प्रेम पर विश्व साहित्य में श्रेष्ठ कविताओं का बड़ा भंडार मिलता है. वहां अधिकांश कविताओं में तो 'प्रेम' शब्द का उल्लेख तक नहीं है. इसका एक कारण यह भी है कि प्रेम का संबंध मात्र स्त्री की 'देह' से नहीं होता. शेक्सपीयर में तो प्रेम पर सर्वाधिक उद्धृत पंक्तियां उपलब्ध हैं. दिलचस्प बात यह है कि वहां प्रेम तमाम सामाजिक संदर्भों के बीच अवस्थित होता है. हिंदी में भी बेहद अच्छी प्रेम कविताओं का अकाल नहीं है. पिछले दिनों, स्त्री-पुरुष कवियों की जटिल सामाजिक वास्तविकता के विश्लेषण के बीचोबीच प्रेम को रख देने वाली कुछ अच्छी कविताएं पढ़ने को मिली थीं जिनका उल्लेख मैं उपयुक्त संदर्भ में पहले भी कर चुका हूं. प्रेम के सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व को पूरी तरह स्वीकार हुए भी इन दिनों आ रही बहुत सी प्रेम कविताओं के पीछे निहित सामाजिक-साहित्यिक प्रयोजन को समझ पाने में खुद को असमर्थ पाता हूं, कदाचित इसलिए कि इन सर्वनामी कविताओं में संज्ञाहीनता बहुत अटपटी लगती है और कवि, कविता या समाज किसी का कोई ख़ास भला करती नहीं दिखती. नए साल के शुरू में, पहले ब्लॉग पोस्ट में ही, यह टिप्पणी नकारात्मक न मानी जाए, यह मेरी अपेक्षा है क्योंकि शिकायतभरी लगने के बावजूद मित्रों के प्रति सद्भाव की वाहक होने के कारण इसका उद्देश्य एकदम सकारात्मक है.
अटपटा नही स्वाभाविक
लगता है
कई दफ़ा यह
देखना कि सब तरफ़ कविताओं में
बह रही है 'प्रेम की गंगा'
फक्काटे से. पहाड़ से गिरती है
जैसे शोर मचाती हुई
मस्ती में. खींचती
सबका ध्यान अपनी ओर.
पर रोज़-रोज़
सुबह दोपहर शाम
बिला नागा अलग-अलग
दृश्यों को उकेरती स्त्रियां
प्रेम की आदिम चाह को
नए "बिछ-जाते-अंदाज़" में
खुद को कहती हुई
'धरती'
तृषित सूखी और फिर सिंचित
होती हुई.
धरती का रूपक
खतरों से भरा है
निकलती हैं कितनी ही
लोकोक्तियां इससे, कोई मेल
नहीं आज की
अस्मिता-सजग स्त्री से जिनका.
युवा जो क़ायदे से
उतने युवा भी नहीं रह गए
अपनी रचनात्मक ऊर्जा
को कितने ही रंगों में डुबोकर
फैला रहे हैं
रंगरेज़ जैसे फैला देते हैं
रंगी हुई चुनरियों-साड़ियों को
पर वे तो मन रखते हैं
दूसरों का और जुगाड़ बैठाते हैं
जी पाने का पत्नी और बच्चों
की बुनियादी ज़रूरतें
पूरी कर पाने का
और इस तरह 'बिना कहे
प्यार जताने का'
फिर भी मुश्किल तो होती है
बहुत मुश्किल होती है, सच
इस बेलगाम मंहगाई के दौर में.
शब्दों के जादूगर
धूप को देखकर
कैसी भी खिली न खिली
सरसों को देखकर
बादल हों घटाएं छा रही हों
या फिर
टिमटिमा रहे हों तारे
उगने या छिपने वाला हो सूरज
गरज़ यह कि
देख लें कुछ भी
या न भी देखें
'तुम' से शुरू करते हैं
संवाद
जो हर बार बदल जाता है
प्रेम के आख्यान में.
नया होता है जो
शब्द-संयोजन में
लगता है धारावाहिक की अगली कड़ी
अपनी सनातन
अंतर्वस्तु में.
कुछ भी जोड़ा जा सकता है
धारावाहिक में जैसे
फ़रमाइश तक पर
दर्शकों की
अंतहीन चल सकता है
सिलसिला जिसका
महाभारत से भी लंबा
क्योंकि कुछ होता ही नहीं
कथा के नाम पर.
