Wednesday 14 December 2011

पराजित मन को किसी शत्रु की जरूरत नहीं होती


जितने हारे हैं
उससे ज़्यादा    कहीं ज़्यादा    टूटे हैं 
सही और ग़लत का भेद 
सहज ही कर लिया करते थे जिसे
बन गया है आज वह सिर दर्द
कोई दवा काम नहीं करती
आंखों के आगे धुंधलका सा
छाया रहता है
हर समय. 

बीस बरस हुए 
समाज को बदलने का
नारा तक
गायब है, 
और बदलने का यह
काम अब दिखता नहीं है 
कार्यसूची पर.

संख्या बल घटा है
बेशक 
पर सदनों में ही 
राज्य हों या केंद्र  
फिर वह संख्या बल 
कहां चला गया
जो पीछे खड़ा रहता था?
उसमें दो फ़ी सद से ज़्यादा 
तो नहीं ही हुई 
गिरावट
कुल मिला कर.
पर तुम्हें देख लगता है 
जैसे सब कुछ गंवा बैठे हो 
क्यों नहीं फूंकी जा सकती जान
उस बल में?
वह बल इतना 'निर्बल'
तो नहीं ही हो गया 
रातों रात 
यह निश्चित है. फिर बदला
क्या? यही कि 
ऊपर बैठे  इशारतन
हुकुम चलने वालों का 
मन टूट गया.
कुछ तो जोश पैदा करो 
रौशनी की जरूरत अभी है    अभी
क्योंकि अँधेरा गहरा है.
सघन हो जब
अंधकार तभी एकजुट करना 
शुरू कर देना चाहिए अपनी 
छिन्न-भिन्न शक्तियों को
काफ़ी होती है एक छोटी सी चिंगारी ही
उजास फैलाने के लिए
ऊष्मा के संचार के लिए
ऊष्मा जो ज़रूरी है
जकड़ी मांस पेशियों को खोलने के लिए.
'सियापा' करते रहना कहीं नहीं
पहुंचा सकता. 

वॉल स्ट्रीट, यूरोप और 
रूस के ताज़ा घटनाक्रम 
कुछ भी नहीं कहते क्या?
क्या अब भी नहीं लगता कि 
अपनी जैसी तमाम ताक़तों को 
फिर से एकजुट करने की
ज़रूरत है पहले कभी से 
बहुत ज़्यादा.

पराजित मन लेकर
कितना दूर जा सकते हो साथी !
पराजित मन को किसी शत्रु की
ज़रूरत नहीं होती.
वह खुद ही काफ़ी है
डूबने-डुबोने को. 

11 comments:

  1. कविता पढ गया...

    कविता से अधिक यह एक संबंद्ध साथी का क्रुद्ध दुःख है जिसे कम से कम इस समय मैं अपने भीतर बखूबी महसूस कर सकता हूँ...

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  2. पराजित मन लेकर
    कितना दूर जा सकते हो साथी !
    पराजित मन को किसी शत्रु की
    ज़रूरत नहीं होती.
    वह खुद ही काफ़ी है
    डूबने-डुबोने को. सचमुच प्रतिबद्द मन की पीडा की है यह!

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  3. कुछ तो जोश पैदा करो
    रौशनी की जरूरत अभी है अभी
    क्योंकि अँधेरा गहरा है.
    सघन हो जब
    अंधकार तभी एकजुट करना
    शुरू कर देना चाहिए अपनी
    छिन्न-भिन्न शक्तियों को
    काफ़ी होती है एक छोटी सी चिंगारी ही
    उजास फैलाने के लिए
    ऊष्मा के संचार के लिए.............सर इस कविता को पढ़ा तो एक पल को हताशा हुई जो वर्तमान परिस्थितियों में उपजना स्वाभाविक है, किन्तु पूरी कविता मन में अद्भुत शक्ति का संचार करती है, बल्कि आवाहन करती हैं युवा शक्ति का, की अब समय आ गया है कि हम एकजुट होकर संकल्प ले कि हम हालात को बदल देंगे, मन को पराजित नहीं होने देंगे, ठीक ही लिखा आपने कि पराजित मन को किसी शत्रु की जरूरत नहीं होती......

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  4. कवि आवाज लगाते रहना, समय कठिन है गाते रहना ..बहुत बेचैन फ़िक्र, कुछ तो हो आखिर ..वाकई पराजित मन को किसी शत्रु की जरूरत नही होती ..

