Friday, 27 January 2012

सरोकार, परिवर्तनकामी नौजवानों के

कल दो मित्र मिलने-चर्चा करने आए. दोनों, नौजवान. वर्तमान से असंतुष्ट, हमारे-जैसे बहुतों की तरह. पर फिर भी काफ़ी अलग. इस मायने में कि वे सिर्फ़ हालात के कारणों और उनके विश्लेषण से संतुष्ट नहीं. ऐसा नहीं कि वे इस काम को गैर-ज़रूरी मानते हों. क़तई नहीं. हां, वे इसे नाकाफ़ी मानते हैं. एक बड़े दार्शनिक पहले ही कह चुके हैं इस बात को, तो वे कोई मौलिकता का दावा करते हुए अपना आग्रह सामने नहीं रख रहे थे. वे महज़ अपने पक्ष को पूरी तरह रखने के लिहाज़ से इस बात को रेखांकित कर रहे थे. नौजवानों के मुंह से यह सुनना बहुत प्रीतिकर लगा कि ज़रूरत तो हालात को बदलने की है, ख़ासकर इसलिए भी कि आजकल इस बात पर नौजवानों का कोई ख़ास ज़ोर दिखाई नहीं पड़ता. इस आयु-समूह के लोग चीज़ों को बदलने के सपने तो देखते हैं पर उस "देखने" का ताल्लुक अधिकांशतः दूसरी किस्म के "सपनों" से होता है. सपने जिनका संबंध पूरे समाज से न होकर सिर्फ़ खुद की जीवनशैली के बेहतर बन जाने के साथ होता है : बेहतर जॉब, मोटा पैकेज, खुद का अधिक सुविधाओं से सुसज्जित घर, पढ़ी-लिखी अच्छा जॉब करती बीवी -- इनके इर्द-गिर्द घूमते हैं वे सपने. ज़्यादातर. सो इन नौजवानों से मिलना मुझे ताज़ा हवा के "मन-खुश-कर देने-वाले झोंके" की तरह लगा. यों तो नई पीढ़ी के और भी लोग आते रहते हैं, मेरे पास, पर उनका मक़सद अपने निजी हितों से इतर कुछ नहीं होता. 


इनमें से एक अनुवादक हैं, और दूसरे पत्रकार. अच्छा लगा जानकर कि इन दोनों ने पढ़-लिख खूब रखा है. सफल जीवन के लिहाज़ से चाहे नहीं, पर निस्संदेह बहुत कुछ ऐसा जो जीवन को सार्थक बना सकता है, उसे मायने-मतलब दे सकता है. अर्थपूर्ण बना सकता है. "अर्थपूर्ण" पैसे-धेले के अर्थ में नहीं, बल्कि बड़े-व्यापक अर्थों में.

