यह कविता नहीं है. पिछले दिनों, अठारह घंटों के फ़ासले पर घटित दो घटनाओं पर एक नोट है. एक टिप्पणी है. लयात्मक टिप्पणी. जीवन के रंग-बिरंगे और धूसर बिंबों को साधती हुई टिप्पणी. मन के तल पर क्या कुछ गुज़र जाता है, एक-दूसरे की उलट स्थितियों में ! जीना इसी का नाम है ! जीना और एकरसता परस्पर-विरोधी लगते हैं जहां !
खुशी जैसे फैल गई इंटरकॉम की घंटी से
घर में हर तरफ़
हर कोने में .
भरा-भरा लगने लगता है घर
कोई आत्मीय आ जाए तो.
सूनापन पिघलने लगता है
ज़रा सी गर्मास से पिघलने लगती है
जैसे बर्फ़. और अचानक आ जाना
उसका जो प्रिय हो
लगता है उतना ही सुखद जैसा
ग़मले में नई पत्ती का अंकुआना
या एक कली का यकायक
चटक उठना.
अभी कुछ दिन पहले एक साथ
आना था कई मित्रों को
पहले से तय था सब कुछ
रसोई हुलस कर अति सक्रिय हो गई
डाइनिंग टेबल प्रतीक्षातुर
बिना कुछ किए ही
जैसे हर कोना जगमग था
चमचम करता घर
बुझ गया झटके से
जब उन्होंने जताई असमर्थता
आ पाने में.
घर भी जैसे समझ जाता हो सब कुछ
हमसे भी पहले
घर बेजान नहीं होता नहीं होता नासमझ भी.
घर और मकान में यही तो होता है फ़र्क़.
पर इस बार ऐसा नहीं हुआ.
अपनी बेटी से भी कम उम्र का
यह मित्र आया, भींच लिया बांहों में.
बातें चलती रहीं दुनिया भर की
मेले की मित्रों की लिखने की
पढ़ने की कितनी ही बातें
हुलसा मन
खासकर इसलिए
कि आया था मित्र वहां से
जिसे कहते हैं आभासी दुनिया
सच कहूं कितनी ही बार
असल से ज़्यादा असल लगती है
यह दुनिया इतनी कि करता नहीं मन
मानने को इसे आभासी.
इतना अपनापन कहां
मिलता है यहां
न कोई चाहत न कोई ईर्ष्या
किताबों की सौगात लेकर आया मित्र
सूफ़ियाना किताबों की
लगता है कई बार
ज़्यादा काम के हैं
सरमद शहीद, बुल्लेशाह
और बाबा फ़रीद
ज़ोर देते हैं जोड़ने पर
सिर्फ़ जोड़ने पर सबकी एकता पर
मज़हब इसके एकदम उलट
तोड़ते ही तोड़ते हैं
फ़साद मचवाते हैं
देखो इधर चाहे उधर या फिर
किधर भी. सच कहूं भीग गया
भीतर तक मन.
जाना अच्छा नहीं लगा
इतनी जल्दी मित्र का
पर जाना था उसे कोई और
मित्र गिन रहा था एक-एक मिनट
उसके इंतज़ार में. बार-बार बजते
फ़ोन ने समझा दी अहमियत मित्र की
दूसरे मित्रों की नज़र में.
अगली सुबह वैसी ही थी जैसी
होती है हर सुबह
काफ़ी देर तक रही वैसी ही
पर झटके से टूट गया
अहसास सुबह के आम होने का
फ़ोन पर. फ़ोन पर? जी हां, फ़ोन ने बताया
एक हादसे के बारे में जो घट गया था
परिवार में मेरे ही.
चला गया दुनिया को छोड़कर
मेरा चचेरा भाई
वह जिसे अभी खूब जीना चाहिए था
बहुत कुछ करना था उसे अभी. और
चल दिया इस तरह
खोल कर मोह की तमाम गांठें
जैसे जाना नहीं चाहिए किसी को भी
दुश्मन को भी नहीं. दो साल पहले
ऐसे ही चला गया था
उससे जो था बड़ा
सगा-सहोदर
जनवरी का ही महीना
जैसे निर्धारित हो वज्राघातों के लिए
हमारे परिवार पर. मैं रोता नहीं अब
पाकर मौत की खबर
पर बार-बार डोलता रहा चेहरा
बहू का, अभी-अभी ब्याही बेटी का
अपने पांवों के नीचे तलाशते हुए ज़मीन
उसके बेटे का
और सबसे ऊपर उसके पिता का
जिन्होंने दो साल के फ़ासले पर खो दिया था
अपना दूसरा और आखिरी बेटा.