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  5. पराजित मन लेकर
    कितना दूर जा सकते हो साथी !
    पराजित मन को किसी शत्रु की
    ज़रूरत नहीं होती.
    वह खुद ही काफ़ी है
    डूबने-डुबोने को. ...बहुत सही कहा .. और दुखद ..सादर

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  6. • bahut khoob ......nirash-hatas man ko mukt karati huyi kavita hai.....aatm mulyankar karate huye aage badane ke liye prerit karati hai. yah bilkul sahi hai sab kuchh samamt nahni ho chuka hai balki bahut aisa bacha hai jo sangharsh ki takat deta hai-अपनी जैसी तमाम ताक़तों को
    फिर से एकजुट करने की
    ज़रूरत है पहले कभी से
    बहुत ज़्यादा.......
    क्यों नहीं फूंकी जा सकती जान
    उस बल में?
    वह बल इतना 'निर्बल'
    तो नहीं ही हो गया
    रातों रात ......ek pratibaddha kavi ka janta ki sakti se kabhi viswash nahni tootata hai. yahi vishwas hai jo behatar duniya ke nirman ko sambhaw karati hai.kavita is vishwas ko banaye rakhane main safal hai.काफ़ी होती है एक छोटी सी चिंगारी ही उजास फैलाने के लिए....yah pankti man ko ujas se bhar deti hai .yahi is kavita ki sarthakata hai.

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  7. कविता हमारे समय की उदास- हतास स्थिति जैसी ही शुरू होती है और उस ऊँचाई तक पहुचती है जहा आजकल कोई जाना नहीं चाहता | बल्कि यह कहे कि कोई जाने के बारे में सोचता ही नहीं , फिर अंत में वह उस चेतावनी के साथ समाप्त होती है जिसने हमारे कंधो को इतना झुका दिया है....यह बेहद दुखदायी है कि हमारे सपने इस तरह दम तोड़ दे, जबकि उनके साकार होने की सारी परिस्थितिया मौजूद है...कविता पसंद आयी..

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  8. एक झंझोड़ती ,जगाती ,पुकारती हुई कविता ! न जाने किस बात की प्रतीक्षा है इन्हें ! संसदीय लोक तंत्र का इतना बुरा चस्का कि सडकों पर निकलना ही भूल गए !

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  9. कुछ तो जोश पैदा करो
    रौशनी की जरूरत है अभी
    क्यों नहीं फूंकी जा सकती जान
    ,उस बल में
    वह बल इतना निर्बल तो नहीं हो सकता
    काफी होती है एक चिंगारी ही
    उज्जास फ़ैलाने के लिए
    " सियापा" करते रहना कहीं नहीं पहुंचा सकता
    वाह मोहन भाई ...क्या लिखा है ,आपके मन के अंदर अराजकता के खिलाफ सुलगती आग, आपकी कविता में लावा बनकर फूट रही है,और यह जो गुहार आप ने लगाई है न " कुछ तो जोश पैदा करो ", यह कोई आम सी गुहार नहीं लगती , ऐसा लगता है जैसे किसी ने तोप के मुंह पर इन्कलाब रख कर छोड़ दिया हो की उट्ठो , जागो , सिर्फ हाय हाय करने से कुछ नहीं होगा! यह सिर्फ चिंगारी नहीं है भाई , मुझे तो यह आग का दरिया लग रही है आपकी कविता ...उम्मीद करती हूँ की उसका वोही असर हो जिसकी इसमें मांग की गयी है! माफ़ करें मेरी कोई भी भाषा इतनी अच्छी नहीं पर भाव पहचानती हूँ ...और भाव ,मेरे पास शब्द नहीं हैं ब्यान करने को ..

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  10. apki baat samajh men aati hai. satta chali gayi to sangharsh ka haq to kisi ne chheen nahi liya?

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  11. "पराजित मन को किसी शत्रु की
    ज़रूरत नहीं होती.
    वह खुद ही काफ़ी है
    डूबने-डुबोने को. "

    मन को संबल देती, सदा सकारात्मक एवं प्रयत्नशील रहने को प्रेरित करती रचना ।

    "काफ़ी होती है एक छोटी सी चिंगारी ही
    उजास फैलाने के लिए"
    आप ये उजास फ़ैला युवाओं का पथ प्रशस्त करते रहें यही निवेदन है महोदय ।

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