वैसा ही लगता है
इन दिनों पढकर
प्रेम कविताएं
सर्जक का दृष्टि-वैशिष्ट्य तक नहीं
झलकता जिनमें
उम्मीद करना भाव के
छलकने की तो कही जाएगी
मासूमी
या मूर्खता हद दर्ज़े की
चांद को चाहने से भी बड़ी.
कई 'कलाकार' कवि तो
बन गए हैं
इतने सिद्ध
कि दस से कम पंक्तियों में
बुन लेते हैं ऐसा तिलिस्म
प्रेम का
कि खुद ही मोहाविष्ट हो
महाकाव्य-जैसा
आख्यान रच देने का
वहम न केवल पाल लेते हैं
औरों से कहला भी लेते हैं
कि वे आश्वस्त हैं ऐसा
बस हुआ चाहता है
घटित हो सकता है कभी भी
सिर्फ़ सर्वनामों के सहारे
मनुष्य की अनुपस्थित क्रियाशीलता
के चलते भी, "वाह वाह" की
सुपरिचित स्वर लहरियां
आप्लावित कर लेती हैं
गहरे डुबो देती हैं
चेतना-विवेक को
पाठक के. इतना कि
संज्ञा-शून्य हतप्रभ खुद की
समझ पर करने लगता है
संदेह कि बात तो
गहरी ही होगी बस पल्ले
उसके ही नहीं पड़ती.
कवि उम्र से बड़े भी हो जाएंगे
तो भी
ये नुस्खे
'हल्द लगे न फिटकरी'
के मूर्तिमान नुस्खे फिर
फिर ललचाएंगे उन्हें
'कभी न हुए प्रेम' को
फिर से जी लेने के लिए
कविता में
क्योंकि इतनी सहजता से यह
संभव है यहीं
कविता में ही.
कहीं नहीं दिखते
स्त्री-पुरुष
बतियाते बेटी की पढ़ाई
बेटे को नौकरी न मिल पाने से पैदा
उसकी झुंझलाहट और खीझ
के बारे में. आस-पड़ोस के
दुःख-तकलीफ़ से
विचलित होना तो हो गई
गुज़रे ज़माने की बात. खुद के
कष्ट ही मुस्कराने तक
की नहीं देते हैं छूट.
स्त्री-पुरुष के बीच
रोज़मर्रा के शिकवे-शिकायत में
आगत-अनागत की चर्चा में
कभी खीझने
और फिर कभी भाग्य को कोसते हुए
रूठने-मनाने में
प्रेम निहित नहीं होता क्या
तनिक भी?
इतना इकहरा कब से
हो गया प्रेम जो
होता था उजागर
खट्टे-मीठे
चिरपरे-कसैले
और न जाने
कितने अलग-अलग
स्वादों में. न कहा जाने पर भी
शक नहीं होता था
जिसके होने पर.
क्या प्रेम कभी नहीं होता
संप्रेषित मौन में? किसी
दार्शनिक ने ही तो कहा था न?
"गहनतम प्रेम होता है
निश्शब्द
निहित होते हैं शब्दों में
बीज विमतियों के !"
abhee kuchh baar aur paDh_anaa paD_egaa.
ReplyDeleteअद्भुत आलेख!
ReplyDeleteएक मार्गदर्शिका कविता को उसकी समग्रता में पढ़ने का अनुपम सुख/श्रेय मिला... आत्मसात हो जाये ये बातें तो निश्चित ही परिवेश बदलेगा/सुधरेगा!
सादर!
"न कहा जाने पर भी
ReplyDeleteशक नहीं होता था
जिसके होने पर."
इन सारगर्भित पंक्तियों पर कुछ लिखना हो तो... एक अदद मौन ही लिखा जा सकता है!
"शेक्सपीयर में तो प्रेम पर सर्वाधिक उद्धृत पंक्तियां उपलब्ध हैं. दिलचस्प बात यह है कि वहां प्रेम तमाम सामाजिक संदर्भों के बीच अवस्थित होता है."
ReplyDeletewow! That made me remember so many illustrations from shakespeare read in school days included in curriculum...
Truly said!!!
"गहनतम प्रेम होता है
ReplyDeleteनिश्शब्द
निहित होते हैं शब्दों में
बीज विमतियों के !" .....
सच कहा है....बहुत ही सटीक लेख है आपका....और ठीक भी तो है, जीवन-यात्रा के कितने ही पड़ावों से गुजरते प्रेम में न जाने कितनी ही भावनाएं निहित होती हैं,
खट्टे-मीठे
चिरपरे-कसैले
और न जाने
कितने अलग-अलग
स्वादों में. न कहा जाने पर भी
शक नहीं होता था
जिसके होने पर........जो आपने लिखा उसके बाद कुछ लिखना चाहती हूँ......आप सदा ही प्रेरित करते हैं हमें.....ऐसे लेख लिख कर आप सदैव हमारा मार्गदर्शन करते हैं, उसके लिए कोटि कोटि धन्यवाद.....
