Sunday, 29 January 2012

यह एक बयान है, गुस्से से भरा बयान

अभी तक सड़कें और
बड़े-बड़े बांध ही बने हुए थे
पर्याय विस्थापन के.
रिहाइशी इलाकों मे जगह-जगह
उग रहे बड़े-बड़े बहु-मंज़िला मॉल
नए-नए शामिल हुए हैं इस सूची में.

सत्ता और पूंजी की जुगलबंदी 
करती है यशोगान इनका 
विकास के चमचमाते कीर्ति-स्तंभों के रूप में.

रिहाइशी बस्तियों में
छीनी इन मॉलों ने सबसे पहले धूप
फिर डाला डाका हवा पर 
और इसके बाद लूटा घरों की "निजता" को
पिछले अठारह बरस से रह रहे थे जो 
अपने मन-पसंद छोटे-से घरों में
यकायक धकिया दिए गए पिछवाड़े 
कोर्ट-कचहरी कैसे आ सकते थे 
इनके साथ  वे तो रहे धूप और हवा तक
कब्ज़ा लेने वालों के साथ
भाड़ में जाएं क़ायदे-क़ानून 
क़ानून का राज सुनिश्चित करने वालों की बला से !  

एक सपना पूरा हुआ था जैसे 
अठारह बरस पहले 
एक मध्य-वित्त बस्ती में 
धूप-हवा से भरपूर ठिकाने पर
एक छोटा, पर अपना, घर 
पा जाने का.

बरसों इसी भरम में जीते रहने के बाद 
कि खुद का घर होना 
तो है "वैचारिक दोष" नैतिक 
अपराध भी क्योंकि
यह तो आता है 
निजी संपत्ति के दायरे में.
और निजी संपत्ति? वह तो 
देती है जन्म शोषण को दोहन को
भरम टूटा 
झटके से नहीं,
जो दिख रहा था उसे न समझ पाने के कारण
धीरे-धीरे. समझ का फेर था 
अपना ही,  जिन पर भरोसा था 
परचम उठाने का 
उनके तरीके इतने "महीन" भी नहीं थे
पर हमको ही दिखे नहीं.
और भरम के टूटने के बाद
मारे जब हाथ-पांव तो 
पाया एक आशियाना
निगल गया बेदर्दी से मॉल 
मुंह चिढाते हुए रखा 
जिसने ओ के प्लस अपना नाम.
कौन ओ के? मैं तो नहीं.
कौन प्लस? मैं तो हो ही 
नहीं सकता था "प्लस" जब 
कर दिया गया "माइनस". नया
आने वाला तो "प्लस", और इस इलाके का
"आदिवासी" रातों रात बन गया
"माइनस". कैसा है यह गणित?
वैसा तो नहीं कुछ भी 
जैसा पढ़ा था हमने 
न तो गणित और न भूगोल. 
इतिहास तो एकदम नहीं.

पूंजी का बल है जिनके पास 
क़ानून की धज्जियां
उड़ाने की अनुमति कैसे दे देती है सरकार
और कचहरी जो जब चाहे ले लेती है
संज्ञान कुछ दूसरे मुद्दों का 
कठघरे में खड़ा कर देती है
सरकार को जारी कर देती है 
गिरफ़्तारी के आदेश तुर्रम खां
अफ़सरों की. क्यों रहती है मौन
क्यों दिखती है लाचार इतनी 
पूंजी के बोरों के समक्ष? कि 
कुछ न करके साष्टांग करती दिखती है.
अपने ही नियमों को डालकर
रद्दी की टोकरी में 
जिनकी सेवा में हो जाती है 
तब्दीली भू-उपयोग में 
पार्क और अस्पताल दोनों 
हो जाते हैं ख़ारिज 
मॉल की सेवा में.