बातचीत एकदम औपचारिक तरीक़े से शुरू हुई : "क्या लिख-पढ़ रहे हो" की तर्ज़ पर. पांच-सात वाक्यों के आदान-प्रदान के बाद अपनेआप ही चर्चा अनौपचारिक रूप अख्तियार करती चली गई. और यहीं से चर्चा में रस-संचार होने लगा. यह बड़ा शहर है, और यहां पढ़े-लिखे "ज्ञानी" लोगों की कोई कमी नहीं है. फिर भी बाहर से आकर बसने वाले को जो सबसे ज़्यादा हतोत्साहित करने वाली चीज़ यहां आते ही अखरने लगती है वह है "बौद्धिक ऊर्जा" का निपट अभाव. ऐसा नहीं कि लोग आपस में मिलते-जुलते नहीं, पर उस सबके चलते भी जो विशिष्टता (यदि उसे विशिष्टता कह सकते हों तो) यहां की साफ़ दिख जाती है, वह है एक तरह का "सतहीपन". दिलचस्पियों का, संवाद का, रिश्तों का भी - ऐसा कि पहली बार तो धोखा दे जाए, पर उसके बाद किसी तरह के भरम को असंभव बना दे जो. ये दोनों मित्र  दुनियाभर के कम्युनिस्ट आंदोलनों के इतिहास का सघन अध्ययन कर चुके हैं. समूह के भीतर अभी भी अध्ययन से अर्जित निष्कर्षों पर चर्चा करते रहते हैं. यह समूह-चर्चा वाला पक्ष मुझे गुज़रे ज़माने के उजले पक्षों की याद दिला जाता है, जब स्टडी सर्किल हुआ करते थे, जहां पढ़ने के साथ-साथ पढ़े हुए को औरों के साथ बांटने पर ज़ोर हुआ करता था. "पढ़े हुए" को कितना समझ लिया गया इसकी पहचान हो जाती थी, साथ ही इस बात की भी कि आप "पढ़े और समझे हुए" को कितना संप्रेषित कर पाते हैं औरों को. यह वो ज़माना था जब किताबें इतनी इफ़रात में उपलब्ध नहीं हुआ करती थीं. विडंबना देखिए जब किताबें जम के उपलब्ध होने लगीं तो "पढ़ना" एकदम निजी और एकांतिक क्रिया बनती चली गई. तो मुझे जानकर बहुत अच्छा लगा कि चाहे सिर्फ़ मुट्ठी भर लोग हों, पर हैं अभी भी जो पढ़कर, "पढ़े हुए" पर चर्चा को पढ़ने की क्रिया का ही एक अनुपूरक हिस्सा मानते हैं. यहां अचानक खयाल आया कि अरबी भाषा में एक शब्द है "मश्शाईन" जिसका अर्थ है विद्वानों का वह संप्रदाय जो एक दूसरे के पास जाकर पठन-पाठन में संलग्न होते थे, इसके बरखिलाफ़ "इशाक़ीन" थे जो निजी स्तर पर पठन-पाठन कर्म में संलग्न होते थे. कहना ना होगा कि "मश्शाईन" पठन-पाठन को एक अधिक अर्थपूर्ण सामूहिक क्रिया में तब्दील कर देते थे.

मुझे एक बात जो ख़ास लगी इन मित्रों में वह थी इनकी अति संवेदनशीलता और साथ ही इनकी सजग बौद्धिकता. बिना संवेदनशील हुए कोई भी उन प्रश्नों में सिर नहीं खपाता जो इन्हें मथ रहे हैं, और बिना सजग बौद्धिकता के कोई उस तरह तर्क नहीं कर पाता, जिस तरह ये कर रहे थे. पूरा ध्यान केंद्रित हो जैसे उन दरारों पर जहां से बात को आगे बढ़ाने के सूत्र पकड़े जा सकते हैं. इनका मक़सद सुनना भर नहीं था, सुनाना भी था और साथ भी यह आकलन करना भी कि इनकी जो समझ बनी है, पढ़कर और यहां-वहां जन संघर्षों से जुड़ कर वह कितने दूर तक इन्हें ले जा सकती है, सही रास्ते पर. बिना भटकाए. ज़ाहिर है, न तो रास्ता साफ़ है, न मंज़िल क़रीब, पर वो जज़्बा है जो झाड़-झंकाड़ को विचलन अथवा हताशा का सबब नहीं बनने देता. यह आश्वस्तिकारक है, बुरे वक़्त में, ख़ास तौर पर.

सफलता के पीछे भागने वालों की तुलना में ऐसे लोग यदि मुझे अधिक आकृष्ट करते हैं तो इसके पीछे कहीं यह तथ्य भी होगा ही कि ज़िंदगी के श्रेष्ठतम चालीस से अधिक वर्ष मैंने भी एक सपने के पीछे भागने में लगाए थे, विभिन्न पेशों से जुड़े अनेक लोगों को उस सपने को साझा सपना समझने के किए प्रेरित-शिक्षित-प्रशिक्षित करने का काम हाथ में लिया था. यह अलग बात है कि तेज़ी से बदलते समय, वैश्विक यथार्थ और साझे सपने को निजी सपने द्वारा विस्थापित कर दिए जाने के घटनाक्रम ने इन प्रयत्नों को तगड़ा झटका दिया. तात्कालिक विफलता आपके मार्ग-दिशा-चयन को ग़लत साबित नहीं कर देती, यह याद रखने और अपनी ज़िद पर क़ायम रहने की ज़रूरत भी बनी रहनी चाहिए. इन मित्रों से मिलकर लगा कि कहीं तो आग बची हुई है, राख की परतों के नीचे. यही ख़ास बात है.

