत में तमाम बातों के अलावा
लोटे का भी है ज़िक्र कि
रहेगा वह देवालय में.
खंडन के लिए बरक़त वह
शरीर पर कपड़ों के अलावा
फ़क़त लोटा लेकर ही आए थे वे
हर बखत लोटा रहा साथ
और बरक़त रही धंधे में
एक माड़ी बनी पहले
फिर देखते-देखते
हो गए दसियों मकान
गाड़ी-घोड़े खेत-खलिहान भी
इधर बही खाता रंगता गया
उधार गिरवी छुड़ाते जान सांसत में
कितना टका ब्याज नहीं जानते
धर्मालु वह, धरम-करम में आगे
मंदिर-मस्जिद में फ़र्क़ नहीं
न ब्याज वसूलने में
शूल की तरह सदैव
बरक़रार मूल
सब लोटे की महिमा
यही लेकर आए थे.
एक के दस हुए और
दस के दस हज़ार
गिनती फिर कम पड़ गई
पर लोटा रहा केवल एक
तांबे का लोटा देवालय में रखा
खदान से किन मज़दूरों ने
निकाला होगा तांबा
अलग किया होगा किन्होंने दूसरे
धातुओं से
भट्टी की आग किन
मज़दूरों ने सही होगी
किस कसार ने तांबे को शक्ल दी लोटे की
उनके लिए बरकत नहीं साबित हुआ लोटा
इसे ही फला
लोटा जो धरा है देवालय में
इसकी किस्मत में भी देखो क्या बदा है
किसी की प्यास बुझाने के काम नहीं आया
उलटे सारे धतकरम पाखंड
पाप सारे मढे जा रहे हैं
इसके मत्थे !

Tuesday, 3 January 2012

प्रेम के खिलाफ न समझा जाय यह बयान


प्रेम पर विश्व साहित्य में श्रेष्ठ कविताओं का बड़ा भंडार मिलता है. वहां अधिकांश कविताओं में तो 'प्रेम' शब्द का उल्लेख तक नहीं है. इसका एक कारण यह भी है कि प्रेम का संबंध मात्र स्त्री की 'देह' से नहीं होता. शेक्सपीयर में तो प्रेम पर सर्वाधिक उद्धृत पंक्तियां उपलब्ध हैं. दिलचस्प बात यह है कि वहां प्रेम तमाम सामाजिक संदर्भों के बीच अवस्थित होता है. हिंदी में भी बेहद अच्छी प्रेम कविताओं का अकाल नहीं है. पिछले दिनों, स्त्री-पुरुष कवियों की जटिल सामाजिक वास्तविकता के विश्लेषण के बीचोबीच प्रेम को रख देने वाली कुछ अच्छी कविताएं पढ़ने को मिली थीं जिनका उल्लेख मैं उपयुक्त संदर्भ में पहले भी कर चुका हूं. प्रेम के सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व को पूरी तरह स्वीकार हुए भी इन दिनों आ रही बहुत सी प्रेम कविताओं के पीछे निहित सामाजिक-साहित्यिक प्रयोजन को समझ पाने में खुद को असमर्थ पाता हूं, कदाचित इसलिए कि इन सर्वनामी कविताओं में संज्ञाहीनता बहुत अटपटी लगती है और कवि, कविता या समाज किसी का कोई ख़ास भला करती नहीं दिखती. नए साल के शुरू में, पहले ब्लॉग पोस्ट में ही, यह टिप्पणी नकारात्मक न मानी जाए, यह मेरी अपेक्षा है क्योंकि शिकायतभरी लगने के बावजूद मित्रों के प्रति सद्भाव की वाहक होने के कारण इसका उद्देश्य एकदम सकारात्मक है. 

अटपटा नही  स्वाभाविक 
लगता है 
कई दफ़ा      यह 
देखना कि सब तरफ़ कविताओं में  
बह रही है 'प्रेम की गंगा'  
फक्काटे से. पहाड़ से गिरती है 
जैसे शोर मचाती हुई 
मस्ती में. खींचती 
सबका ध्यान अपनी ओर. 

पर रोज़-रोज़ 
सुबह दोपहर शाम 
बिला नागा अलग-अलग 
दृश्यों को उकेरती स्त्रियां
प्रेम की आदिम चाह को 
नए "बिछ-जाते-अंदाज़" में  
खुद को कहती हुई  
'धरती' 
तृषित  सूखी    और फिर सिंचित 
होती हुई.

धरती का रूपक 
खतरों से भरा है
निकलती हैं कितनी ही 
लोकोक्तियां इससे, कोई मेल 
नहीं आज की 
अस्मिता-सजग स्त्री से जिनका. 
 