रिहाइशी को व्यापारिक में तब्दील 
कर देने के मायने कितने खतरनाक !
जीना चाहो यदि चैन से तो बेचो
अपने घर सौंप दो व्यापारियों को 
और नए सिरे से ढूंढो अपने सिर 
के लिए एक छत 
जैसे बहुत सरल हो कर पाना 
यह सब ! कितना फ़र्क़ हैं माफ़िया के 
सफ़ाई अभियानों और इस 
सरकारी हरक़त में  
सच कहो क्या ये दोनों जुड़वां 
कार्रवाई नहीं लगती हैं तुम्हें?
किसकी क़ीमत पर होंगे विकसित 
ये मॉल, और किसके भले के लिए 
क्या पूंजी के बोरों ने खरीद लिया है 
जिसे कहते हैं हम देश
अपना देश? किसके बूते पर 
बना-बढ़ा पूंजी का कारोबार
किसने बनाया किसान को मज़दूर
किसने दिखाया रास्ता किसान को 
आत्महत्या का  किसने 
बोलो किसने? किसने छीनी धूप और हवा 
इस बस्ती की हज़ारों ऐसी बस्तियों की?

मैं जो इस बस्ती का आदिवासी था 
कैसे बना पहला विस्थापित भी 
इस बस्ती का?

व्यक्ति से बनता है समाज 
चैन-छिना व्यक्ति बनाएगा कैसा
समाज? ये जो मोटे हैं और मुटाते जाएंगे 
कब तक? कब रिहाई होगी 
बंधक समाज की इन जोंकों से?
पूछता हूं फिर कि आखिर कब?


10 comments:

  1. पूछता हूं फिर कि आखिर कब?

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  2. ''मैं जो इस बस्ती का आदिवासी था
    कैसे बना पहला विस्थापित भी
    इस बस्ती का?''

    ठीक वैसे ही जैसे इस धरती के आदिवासी
    विस्थापित किये गए
    अनाम कब्रिस्तानो ,जेलखानों , हस्पतालों , पागलखानों में
    खूरेंज़ सडको के किनारे कचराघरों में
    संग्रहालयों पुस्तकालयों शोधालयों में
    किताबों में कविताओं में फिल्मों में
    मुर्दा चाँद के पिछवाड़े किसी
    किसी अदृश्य ब्रह्माण्ड से
    निरंतर गिरती हुयी
    धूल में

    जैसे खो गए सब के देखते देखते
    स्वर्ग की घाटी से
    चिनार के अनगिनत किशोर दरख़्त
    जैसे फ्लड लाइटों की देशव्यापी चकाचौंध में
    नोच लिया गया अनाम सोनी सोरियों का
    निष्पाप स्त्रीत्व
    जैसे पोंछ दिए गए
    सड़कों पर सपनों की पदचाप बिछाते
    अधजवान लड़के लड़कियों की आँखों से
    यकीन के अन्खुआते कतरे

    बिलकुल वैसे ही
    मोहन दा
    हम भी
    अपनी बस्तियों
    जिस्मों
    उनींदी सुबहों से
    सब से पहले विस्थापित किये गए.

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  3. धन्यवाद, आशुतोष, "गुस्से भरे बयान' के sequel के लिए. बड़ा सटीक अनुपूरक है.

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  4. यह वह गुस्सा है जिस पर पर्दा डालने के लिए शिल्प के चमत्कारों की तमाम चिमगोइयां की जाती हैं. आज जब शोषण के पंजे इतने क्रूर और इतने नग्न हैं तो मुझे लगता है कि प्रतिकार की कविता को भी इतना ही सीधा, तीखा और स्पष्ट होना होगा. आपको सलाम...

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  5. धृष्टता के लिये क्षमा प्रार्थी हूँ पर रचना पढकर सवाल उठे तो रोक नहीं पायी ...
    क्या मध्यमवर्गी केवल छत का ही सपना देखकर बस कर देता है क्या मॉल संस्कृति से जुड कर वह स्वयं कृत कृत्य नहीं होना चाहता पर जब तक आग पड़ोस के घर की जद मे हो हम आँखे खोलना नहीं चाहते .....क्यों हम बाजार के हाथों खिलौना हो कर अपने खरीदार होने का भरम पाले रखते हैं ....मॉल पनप क्यों रहे हैं उन्हें खरीदार कहाँ से मिल रहे हैं क्यों हमारे घर अनावश्यक सामन का जमावाडा हो रहें हैं ?