नए साल में ब्लॉग के नए मनभाते मुखड़े का स्वागत.
ReplyDeleteऐसा लगता है कि आप काव्यालेख जैसी कोई नयी विधा ईजाद करने की ओर बढ़ रहे हैं.कविता सी सरस, आलोचनात्मक आलेख सी विचारशील.
मुबारक.
हिंदी नेट पर प्रेमकाव्य के मौजूदा विस्फोट की गहन परख का सिलसिला आगे बढ़ना चाहिए .इस सामग्री में बाल बच्च्चों और पास पड़ोस की चिंताएं कम हैं , तो इस का यह कारण भी हो सकता है कि वैयक्तिकता और कामना के परम्परापोषित नकार के खिलाफ एक आभासी प्रतिक्रया दर्ज की जा रही हो . और यह कि प्रेम के परिचित शक्ति समीकरण के अपना विरोध मुखर किया जा रहा हो .
निजता और कामना को एसर्ट करने का आग्रह अपनी आप में अ-सामाजिक नहीं है . दिक्कत तब आती है , जब इस एसर्सन के लिए जरूरी साहस कम पड़ जाता है , क्योंकि हिंदी समाज में 'साहस 'की तुलना में ' समर्पण ' का माँ अब भी बहुत अधिक है. इस साहस के अभाव में ही संज्ञाओं / क्रियाओं से खाली और मोहाविष्ट विशेषणों पर जरूरत से अधिक निर्भर प्रेम के 'कलात्मक ' चतुर गीत रचे जा रहे हैं.
नए साल में ब्लॉग के नए मनभाते मुखड़े का स्वागत.
ReplyDeleteऐसा लगता है कि आप काव्यालेख जैसी कोई नयी विधा ईजाद करने की ओर बढ़ रहे हैं.कविता सी सरस, आलोचनात्मक आलेख सी विचारशील.
मुबारक.
हिंदी नेट पर प्रेमकाव्य के मौजूदा विस्फोट की गहन परख का सिलसिला आगे बढ़ना चाहिए .इस सामग्री में बाल बच्च्चों और पास पड़ोस की चिंताएं कम हैं , तो इस का यह कारण भी हो सकता है कि वैयक्तिकता और कामना के परम्परापोषित नकार के खिलाफ एक आभासी प्रतिक्रया दर्ज की जा रही हो . और यह कि प्रेम के परिचित शक्ति समीकरण के खिलाफ अपना विरोध मुखर किया जा रहा हो .
निजता और कामना को एसर्ट करने का आग्रह अपनी आप में अ-सामाजिक नहीं है . दिक्कत तब आती है , जब इस एसर्सन के लिए जरूरी साहस कम पड़ जाता है , क्योंकि हिंदी समाज में 'साहस 'की तुलना में ' समर्पण ' का मान अब भी बहुत अधिक है. इस साहस के अभाव में ही संज्ञाओं / क्रियाओं से खाली और मोहाविष्ट विशेषणों पर जरूरत से अधिक निर्भर प्रेम के 'कलात्मक ' चतुर गीत रचे जा रहे हैं.
"गहनतम प्रेम होता है
ReplyDeleteनिश्शब्द
निहित होते हैं शब्दों में
बीज विमतियों के !" .....
मौन मे ही तो प्रेम भासता है ………
शाश्वत सत्य है
मगर आज का प्रेम
शब्दो का मोहताज़ हो गया है,
दिखावे की वेदी पर चढ गया है
बेहतरीन शब्दो मे सटीक चित्रण्।
प्रेम के खिलाफ नहीं प्रेम के पक्ष में है यह कविता और यह विवेचन. सामाजिक संदर्भों में प्रेम का समालोचन .
ReplyDeleteप्रेम,प्रकृति,जीवन,मृत्यु,संघर्ष,स्वप्न ये सब कवियों के प्रिय विषय हैं. प्रेम में सर्वनामी नारी की बहार है . आप तो 'रंगरेज' कवियों की यू.एस.पी. छीन कर उन्हें श्रीहीन करने पर तुले हैं. क्या आपको नहीं पता कि संज्ञा के प्रयोग से कवि बंध जाता है. अकाउंटेबिलिटी -- जिम्मेदारी -- बढ जाती है . ओपनएंडेड सर्वनाम में अनंत संभावनाएं छुपी हैं.
