Monday, 16 January 2012

कोई ट्रॉफ़ी है क्या प्रेम जिसे ड्राइंग रूम में सजा कर रख दें...

प्रेम हो जाना या प्रेम में पड़ जाना स्वाभाविक है, फिर भी यह कोई सामान्य घटना नहीं है. रोज़मर्रा घटित हो सकने वाली घटना तो एक दम नहीं. लोग इसका कितना भी सामान्यीकरण क्यों न कर दें. यह कोई वस्तु नहीं है. यह कोई ट्राफ़ी भी नहीं है, जिसे अपने ड्राइंग रूम में सजा कर रख दें. यह न कोई बिल्ला है जिसे सीने पर टांगे फिरते रहें. न कोई बाज़ूबंद है जिसे बात करते वक़्त हाथ हिलाते-हिलाते दिखाते रहें.
हरेक की ज़िंदगी में ऐसा एक क्षण आता है जब उसे लगता है कि वह प्रेम में है. जिससे है प्रेम, उसे भी है या नहीं, यह अक्सर अनकहा रह जाता है. पूछा भी नहीं जा सकता. शालीनता की श्रेणी से बाहर माने जाते हैं इस तरह के सवाल. चलो, मान लेते हैं कि प्रेम में हैं. तो क़ायदे से यह दो व्यक्तियों के बीच की बात है - दो इकाइयों के  बीच की, जो पूरी तरह से स्वायत्त इकाइयां हैं या उन्हें ऐसा होना चाहिए. तीसरा तो 'बाहरी' ही रहता है इस प्रसंग में, वह कितना भी अंतरंग क्यों न हो आपके लिए ! 
प्रेम जीवन की चालक शक्ति बन सकता है. प्रेरणा का कारक बन जाता है. हिम्मत भी देता है, हौसला-अफ़ज़ाई भी करता है. बड़े मुश्किल काम कर गुज़रता है इंसान, यदि पीठ पर प्यार-भरा किसी का हाथ हो तो. कई मामलों में ऐसा पाया भी गया है. इसके उलट, एक दिखावे का नज़ारा भी देखने को मिलता है. किताबों, और इनसे भी अधिक विश्वविद्यालयी शोध-प्रबंधों,  के समर्पण/कृतज्ञता वाले पृष्ठ पर बहुत से लेखक इसका उल्लेख भी करते हैं. आपको कितनी बार ऐसे उल्लेख "यक़ीन-करने-जैसे" लगे? सच बताइए. कितनी ही बार क्यों लगता है ऐसा, कि यह सब "दुनिया-दिखावे"(public consumption) के लिए होता है? "उल्लेखक" और "उल्लेखित" दोनों इस बात को जानते हैं. जो एक-दूसरे को फाड़-खा जाने के लिए न केवल तत्पर रहते हैं प्रतिक्षण, बल्कि ऐसी कुख्याति भी अर्जित कर चुके होते हैं, वे भी इस तरह का प्रेम-प्रदर्शन करते पाए जाते हैं.
प्रेम परवान चढ़ने का पैमाना क्या होता है? विश्वसनीय पैमाना? क्या इसके फलीभूत होने के निशान देह तक सीमित होते हैं? यह कहना चाहेंगे क्या कि आत्मा को तो किसने देखा है? पर जब बात आत्मीयता की होती है, तो इसका संबंध दिल से होता है. दिल जो पूरे शरीर को शुद्ध खून पंप करता रहता है, और इस तरह ऊष्मा का संचार करता रहता है - ऊष्मा जो गर्मास देती है. गर्मास प्रेम का, और ठंडापन उदासीनता का प्रतीक/परिचायक माना जाता है. प्रेम/करुणा जगाने वाली बातों के बारे में कहा जाता है कि वे दिल को छू जाती हैं. कुछ दूसरी तरह की बातें ठेस पहुंचा जाती हैं, दिल को. ऐसी बातें प्रेम का विलोम होती हैं.
साहित्य में, और उससे भी ज़्यादा फ़िल्मों में, प्रेम एक अनिवार्य-सा तत्व बन गया है: सुनिश्चित सफलता का नुस्खा. जितना रूमानी, उतना ही लोकप्रियता का बीमा करने वाला भी. आज नब्बे फ़ीसद कविता प्रेम के इर्द-गिर्द घूमती है. अंग्रेज़ी-हिंदी समेत अनेक भाषाओं की श्रेष्ठ प्रेम कविताएं पढ़ पाने का सौभाग्य मुझे भी हासिल हुआ है, पर वह अलग किस्सा है.  प्रसिद्ध अंग्रेज़ी कवि जॉन डन (John Donne) की एक बेहद प्रसिद्ध प्रेम कविता है "Sunne Rising" (सूर्योदय के बाद). सूरज उगने के बाद कमरे की खिड़कियों के पर्दों को चीरती आती उसकी किरणों से' कविता का नायक, 'प्रेमी' खीझ उठता है, और सूरज को बुरा-भला कहता है, "प्रेम का दुश्मन" तक. वह सूरज को फटकारने के लहज़े में कहता है कि वह खेतों पर रौशनी बरसाए, जहां खेतिहर लोगों को उसकी ज़रूरत है, कारखानों  के परिसरों में भी अपना जलवा दिखाए. आशय यह कि सूरज वहां-वहां जाए जहां लोग मेहनत-मशक्कत करके जीवन-यापन की जुगत बठाने