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    1. मैं जो इस बस्ती का आदिवासी था
      कैसे बना पहला विस्थापित भी
      इस बस्ती का?यही वह प्रश्न है जिसका समाधान ढूँढना है हमें इसलिये यह गुस्सा. यह आक्रोश जरूरी है इस आँच की ताप से ही निकलेगा (मुक्तिबोध की पंक्ति लेकर कहूँ तो )संकल्पध्रर्मी चेतना का रक्ताप्लावित स्वर!

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    2. यह तो खुशी की बात है, वंदना, कि कुछ सवाल उठे. सवाल रखने में धृष्टता कैसी? पर ये सवाल यदि "बयान" की अंतर्वस्तु पर टिप्पणी के साथ होते तो मुझे भी लगता कि मुझे इनका उत्तर दे देना चाहिए. ज़ाहिर है, उत्तर अपेक्षित नहीं हैं, इसलिए मैं सिर्फ़"जय हो आपकी" कहता हूं. यह शुक्रिया अदा करने की भाषा है मेरी. स्वस्थ-प्रसन्न होंगी.

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  6. फिर जला दिये गये आदिवासियों के गाँव
    इस उम्मीद में कि जमीन , नदी और पहाड़ को न बेचने की संस्कृति मर जायेगी ,
    फिर वो राख उड़ी और जम गयी विजेताओं की संततियों के मस्तिष्क में ,
    और उसने उन सब के मस्तिष्क को कुंद बना दिया ,
    फिर श्रेष्ठ जातियों ने पढ़े कुछ प्राचीन श्लोक और सिद्ध किया कि वसुधा एक कुटुंब है ,
    फिर पूरी वसुधा के सारे विजेता एक कुटुंब हो गये ,
    फिर विजेताओं ने लिखे इतिहास ,
    जिसमे कहीं नहीं थे
    आदिवासी युवतियों की प्रेम कहानियाँ ,
    युवकों के फौलादी बाजुओं की मछलियों की दास्तानें,
    न नदियाँ थीं , न पहाड़ , न वसंत ,न मेला ,न चूड़ी ,

    विजेताओं ने
    बनाये भव्य स्मारक
    इस युद्ध में शहीद हुए सिपाहियों के
    जिसमे सिपाहियों के
    नाक बहाते गरीब बच्चों का जाना मना था ,
    फिर बुद्धिमान लोगों ने अनुमान लगाये ,
    सांस्कृतिक विरासत की रक्षा को क्या क्या खतरे बाकी हैं अभी ,

    कुछ सिरफिरों ने कोशिश की सर उठाने की ,
    पर कुचल दिये गये,
    इतने महान देश के लोकतंत्र से टकराना मजाक है क्या ?
    लोकतंत्र की रक्षा में सारी श्रेष्ठ जातियां एक हो गयीं ,
    बागी बुरी तरह मारे गये,
    कुछ भी तो नहीं था उनकी तरफ ,
    न धर्म
    न संस्कृति ,
    न राजनीति ,
    कुछ जंगलियों के समर्थन से
    क्रांति करने चले थे ,

    कुछ निष्पक्ष लोगों ने ,
    विश्लेषण प्रस्तुत किये
    राष्ट्र के सम्मुख जिसमे
    ऐसा आभास दिया गया था
    कि ये क्रांति को भी अच्छी तरह समझते हैं
    पर असल में इन्होने ही तो बताये थे
    बागियों के खात्मे के गुर
    विजेताओं को ,

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  7. शुक्रिया भाई हिमांशु, यह कविता जब मैंने पढ़ी थी पहली बार तो इस पर अपनी तरह से तो एक यादगार टिप्पणी ही की थी, जिसे अनेक मित्रों ने पसंद किया था. आपने इसे यहां टिप्पणी की जगह लगाकर मेरे इस बयां का मां बढ़ा दिया.

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  8. दर्द की शुरुआत तो गाँव जंगल से हो चुकी थी ...

    "अभी तक सड़कें और
    बड़े-बड़े बांध ही बने हुए थे
    पर्याय विस्थापन के."

    और तब स्वर भी उठे विरोध के फिर भी आज वही स्थिति है

    कविता के आक्रोश से तो मैं सहमत हूँ किन्तु परिवर्तन के लिये समाधान की भी अपेक्षा थी

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