चेहरे सबके गड्ड-मड्ड
किसी का सिर तो आंखें किसी की,
हाथ किसी और के
सिर ढंका हुआ, झुका हुआ
आंख टपकती हुई
हाथ आंसू पोंछता हुआ, और इनसे
अलग एक चेहरा एकदम पथराया
निर्विकार भावशून्य स्थितप्रज्ञ
यह चेहरा सब से उम्र-दराज़ चेहरा
ध्यान से देखें तो
दिख जाएंगे कितने ही निशान इस
चेहरे पर जो छोड़े हैं वक़्त की मार ने.
जाना ज़रूरी था, सो हम गए
सबकी पीठ पर रखना था हाथ, हमने रखा
भरोसा दिलाना था अपने होने का
दिलाया वह भी, मौन और निश्शब्द
यूं भी संप्रेषित होते हैं भाव, हुए
यूं भी निकलते हैं अर्थ, निकले.
चेहरे सब के सब थे बिल्कुल वैसे
जैसे डोले थे मेरी भीतर की आंखों के सामने
जब सुनी थी खबर वज्राघात की.
फिर जाना है एक बार
अगले हफ़्ते ही, पर
लौट आने पर भी बंद नहीं हुआ है
चेहरों का घूमना. पता नहीं
कब होगा या होगा भी कि नहीं
कब मिलेगी मुक्ति
मिलेगी भी या नहीं.
इस लयात्मक टिपण्णी पर क्या टिपण्णी कर सकते हैं हम...
ReplyDeleteपढ़कर आँखें हैं नम...
एक स्वीडिश कविता पढ़ी थी... उसका अनुवाद भी किया था...
sharing here-
Så liten plats en människa tar på jorden.
Mindre än ett träd i skogen.
Så stort tomrum hon lämnar efter sig.
En hel värld kan inte fylla det.
Så litet en människa hjärta är.
Inte större än en fågel.
Rymmer ändå hela världen
och tomma rymder större än hela världen
ändlösa tomma rymdskogar av tystnad sång.
संसार में कितनी जगह लेता है इंसान
जंगल में एक वृक्ष जितनी जगह लेता है शायद उससे भी कम
पर इतना विशाल शून्य पीछे छोड़ जाता है
एक पूरी दुनिया मिलकर नहीं भर सकती
इंसान का दिल कितना छोटा है
एक पक्षी से ज्यादा बड़ा नहीं
पर अन्दर समाहित किये हुए पूरी दुनिया
और वहाँ व्याप्त शून्य... दुनिया से भी बड़ा
जैसे अंतहीन खाली जगहों में गूंजता जंगल का मौन संगीत.
बाबा, अपनों को खोने का दुःख भीतर तक भिगो देता है, गीता पढ़ते हैं और हम सभी जानते हैं कि आना और जाना तय है, किन्तु इस जाने के बाद पीछे रह गए लोगो पर इसका प्रभाव तोड़ डालता है, ऐसी हर घटना में बाद लगता है दुःख सहने की कितनी ताकत है हम लोगों में, कित्नु निरुपाय होते हैं हम क्योंकि नियति को स्वीकार करने के अतिरिक्त हमारे पास क्या विकल्प होता है, खैर....आहत संवेदनाओं को सहेजने की ताकत ही इस दुःख का निवारण है....ईश्वर आपको सब सहने की शक्ति दें....और दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें.....
ReplyDeleteइतनी लयात्मक की लय हो गया पढते पढते ....यही है जिंदगी कुछ चला आता है अनायास ...कुछ चला जाता है हठात ....सर नमन
ReplyDeleteक्या कहें ..?शब्द न तो होठों पर आ पा रहे हैं और न ही उंगलियों पर कि उन्हें यहाँ टाँक सकू...|देखते है समय के इस मलहम को , ...|अब तो उसका ही आसरा है....|
ReplyDeleteपूरा नहीं पढा अभी... ... लेकिन आभासी दुनिया वास्तविक लग रही है वाली बात पर ध्यान गया!
ReplyDeleteshabd asamarth ho jate hain kuchh kahane main sayad aisi hi sthiti hoti hogi tab.
ReplyDeletepoori vastvikta se parichit hoon isliye sundar kavita nhi kah sakti.. bas khamoshi se padh gai.. man bhari ho uthha hai.. (,./;)
ReplyDeleteसर, इस कविता को मुझसे अधिक और कौन समझ सकता है. हो सकता है कोई समझ सके लेकिन मेरी तरह जी नहीं सकता इस कविता को. उस अठारह घंटे के एक सिरे पर मैं जो हूँ. आपके स्नेह से और आपके दुःख से, दोनों से ही मन भीगा भीगा है. लिख तो बहुत कुछ सकता हूँ, इस कविता के बारे में फिर भी वह व्यक्त नहीं कर सकता जो मेरे मन में है. मेरे अलिखे भावों को भी आप समझ लेंगे, इसका तो मुझे पूरा विश्वास है.