में लगे हैं. यहां आ कर 'प्रेम' में खलल डालने की क्या ज़रूरत है? इसे "कविता-प्रेमी पढ़े-लिखे समझदार लोग" अंग्रेज़ी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कविताओं में गिनते हैं. एक बड़ी प्रोफ़ेसर, "जॉन डन" पर व्याख्यान देने आईं, एम ए के विद्यार्थियों के समक्ष. यानि मेरे विभाग के विद्यार्थियों के समक्ष. कुल मिलाकर अच्छा व्याख्यान दिया. विद्यार्थियों ने उनके सामने अपने सवाल रखे, जिन्हें सुन कर उन्हें लगा कि वे उनके सवाल नहीं हो सकते थे, कि शायद उक्त कविता को पढाने वाले शिक्षक ने वे प्रश्न विद्यार्थियों को पहले से दे दिए हों. तो ज़ाहिर है, जवाब देने में वह थोड़ी अचकचाईं. मुझसे भी  उन्होंने आग्रह किया कि अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में, मैं भी अपनी राय दूं, कविता और व्याख्यान, दोनों पर. ज़ाहिर है, यह दायित्व तो मुझे वैसे भी निभाना ही था. मेरा कहना था कि शेक्सपीयर से "जॉन डन" तक के पूरे काल-खंड में (और तबसे लेकर बीसवीं शताब्दी के कविता संसार में), यह अकेली कविता है जो प्रेम को ठोस रूप में पूर्णकालिक कार्य-व्यापार के रूप में चित्रित करती है, और इसलिए यह प्रेम की सामाजिकता और निजता दोनों पर प्रश्न उठाए जाने का स्पेस प्रदान करने वाली कविता के रूप में भी सामने आती है. ज़ाहिर है, इसे पढते हुए अनंत में अश्मीभूत किसी क्षण (frozen moment) के बारे में तो सोचा तक नहीं जा सकता, क्योंकि कविता की बुनावट ही ऐसा करने की अनुमति नहीं देती. यह अविराम चलने वाला कार्य-व्यापार  नायक को एक "होल-टाइम लवर" की जिस छवि से मंडित करता है वह, इसके व्यावहारिक होने/ न होने की बात छोड़ भी दें तो, सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से 'वरेण्य' भी बन सकती है क्या? न कमाना-धमाना, न किसी सामाजिक दृष्टि से उत्पादक कार्य में संलग्न होना, और सूरज तक से खीझे रहना, खेती-बाड़ी करने वालों, कल-कारखानों में काम करने वालों के प्रति तिरस्कार का भाव रखना, और प्यार को शयन कक्ष तक के कार्य-व्यापार मात्र में तब्दील कर देना आदि प्रेम के किस पक्ष को रेखांकित करते हैं - इसे न केवल देखना, बल्कि इसे "प्रेम-संस्कृति" की कसौटी बनाए बिना इस कविता का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता. ज़ाहिर है, वह विदुषी पहले तो चौंकी यह सब सुनकर, फिर धीमे स्वर में कविता पर इस तरह से विचार करने को उचित एवं उपयोगी मानने की दिशा में दो क़दम आगे बढ़ती दिखाई दीं.
प्रेम "दिल को हथेली पर रख कर चलने" का पर्याय नहीं है. प्रेम रिश्तों की संश्लिष्टता में व्यक्त होने पर ही सहज लगता है, एक उत्प्रेरक का रूप भी धारण कर पाता है. अंदर से पूरी तरह 'रीते' लोग कृत्रिम रूप से स्वयं को 'रस-सिक्त' दिखाने के लिए भी 'प्रेम-प्रेम' खेलते हैं, कविता में. जीवन में भी. अनवरत और खुल कर. यह बिना 'अहसास' के चलने वाला खेल है, और इसीलिए पाठक को भिगो नहीं पाता. देर तक स्मृति में टिके रह पाने की क्षमता भी अन्तर्निहित नहीं होती इसमें. ध्यान देने योग्य बात है कि कई बार काल्पनिक प्रेम से अधिक असरकारी होती है वास्तविक बिछोह से उपजी रचना, क्योंकि किसी के 'होने' के मायने बेहतर समझ में आते हैं उसके 'न होने' की स्थिति में ही. क्या 'खो गया' है का आख्यान उस खोये हुए के महत्त्व को सजीव ढंग से 'मूर्तिमान' बना देता है. "सोज़े-मोहब्बत" का अपना जलवा होता है.
प्रेम का गुणगान हमारे पुरखा कवियों ने खूब-खूब किया है, सूक्तिपरक शैली में, पर वह 'निर्वैयक्तिक' है अपनी संरचना और चरित्र में, यह भी ध्यान रखने की बात है. इससे कुछ सीख लेने, और तदनुरूप अपनी समझ साफ़ करने की भी ज़रूरत है. विवेकशील व्यक्ति, समाज और साहित्य का भला भी है इसमें. 