केदारनाथ अग्रवाल के काव्य संकलन 'जमुन जल तुम' की सैकड़ों कविताएं 'हे मेरी तुम....' के सर्वनामी संबोधन के बावजूद एक ही संज्ञा को संबोधित हैं.इसलिए ठोस कविताएं हैं.इधर की एक-एक सर्वनामी कविता में कई-कई गोपन संज्ञाओं को प्रभावित करने की सामर्थ्य है . 'प्रेम की गंगा' के उद्दाम प्रवाह और उसकी 'सनातन अंतर्वस्तु' के बीच पत्नी,बेटे-बेटी,दुख-तकलीफ और रोजमर्रा की समस्याओं की बात कर आप क्यों प्रेम-आप्लावित कवि को हतोत्साहित कर रहे हैं.
वैसे भी प्रेम-कविता प्रेम का स्थानापन्न नहीं होती. नहीं हो सकती . प्रेम अन्धा हो सकता है ( Love looks not with the eyes, but with the mind/ And therefore is winged Cupid painted blind .)पर प्रेम कविता को दृष्टि-सम्पन्न होना चाहिए . आपकी भाषा में कहूं तो उसे 'सामाजिक संदर्भों के बीच अवस्थित' और क्रियाशील होना चाहिए, वायवीय नहीं.
पुनश्च : इसके बावजूद मुझे भी प्रेम-समर्थक और प्रेमानुमोदक ही माना जाये.
Prem ke paksh me kaun nahi hai ? Prem kavitayen likh kar hi prem prakat nahi kiya jata. " Ghahantam Prem hota hai Nishabd."
ReplyDeleteस्त्री-पुरुष के बीच
ReplyDeleteरोज़मर्रा के शिकवे-शिकायत में
आगत-अनागत की चर्चा में
कभी खीझने
और फिर कभी भाग्य को कोसते हुए
रूठने-मनाने में
प्रेम निहित नहीं होता क्या
तनिक भी?
इतना इकहरा कब से
हो गया प्रेम जो
होता था उजागर
खट्टे-मीठे
चिरपरे-कसैले
और न जाने
कितने अलग-अलग
स्वादों में. न कहा जाने पर भी
शक नहीं होता था
जिसके होने पर.
क्या प्रेम कभी नहीं होता
संप्रेषित मौन में? किसी
दार्शनिक ने ही तो कहा था न?
"गहनतम प्रेम होता है
निश्शब्द
निहित होते हैं शब्दों में
बीज विमतियों के !"
prem ki vyapakata ko bahut gahrayi se vyakt kar deti hain ye panktiyan ...aapane main sampoorn.
Ashutosh Kumar said on fb
ReplyDeleteनए साल में ब्लॉग के नए मनभाते मुखड़े का स्वागत.
ऐसा लगता है कि आप काव्यालेख जैसी कोई नयी विधा ईजाद करने की ओर बढ़ रहे हैं.कविता सी सरस, आलोचनात्मक आलेख सी विचारशील. मुबारक.
हिंदी नेट पर प्रेमकाव्य के मौजूदा विस्फोट की गहन परख का सिलसिला आगे बढ़ना चाहिए .इस सामग्री में बाल बच्च्चों और पास पड़ोस की चिंताएं कम हैं , तो इस का यह कारण भी हो सकता है कि वैयक्तिकता और कामना के परम्परापोषित नकार के खिलाफ एक आभासी प्रतिक्रया दर्ज की जा रही हो . और यह कि प्रेम के परिचित शक्ति समीकरण के खिलाफ अपना विरोध मुखर किया जा रहा हो .
निजता और कामना को एसर्ट करने का आग्रह अपनी आप में अ-सामाजिक नहीं है . दिक्कत तब आती है , जब इस एसर्सन के लिए जरूरी साहस कम पड़ जाता है , क्योंकि हिंदी समाज में 'साहस 'की तुलना में ' समर्पण ' का मान अब भी बहुत अधिक है. इस साहस के अभाव में ही संज्ञाओं / क्रियाओं से खाली और मोहाविष्ट विशेषणों पर जरूरत से अधिक निर्भर प्रेम के 'कलात्मक ' चतुर गीत रचे जा रहे हैं.
Vandana said on fb
ReplyDelete"गहनतम प्रेम होता है
निश्शब्द
निहित होते हैं शब्दों में
बीज विमतियों के !" .....