युवा जो क़ायदे से 
उतने युवा भी नहीं रह गए 
अपनी रचनात्मक ऊर्जा 
को कितने ही रंगों में डुबोकर 
फैला रहे हैं
रंगरेज़ जैसे फैला देते हैं 
रंगी हुई चुनरियों-साड़ियों को 

पर वे तो मन रखते हैं
दूसरों का   और जुगाड़ बैठाते हैं  
जी पाने का   पत्नी और बच्चों
की बुनियादी ज़रूरतें
पूरी कर पाने का 
और इस तरह 'बिना कहे 
प्यार जताने का'
फिर भी मुश्किल तो होती है
बहुत मुश्किल होती है, सच
इस बेलगाम मंहगाई के दौर में.

शब्दों के जादूगर 
धूप को देखकर 
कैसी भी खिली न खिली 
सरसों को देखकर
बादल हों घटाएं छा रही हों
या फिर 
टिमटिमा रहे हों तारे
उगने या छिपने वाला हो सूरज
गरज़ यह कि 
देख लें कुछ भी
या न भी देखें 
'तुम' से शुरू करते हैं
संवाद 
जो हर बार बदल जाता है
प्रेम के आख्यान में.

नया होता है जो 
शब्द-संयोजन में
लगता है धारावाहिक की अगली कड़ी 
अपनी सनातन
अंतर्वस्तु में.

कुछ भी जोड़ा जा सकता है
धारावाहिक में जैसे
फ़रमाइश तक पर 
दर्शकों की
अंतहीन चल सकता है
सिलसिला जिसका 
महाभारत से भी लंबा 
क्योंकि कुछ होता ही नहीं
कथा के नाम पर. 

वैसा ही लगता है
इन दिनों पढकर 
प्रेम कविताएं 
सर्जक का दृष्टि-वैशिष्ट्य तक नहीं
झलकता  जिनमें 
उम्मीद करना भाव के 
छलकने की तो  कही जाएगी
मासूमी 
या मूर्खता हद दर्ज़े की
चांद को चाहने  से भी बड़ी.

कई 'कलाकार' कवि तो 
बन गए हैं
इतने सिद्ध 
कि दस से कम पंक्तियों में
बुन लेते हैं ऐसा तिलिस्म 
प्रेम का 
कि खुद ही मोहाविष्ट हो 
महाकाव्य-जैसा 
आख्यान रच देने का 
वहम न केवल पाल लेते हैं
औरों से कहला भी लेते हैं

कि वे आश्वस्त हैं ऐसा
बस हुआ चाहता है
घटित हो सकता है कभी भी 

सिर्फ़ सर्वनामों के सहारे
मनुष्य की अनुपस्थित क्रियाशीलता
के चलते भी, "वाह वाह" की
सुपरिचित स्वर लहरियां 
आप्लावित कर लेती हैं
गहरे डुबो देती हैं 
चेतना-विवेक को 
पाठक के.   इतना कि 
संज्ञा-शून्य  हतप्रभ खुद की
समझ पर करने लगता है 
संदेह कि बात तो
गहरी ही होगी    बस पल्ले
उसके ही   नहीं पड़ती.

कवि उम्र से बड़े भी हो जाएंगे
तो भी 
ये नुस्खे
'हल्द लगे न फिटकरी' 
के मूर्तिमान नुस्खे फिर
फिर ललचाएंगे उन्हें
'कभी न हुए प्रेम' को 
फिर से जी लेने के लिए 
कविता में

क्योंकि इतनी सहजता से यह 
संभव है यहीं
कविता में ही. 

कहीं नहीं दिखते 
स्त्री-पुरुष
बतियाते बेटी की पढ़ाई
बेटे को नौकरी न मिल पाने से पैदा
उसकी झुंझलाहट और खीझ
के बारे में. आस-पड़ोस के 
दुःख-तकलीफ़ से
विचलित होना तो हो गई 
गुज़रे ज़माने की बात. खुद के 
कष्ट ही मुस्कराने तक 
की नहीं देते हैं छूट.

स्त्री-पुरुष के बीच 
रोज़मर्रा के शिकवे-शिकायत में
आगत-अनागत की चर्चा में 
कभी खीझने 
और फिर कभी भाग्य को कोसते हुए
रूठने-मनाने में 
प्रेम निहित नहीं होता क्या
तनिक भी?

इतना इकहरा कब से 
हो गया प्रेम जो 
होता था उजागर
खट्टे-मीठे
चिरपरे-कसैले 
और न जाने
कितने अलग-अलग 
स्वादों में. न कहा जाने पर भी 
शक नहीं होता था 
जिसके होने पर.

क्या प्रेम कभी नहीं होता 
संप्रेषित मौन में? किसी 
दार्शनिक ने ही तो कहा था न?
 
"गहनतम प्रेम होता है
निश्शब्द
निहित होते हैं शब्दों में 
बीज विमतियों के !"