13 comments:

  1. क्या 'खो गया' है का आख्यान उस खोये हुए के महत्त्व को सजीव ढंग से 'मूर्तिमान' बना देता है.

    कितनी सुन्दर बात है और चिंतन के धरातल पर गहरे पैठ कर कुछ पल विचारें तो इस पंक्ति की सच्चाई कुछ कुछ तो आत्मसात की ही जा सकती है... अपनी समग्रता में तो यह अनुभूति उसी को प्राप्त होगी जो उस बिछोह के दर्द को भोगेगा!
    बेहद सुन्दर आलेख... बार बार पढ़े जाने और एक मील के पत्थर की तरह राह पहचानने के लिए मदद करने वाले सन्दर्भ की तरह दैदीप्यमान नक्षत्र... प्रेम के वर्तमान कृत्रिम आकाश पर एक सही सच्चा आकलन!!!

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  2. ्जो बात आपने उक्त कविता के लिये कही जिसे सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी मे रखा गया वो ही प्रश्न मेरे ज़ेहन मे भी आया ………प्रेम देह नही है या देह तक ही सीमित नही है………प्रेम की व्यापकता सिर्फ़ कुछ क्षणो के माध्यम से मापी तोली नही जा सकती समग्रता के साथ व्याप्त होता है प्रेम जीवन के हर पल मे फिर चाहे दाल रोटी की बात हो या घर परिवार की या आन्तरिक आत्मिक प्रेम की सिर्फ़ एक क्षण पर प्रेम को टिकाना और उसे सर्वश्रेष्ठ घोषित कर देना प्रेम नही है प्रेम मे समर्पण ,विश्वास और त्याग का भी उतना ही समावेश है जितना साथ का।

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  3. प्रेम पर आपने बढ़िया लिखा है. जिस तरह से प्रेम-प्रेम का चतुर्दिक निर्द्वन्द्व शोर चहुंओर मचा हुआ है वह मुझे तो अक्सर रचनात्मक चमत्कारों के प्रदर्शन और सामाजिक-राजनैतिक आंधी में शुतुरमुर्गी व्यवहार के ऊपर चढाये गए मुलम्मे के रूप में सामने आता है...पहले भी आता रहा है. बार-बार कही बात दुहरा रहा हूँ कि वर्ग-विभक्त समाज और सतह के नीचे और ऊपर चल रहे तमाम वर्ग-संघर्षों के दौर में कोई भी प्रेम समाज-राजनीति से मुक्त नहीं हो सकता. इसीलिए जब कुमार अनुपम जैसा युवा कवि विदेशिनी की "स्मृति कि जेब्रा क्रासिंग" पर खड़ा होकर उससे यह सवाल पूछता है कि "जहाँ रहती हो / क्या वहाँ अब भी उगते हैं प्रश्न" तो वह मुझे हमारे समय की प्रतिनिधि कविता लगती है...