ReplyDeleteसईद.
ये नीरस प्राण किसे दे डालूँ !
ReplyDeleteकर में लेकर भिक्षा का प्याला ,
खुद को अमिताभ बना डालूँ !
यह है इस धरती की थाती ,
हूँ चाहता इसी तरह जी डालूँ !
दुखद अभिव्यक्ति नि:शब्द होती है !
खुशी की तरह दुःख की भी एक लय होती है. भीतर ही भीतर तोड़ देने वाली है. एक क्षण होता है इन दोनों के बीच...उस क्षण को वही महसूस कर सकता है जिसने जिया है. क्या कहूँ उस दुःख को अपने भीतर कहीं गहरे महसूस कर पा रहा हूँ.
ReplyDeleteथोड़ा थोड़ा कर के जितना आप को जानने का अवसर मिलता है , विस्मय उतना ही बढ़ता जाता है ...और यह कहते भी संकोच होता है कि आप कहोगे मस्केबाजी कर रहा है . लेकिन इतनी संवेदना और बौद्धिक सजगता एक साथ करिश्मा सी लगती है हमारी पीढ़ी को , मोहनदा . इस से ज्यादा कहने की आँखें इजाजत नहीं देतीं .
ReplyDeleteशब्द जैसे चापुओं की आवाज़ के साथ, आपको ज़िंदगी की नदिया में बस उतार देते हैं..कभी शांत सा सफ़र, सुखद नज़ारा तो कभी अवसाद...यही जीवन है, इस भेद को खोलने में यह कविता अगर सफ़ल है, तब इसे सफ़ल काव्य ही माना जायेगा...और हां, अनुपमा बहन की स्वीडिश कविता का भी जवाब नहीं...अजीबो गरीब काव्य है..शेयर करने के लिये धन्यवाद.
ReplyDeleteAnju Sharma ने फ़ेसबुक पर कहा:
ReplyDeleteबाबा, अपनों को खोने का दुःख भीतर तक भिगो देता है, गीता पढ़ते हैं और हम सभी जानते हैं कि आना और जाना तय है, किन्तु इस जाने के बाद पीछे रह गए लोगो पर इसका प्रभाव तोड़ डालता है, ऐसी हर घटना में बाद लगता है दुःख सहने की कितनी ताकत है हम लोगों में, कित्नु निरुपाय होते हैं हम क्योंकि नियति को स्वीकार करने के अतिरिक्त हमारे पास क्या विकल्प होता है, खैर....आहत संवेदनाओं को सहेजने की ताकत ही इस दुःख का निवारण है....ईश्वर आपको सब सहने की शक्ति दें....और दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें.....
Ashok Kumar Pandey ने फ़ेसबुक पर कहा:
खुशी की तरह दुःख की भी एक लय होती है. भीतर ही भीतर तोड़ देने वाली है. एक क्षण होता है इन दोनों के बीच...उस क्षण को वही महसूस कर सकता है जिसने जिया है. क्या कहूँ उस दुःख को अपने भीतर कहीं गहरे महसूस कर पा रहा हूँ.
ChainSingh Parihar ने फ़ेसबुक पर कहा:
आशुतोष कुमार जी ने ठीक बात कही है ...में भी येही महसूसता हूँ ...श्रोत्रिय्रजी के बारे में ....
"जिन्होंने दो साल के फ़ासले पर खो दिया था
ReplyDeleteअपना दूसरा और आखिरी बेटा.
चेहरे सबके गड्ड-मड्ड
किसी का सिर तो आंखें किसी की,
हाथ किसी और के
सिर ढंका हुआ, झुका हुआ
आंख टपकती हुई
हाथ आंसू पोंछता हुआ, और इनसे
अलग एक चेहरा एकदम पथराया
निर्विकार भावशून्य स्थितप्रज्ञ"
कल भी पढ़ी थी मगर दिल भारी हो गया और मन उड़्कर पहँच गया उन उम्रदराज़ चेहरों के पास ! शब्दों और हाथों ने साथ नहीं दिया! मर्मांतक पीड़ा - जैसे दोनों आँखों की नेत्रज्योति चली गई हो ! प्रभु संताप ग्रस्त परिवार को धीरज दे।
कई बार पढ़ी और हिम्मत नहीं हो पाई कुछ कहने की। इतने गहरे दुख से कविता निकली तो उस पर बात करने की भी हिम्मत नहीं हुई। वीरेन डंगवाल की पिता के निधन पर लिखी कविताएं याद आईं और गालिब की `लाज़िम था के: देखो मेरा रास्ता कोई दिन और` भी। इनका जिक्र करना भी शायद दुख को बढ़ाएगा ही। बस ग़ालिब ही- `ताब लाए ही बनेगी...`
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