Thursday, 14 November 2013

लुट गई विरासत

विरासत को
अपनी शानदार विरासत को
आज़ादी की लड़ाई की विरासत को
नहीं सहेजा उन्होंने
बटमारों को मौक़ा मिल गया !

-मोश्रो

विरासत के नासमझ ध्वज-वाहकों ने कचरे के ढेर में फैंक दिया विरासत को !


आज नेहरू के स्मरण की रस्म-अदायगी होगी.
जैसे पंद्रह दिन पहले इंदिरा गांधी और सरदार पटेल के साथ हुआ था.
और तेतालीस दिन पहले महात्मा गांधी को याद किया गया था.
पांच दिन बाद इंदिरा गांधी को फिर याद किया जाएगा.
अगले महीने, और फिर अप्रेल में आंबेडकर को याद किया जाएगा,
जनवरी के अंत में गांधी को, और फिर मई के आखिरी सप्ताह में नेहरु को फिर से याद किया जाएगा.

जैसे न जाने कितने बरस बाद, संयोग से, ऐसे ही, तीन दिन पहले अबुल कलाम आजाद को याद कर लिया गया था.

ये सब प्राणहीन स्मरण हैं, जिनके पहले एक विशेषण जोड़ दिया जाता है - "श्रद्धा".

कांग्रेस पार्टी, सरकारें और सामाजिक संगठन ज़िम्मेदार हैं, इन तमाम महान नेताओं के स्मरण को रस्म-अदायगी में बदल देने के लिए ! इनके अवदान के ऐतिहासिक महत्त्व की चर्चा न करके, और इस तरह आज़ादी के बाद पैदा हुई पीढ़ियों को उनके महत्व से अपरिचित बनाए रख कर, इतिहास-चर्चा का काम बटमारों को सौंप देने के लिए ! बटमार जब यह काम करते हैं तो तथ्य गौण (या महत्वहीन भी) हो जाते हैं, और अफ़वाहों को ऐतिहासिक तथ्यों के रूप में पेश करने का रास्ता खुल जाता है.

नेहरू की भी बहुत सारी कमियां-कमजोरियां रही होंगी, किसी भी अन्य विश्वनेता की तरह. पर उससे कहीं ज़्यादा उनकी खूबियां थीं. आज के हिंदुस्तान और पाकिस्तान के फ़र्क़ को नेहरू को समझे बिना नहीं समझा जा सकता. नेहरू ने संस्थाओं की नींव रखी. लोकतांत्रिक संस्थाओं की ही नहीं, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, इतिहास, समाज विज्ञान एवं कला-संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन को प्रतिश्रुत संस्थाओं-संगठनों की. वैज्ञानिक चेतना विकसित करने के काम को प्राथमिकता दी.

नेहरू के साहित्यिक अवदान, उनकी इतिहास-दृष्टि एवं विश्व-पटल पर उनकी ठोस वैचारिक अवस्थिति के लिए विश्व के महानतम दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों व शांतिकर्मियों ने सराहना की है. उनके समकालीनों ने तो सर्वाधिक. अफ़सोस की बात है कि उनकी स्वयं की पार्टी ने उनकी वैचारिकता-बौद्धिकता को तज दिया.

किसी का भी स्मरण तभी सार्थक बन पाता है, जब उसके अवदान को नए समय के साथ जोड़ा जाए. आज बाल दिवस मना लेने या अख़बारों में चौथाए पेज के विज्ञापन दे देने से बात नहीं बनती. जिन गैर-दक्षिणपंथी लोगों की नेहरू से असहमतियां थीं/हैं, वे कांग्रेस की तुलना में उन्हें बेहतर ढंग से याद करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि "नेहरू" होने के राजनीतिक-सांस्कृतिक मायने क्या हैं !

-मोश्रो