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  4. बाबा, बहुत ही ध्यान से पढ़ा मैंने आलेख को, धन्यवाद, आप अक्सर इस तरह से प्रश्न उठाते हैं जिन्हें अक्सर हम लोग स्वयं के सामने खड़ा पाते है, सच ही कहा आपने प्रेम कभी भी दिखावे की वस्तु नहीं रहा और न ही उसे होना चाहिए, क्रोध, स्नेह, आदर, मैत्री जैसे यह भी एक भाव ही तो है, वैसे प्रेम में होने या उससे बाहर आने जैसे शब्द कभी कभी मुझे अचरज में डाल देते हैं, प्रेम सूरदास की कमली है जिस पर कोई रंग नहीं चढ़ता पर वैसी नहीं जिसे वक़्त पड़ने पर ओढ़ लिया जाये और जरूरत न होने पर सहेज दिया जाये, आप प्रेम को जी तो सकते हैं किन्तु हर वक़्त आकंठ उसमें डूबे रहना भी हास्यास्पद है, उतना ही जैसे हर समय क्रोध या हास्य प्रकट करना, प्रेम को मेडल की तरह सीने पर टांकना न तो संभव है न ही उचित! बाकि आपके ही एक आलेख पर अपनी पुरानी टिपण्णी उधृत कर रही हूँ..........." जब कवि, लेखक या साहित्यकार सभी के सामाजिक सरोकार और दायित्व उन्हें प्रेरित करते हैं तो स्वतः जी लेखन सामाजिक चेतना से जुड़ जाता है, यद्यपि इससे प्रेम-आधारित कविताओं को स्तरहीन नहीं माना जा सकता किन्तु यदि लेखन का कोई प्रयोजन नहीं हो और एक खास विषय तक ही सीमित हो तो वह स्वयं ही अपना अर्थ खोने लगता है, प्रेम कवितायेँ हर युग में अपना स्थान बिना किसी सनसनी के बनाती आयीं हैं और रहेगी, किन्तु तब लेखक के समाज के प्रति दायित्वों का निर्वाहन कैसे हो, वस्तुतः इसी एक प्रश्न के कारण मैंने अपनी कविताओं का दायरा बढाया, एक पत्नी, प्रेमिका के नाते मैं काफी कुछ लिख चुकी थी, किन्तु हमेशा लगा सिर्फ खुद के लिए लिख रही हूँ, मेरे इस लेखन का प्रयोजन केवल वाह-वाह तक सीमित रह जाना नहीं होना चाहिए, मुझे लगा कि एक स्त्री होने के नाते, या समाज का एक हिस्सा होने के नाते भी मुझे वह रचना चाहिए जो समाज में हो रही उन विसंगतियों के प्रति मेरी चिंता और सोच को जाहिर कर सके और शायद आज भी मैं वह करने के लिए प्रेरित और संघर्षरत हूँ........"

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  5. आलेख पढकर ठिठक गऐ.... वाह बस वाह

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  6. अंदर से पूरी तरह 'रीते' लोग कृत्रिम रूप से स्वयं को 'रस-सिक्त' दिखाने के लिए भी 'प्रेम-प्रेम' खेलते हैं, कविता में. जीवन में भी. अनवरत और खुल कर. यह बिना 'अहसास' के चलने वाला खेल है, और इसीलिए पाठक को भिगो नहीं पाता...

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  7. bahut badhiya lekh, bauddhik va bhavnaatmak dono staron ko samaan roop se chhoota hua

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  8. प्रेम के अनेकों रूप, अनेकों स्वर, अनेकों अभिव्यक्ती के अन्दाज़, बचपन का प्यार, लड़कपन की गर्मी वाला सीमाओं को तोड़ता प्रेम, प्रोढ़ता की हलकी हलकी सुलग वाला प्रेम, प्रेमी से मिल कर क होने को तरसता प्रेम, प्रेमी के विरह की ठँडक में जलता प्रेम, भूला हुआ अचानक फ़िर से याद आया प्रेम, कभी लगे की है कभी लगे कि नहीं है वाला प्रेम ..