मौन मे ही तो प्रेम भासता है ………
शाश्वत सत्य है
मगर आज का प्रेम
शब्दो का मोहताज़ हो गया है,
दिखावे की वेदी पर चढ गया है
बेहतरीन शब्दो मे सटीक चित्रण्।
मैं इसे आशुतोष भाई की तरह 'काव्यालेख' कहना ही पसंद करूँगा. जिस तरह की लिजलिजी प्रेम कविताओं से आज फेसबुक/ब्लॉग ही नहीं प्रिंट मीडिया का भी एक बड़ा हिस्सा भरा पड़ा है...हालत यह है कि ज्ञानोदय जैसी पत्रिका बेवफाई महाविशेषांक निकालती है...तमाम कवि प्रेम और स्त्री विषयक कविताओं के संकलन धडाधड तैयार कर रहे हैं और यह समाज और राजनीति के अंदर जनविरोधी नीतियों और तत्वों के हावी होते जाने के अनुपात में ही बढ़ रहा है....वे दरअसल समाज और मनुष्य को और अधिक सुन्दर तथा सह्य बनाने की जगह बस एक कुहासा फैलाने का काम कर रही हैं. एक वर्ग विभक्त समाज में प्रेम भी कोई द्वन्द्वहीन और निरपेक्ष चीज़ नहीं हो सकती.
ReplyDeleteबहुत सटीक रचना!
ReplyDeleteवही प्रेम है जो आज भी मौजूद है - खट्टे-मीठे चिरपरे-कसैले और न जाने कितने अलग-अलग स्वादों में.पर मौजूदा कुछ प्रेम कविताओं से उसके ये रंग गायब हैं
प्रेम केवल मधुर ही नहीं होता , न जाने कितने आवरणौं को उधेडता है हमारे भीतर के...वह आवरण जिन्हें हम खुद भी ठीक से नहीं पहचानते.
Ashok Kumar Pandey said on fb मैं इसे आशुतोष भाई की तरह 'काव्यालेख' कहना ही पसंद करूँगा. जिस तरह की लिजलिजी प्रेम कविताओं से आज फेसबुक/ब्लॉग ही नहीं प्रिंट मीडिया का भी एक बड़ा हिस्सा भरा पड़ा है...हालत यह है कि ज्ञानोदय जैसी पत्रिका बेवफाई महाविशेषांक निकालती है...तमाम कवि प्रेम और स्त्री विषयक कविताओं के संकलन धडाधड तैयार कर रहे हैं और यह समाज और राजनीति के अंदर जनविरोधी नीतियों और तत्वों के हावी होते जाने के अनुपात में ही बढ़ रहा है....वे दरअसल समाज और मनुष्य को और अधिक सुन्दर तथा सह्य बनाने की जगह बस एक कुहासा फैलाने का काम कर रही हैं. एक वर्ग विभक्त समाज में प्रेम भी कोई द्वन्द्वहीन और निरपेक्ष चीज़ नहीं हो सकती.
ReplyDeleteबाबा ,प्रेम कविताओं के सामाजिक साहित्यिक प्रयोजनों को समझने की जरुरत क्या है ?किसी भी कविता के सामाजिक साहित्यिक प्रयोजन को समझने की जरुरत क्यों है ?अगर है ,तो भी ये कवि का काम नहीं है |ये काम उनका है जिन्हें ये लगता है कि ऐसी अप्रयोजनशील कविताओं से उनकी अपनी रचनाओं की पठनीयता पर असर पड़ रहा है |जहाँ तक कवि ,कविता और समाज पर असर का सवाल है देश के कोने -कोने में अनाम कवियों की प्रेम रचनाएं पीढ़ियों से जिस ढंग से समाज के अलग -अलग तबकों में गायी और सुनाई जा रही हैं| वो करिश्मा दिखाने में वो कवितायेँ असफल रही है जिन्हें अशोक कुमार पांडे लिजलिजी श्रेणी से अलग रखते हैं |फिलहाल मैं "नयी झुलनी के छैयां बालम दुपहरिया बिताए ला हो "सुन रहा हूँ और यक़ीनन इसे पढ़ना किसी नामचीन कवि की कठिन शब्द -संरचनाओं से गुथी हुई उस कविता को पढ़ने से बेहतर है जिसके दम पर वो समाज और साहित्य को बदल देने का दंभ तो भरता है ,लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद वो किसी कालजयी रचना को जन्म नहीं दे पाता |
ReplyDeleteआपने ने तो बहुत सारे लोगो को आईना दिखा दिया है ..."हाय मैंने उन्हें नंगा देख लिया / अब इसकी सजा मिलेगी " मजा आया पढकर ..
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