8 comments:

  1. वाह ! ताज़ा हवा का झोंका जैसी रचना !

    ReplyDelete
  2. आग का बचना जरूरी है भले ही चिंगारी के रूप में सही।

    ReplyDelete
  3. " इन मित्रों से मिलकर लगा कि कहीं तो आग बची हुई है, राख की परतों के नीचे. यही ख़ास बात है."

    यही आग सुलगती रहनी चाहिये। चिंगारियाँ निकलेंगी तो ज्योतिर्मय करेंगी अपने परिवेश को!

    आपकी लेखनी अपनापन लिए होती है जो पाठक को सहज ही आपसे बाँधती है। आपको पढना सदा ही ज्ञानपरक और सुखप्रद लगता है।
    सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. hum aapki baat se itefaq rakhte hain sushila ji

      Delete
  4. aapko padhkar humesha ek nayi urja milti hai,
    aur aapki lekhni hume'n inspire karti hai kuchh achchha karne ko, jis tarah se aap apne anubhawo'n ko rakhte hain , hum jaise abhi jawan hote bachcho ke liye kisi prasad se kam nahi ya kah le wardan se kam nahi

    ReplyDelete
  5. मोहन सर, ऐसे तमाम युवा हैं हर जगह. इन्हें एकत्र करने की ज़रूरत है. एक नान-फार्मल ग्रुप के रूप में. कविता-समय वाले फार्मेट में विचार-समय जैसा आयोजन भी संभव है. उससे भी कम औपचारिकताओं के साथ. आप पहल कीजिए...मैं जिम्मेदारी उठाने को तैयार हूँ. इसकी आज ज़रूरत है.

    ReplyDelete
  6. ek chingaree kaheen se dhoondh lao doston / is diye men tel se bheegee huyee baatee to hai !

    ReplyDelete
  7. मश्शाईन का कुनबा घटता जा रहा है . वे इशाकीन में बदलते जा रहे हैं. यह किसी विपत्ति से कम नहीं है. अड्डेबाज़ी की पुरानी जगहों का विलुप्त हो जाना इस विपत्ति का प्रथम सूचक था. हम दिल्ली में इसे पुनर्जीवित करने की एक छोटी सी कोशिश कर रहे हैं. लेकिन बात अभी बन नहीं रही. सामाजिक मीडिया एक गुंजाइश पैदा करता है . लेकिन इस का आम चरित्र गंभीर फ़ुरसतिया अड्डेबाजी का नहीं ,झटपटिया टीपबाजी का है.
    वैचारिक ऊर्जा की कमी छोटे शहरों में जितनी है , उस से अधिक बड़े शहरों में है . छोटे शहर से बड़े शहर में आ कर प्रत्यक्ष अनुभव से लिख रहा हूँ. अलीगढ़ में के पी सिंह का घर एक ऐसी जगह था , जहां आ कर कई घंटे गुजारे बगैर उठना नामुमकिन होता था. उन से बहुत झगड़े थे . लेकिन जो बात थी , अब नहीं रही. दिल्ली में तो मिनट मिनट का हिसाब रखना पड़ता है.
    मेरा अनुभव यह है कि वैचारिक आजादी के नाम पर संगठनों और पार्टियों से असंबद्ध रहने की फैशनेबल आदत ने भी गंभीर सामूहिक चिंतन की रोजाना जरूरत और जगह को भयावह तरीके से नष्ट किया है . इस ने बुद्धिकर्मियों में संवाद के धीरज की जगह व्यक्तिवादी अहंकार और आलोचना के प्रति असहिष्णुता को बढ़ाया है .
    लेकिन सपनों में अद्भुत जिजीविषा होती है. वे धीरे धीरे अपने अंखुआने की जगहें खोज ही लेते हैं. ऐसा मेरा पुख्ता यकीन है.

    ReplyDelete