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  10. ट्रॉफ़ी न सही, पर ड्राइंग-रूम में रखने की चीज़ ज़रूर है -"प्रेम".....जी हाँ, दिल के ड्राइंग-रूम में प्रेम के फ़ानूस से ही जगमगाहट होती है....

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  11. सुशीला पुरी ‎ने फ़ेसबुक पर कहा

    ''... पर वह 'निर्वैयक्तिक' है अपनी संरचना और चरित्र में, यह भी ध्यान रखने की बात है..! बिलकुल !!


    Tejinder Gagan ने फ़ेसबुक पर कहा

    Prem ko shabdon mein baandh pana lagbhag asambhav hai par yeh aapne kiya hai'Prem ko samajha bhi naheen ja sakta fir bhi main kehna chahunga ki aap kripya Bulle Shah Ya Waris Sshah ko pad kar dekhen, Kya baat hai man bheeng jaata hai.


    Prabhat Pandey says on FB

    सच कि किसी के 'होने' के मायने बेहतर समझ में आते हैं उसके 'न होने' की स्थिति में ही.


    Rashmi Bhardwaj ‎ने फ़ेसबुक पर कहा

    प्रेम का गुणगान हमारे पुरखा कवियों ने खूब-खूब किया है, सूक्तिपरक शैली में, पर वह 'निर्वैयक्तिक' है अपनी संरचना और चरित्र में, यह भी ध्यान रखने की बात है. इससे कुछ सीख लेने, और तदनुरूप अपनी समझ साफ़ करने की भी ज़रूरत है. ..........John Donne की प्रसिद्ध कविता आज नए नजरिये से देखी...वास्तव में यह प्रश्न उठने लायक है की प्रेम क्या whole time business भी हो सकता है ...प्रेम की भाषा भी होती है क्या और किसी तीसरे की उपस्थिति की कितनी गुंजाईश है ....प्रेम के स्वरुप पर गहनता से सोचने को प्रेरित करती रचना ...धन्यवाद बाबा

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  12. Anju Sharma ने फ़ेसबुक पर कहा

    बाबा, बहुत ही ध्यान से पढ़ा मैंने आलेख को, धन्यवाद, आप अक्सर इस तरह से प्रश्न उठाते हैं जिन्हें अक्सर हम लोग स्वयं के सामने खड़ा पाते है, सच ही कहा आपने प्रेम कभी भी दिखावे की वस्तु नहीं रहा और न ही उसे होना चाहिए, क्रोध, स्नेह, आदर, मैत्री जैसे यह भी एक भाव ही तो है, वैसे प्रेम में होने या उससे बाहर आने जैसे शब्द कभी कभी मुझे अचरज में डाल देते हैं, प्रेम सूरदास की कमली है जिस पर कोई रंग नहीं चढ़ता पर वैसी नहीं जिसे वक़्त पड़ने पर ओढ़ लिया जाये और जरूरत न होने पर सहेज दिया जाये, आप प्रेम को जी तो सकते हैं किन्तु हर वक़्त आकंठ उसमें डूबे रहना भी हास्यास्पद है, उतना ही जैसे हर समय क्रोध या हास्य प्रकट करना, प्रेम को मेडल की तरह सीने पर टांकना न तो संभव है न ही उचित! बाकि आपके ही एक आलेख पर अपनी पुरानी टिपण्णी उधृत कर रही हूँ..........." जब कवि, लेखक या साहित्यकार सभी के सामाजिक सरोकार और दायित्व उन्हें प्रेरित करते हैं तो स्वतः जी लेखन सामाजिक चेतना से जुड़ जाता है, यद्यपि इससे प्रेम-आधारित कविताओं को स्तरहीन नहीं माना जा सकता किन्तु यदि लेखन का कोई प्रयोजन नहीं हो और एक खास विषय तक ही सीमित हो तो वह स्वयं ही अपना अर्थ खोने लगता है, प्रेम कवितायेँ हर युग में अपना स्थान बिना किसी सनसनी के बनाती आयीं हैं और रहेगी, किन्तु तब लेखक के समाज के प्रति दायित्वों का निर्वाहन कैसे हो, वस्तुतः इसी एक प्रश्न के कारण मैंने अपनी कविताओं का दायरा बढाया, एक पत्नी, प्रेमिका के नाते मैं काफी कुछ लिख चुकी थी, किन्तु हमेशा लगा सिर्फ खुद के लिए लिख रही हूँ, मेरे इस लेखन का प्रयोजन केवल वाह-वाह तक सीमित रह जाना नहीं होना चाहिए, मुझे लगा कि एक स्त्री होने के नाते, या समाज का एक हिस्सा होने के नाते भी मुझे वह रचना चाहिए जो समाज में हो रही उन विसंगतियों के प्रति मेरी चिंता और सोच को जाहिर कर सके और शायद आज भी मैं वह करने के लिए प्रेरित और संघर्षरत हूँ........"


    सुनीता सनाढ्य ने फ़ेसबुक पर कहा

    पाण्डेय प्रेम ही क्या किसी भी भाव को जब तक भोग न गया हो उस पर टिप्पणी करना बिलकुल सही नहीं है और यदि वह बिना भोगे लिखा गया है तो उसमे कहीं न कहीं बनावटीपन तो दिखेगा ही........प्रेम पर आपका आलेख बहुत ही अच्छा लगा सर ...धन्यवाद


    Suman Singh ने फ़ेसबुक पर कहा

    ‎''कई बार काल्पनिक प्रेम से अधिक असरकारी होती है वास्तविक बिछोह से उपजी रचना'..'' 100 % सच.. ' ये बिलकुल आजमाई हुई बात है बाबा....ऐसा होता ही है...और होना भी चाहिए...क्यूंकि कल्पनाजन्य प्रेम...क्षणिक उत्तेजना भरी ख़ुशी देता है....और बिछोह ... असीम पीड़ा...!! .जिसके प्रतिमान नहीं बनते....पीड़ा हर हाल में पीड़ा ही रहेगी.....कभी कुछ तरल....कभी और गहनतम.....
    मुझे हमेशा लगता है की ''पीड़ा का सुख'' हज़ार दीनार देकर भी हासिल नहीं होता....ये सिर्फ उपजती है...
    बहुत उम्दा विषय पर लिखा है बाबा....धन्यवाद..


    Rekha Pancholi ने फ़ेसबुक पर कहा

    सही कहा है सर आपने_ काव्य ..भावों की गहन अनुभूति ...स्वानुभूति
    के बिना प्रभावित नही कर सकता..इसी तरह ह्य्र्दय के जुड़ाव के बिना कोई
    प्रेम नही कर सकता कवि और प्रेमी दोनो का सवेदनशील होना पहली शर्त है!


    Vimalendu Dwivedi ने फ़ेसबुक पर कहा

    बहुत बढ़िया लिखा है सर...किन्तु......प्रेम बेहद व्यक्तिगत भाव है और हर व्यक्ति अपने प्रेम को अपने अद्भुत तरीके से जीता है....इन्ही कोशिशों में वह अक्सर हास्यास्पद भी हो जाता है, लेकिन तब भी किसी के प्रेम का उपहास करना क़तई जायज़ नहीं है...कविता,कहानी या जहां कहीं भी प्रेम का अतिरेक दिखाई पड़ता है, स्वाभाविक है...जो प्रेम मे नहीं हैं या ऊबे हुए हैं उन्हें दूसरे का प्रेम हमेशा संदिग्ध ही लगता है.


    Umesh KS Chauhan ने फ़ेसबुक पर कहा

    दुःख तब नहीं होता/ जब 'कोई' अपने बीच से जाता है/ दुःख तो तब होता है/ जब 'कुछ' अपने बीच से जाता है/ और वह जो एक लंबे समय तक साथ रहकर/ बहुत कुछ बन चुका हो अपना/ उसका जाना तो बहुत दुःख देता ही है…

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  13. बहुत सटीक,प्रासंगिक और तथ्यपरक लेख है बहुत बारीकी से विचार करता और मार्गदर्शन करता सक्षम आलेख ...

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