यह देखने पर "ज़ोर" कम क्यों हो गया है, इन दिनों, कि कहानी में कितना "कहानीपन" बचा है? और कविता में कितनी "कविताई"? और इन दोनों में बोलना हमारे समय का? कहीं यह उत्तर-आधुनिकता का असर/लक्षण ही तो नहीं कि कविता-कहानी में मूल अंतर्वस्तु के सिवाय बहुत कुछ दिख जाता है? कि समय शिल्प में बोलता है या कथ्य में? कि शिल्प यदि अलग से बोलता है रचना में, तो वह रचना की ताक़त हो सकता है क्या? अक्सर बिंबों की प्रभावशीलता की भी दुहाई दी जाती है बिना इस बात का उल्लेख किए कि बिंब कविता की अंतर्वस्तु से निर्धारित होते हैं अथवा बिंबों की कोई स्वायत्त इयत्ता भी होती है. रूपक जीवन को प्रतिबिंबित करते हैं या स्वयं में इतने शक्तिशाली होते हैं कि कविता का आधार बन जाते हैं.
सवाल पुराने हैं. पर पुराने सवाल भी दोहराए ही जाने चाहिए, यदि वे आज भी प्रासंगिक हैं तो. ख़ासकर इसलिए कि उनके जो जवाब हमें विरासत में मिले, और जिन पर व्यापक सहमति भी बन चुकी थी, यदि आज भी विवादास्पद या गैर-ज़रूरी माने जाते हैं. चाहे एक ज़िद के तहत ही. सवाल जुड़ा है किसी भी रचनात्मक कर्म की प्रयोजनशीलता से. रचना क्यों की जाती है? क्या सिर्फ़ करने के लिए? या उसके माध्यम से हम कुछ हासिल करना चाहते हैं? कुछ मामलों में, अपने लिए. कुछ दूसरे मामलों में औरों के लिए, और तीसरी तरह के मामलों में अपने साथ-साथ औरों के लिए भी. यह सवाल आज फिर से उठाने का संदर्भ तो यह है कि कविता के सामाजिक प्रयोजन को रेखांकित करने की गरज़ से की गई एक टिप्पणी (जो एक लेख का हिस्सा थी) पर एक पत्रकार-कवि ने यह प्रति-टिप्पणी की :
"प्रेम कविताओं के सामाजिक साहित्यिक प्रयोजनों को समझने की ज़रूरत क्या है? किसी भी कविता के सामाजिक साहित्यिक प्रयोजन को समझने की ज़रूरत क्यों है? अगर है, तो भी ये कवि का काम नहीं है| ये काम उनका है जिन्हें ये लगता है कि ऐसी अप्रयोजनशील कविताओं से उनकी अपनी रचनाओं की पठनीयता पर असर पड़ रहा है| जहाँ तक कवि, कविता और समाज पर असर का सवाल है देश के कोने-कोने में अनाम कवियों की प्रेम रचनाएं पीढ़ियों से जिस ढंग से समाज के अलग-अलग तबकों में गाई और सुनाई जा रही हैं...."
दरअसल यह टिप्पणी साहित्य के बुनियादी सरोकारों के प्रति एक अराजक दृष्टि की ही परिचायक है. कोई भी रचना, चाहे वह पूरी तरह से "आत्माभिव्यक्ति" क्यों न हो, अपने मूल में उसके प्रयोजन को समाए होती है. रचना के "क्यों" पक्ष का उत्तर इसमें निहित होता है. कविता लिख रहे हैं क्योंकि लिखनी है, प्रेम कर रहे हैं क्योंकि कुछ करना है. क्या यह सब शब्दों का खेल भर है? साहित्य शब्दों से बनता है, इस तथ्य को कोई भी जानता है, यानि कौन नहीं जानता? पर क्या सिर्फ़ शब्दों से? शब्दों का अर्थपूर्ण संयोजन रचनाकार के "स्वत्व" का प्रतिनिधित्व करता है या उसके परे जा कर किसी बड़ी सामाजिक सच्चाई का भी? एक वाक्य में रखूँ इस बात को, तो रचना का कार्यभार (प्रकार्य-function) क्या होता है?
ये प्रश्न मुझे बार-बार इसलिए मथते हैं कि इन दिनों कविता के संसार में ज़बर्दस्त सक्रियता दिखाई पड़ती है और उसी अनुपात में कविता-बाहुल्य से खीजे हुए टिप्पणीकारों की संख्या भी बढ़ती दिखाई देती है. कुछ लोग, इस परिघटना के परिणामस्वरूप इतने उग्र और परेशान दिखते हैं कि कविता उन्हें न केवल स्वयं उनके लिए बल्कि अन्य लोगों के लिए भी संकट दिखाई देती है. वैसे, इस सोच और निष्कर्ष वाले मित्रों की भी यह जिम्मेदारी तो बनती ही है कि वे स्पष्ट रूप से रेखांकित करें कि कौनसी कविता उनके व अन्य लोगों के लिए संकट बन गई हैं. यह इसलिए भी ज़रूरी है कि कविताएं रची जाती ही रहेंगी पर रचनाकारों को लोकमत की जानकारी तक न होगी. हम यदि कविता के पक्ष में खड़े हैं तो यह हमारा दायित्व बनता है कि कवि तक न केवल अपनी शिकायतें पहुंचाएं बल्कि उसे अपनी अपेक्षाओं से परिचित कराते हुए उसके कार्यभारों का स्मरण भी दिलाएं.
सवाल पुराने हैं. पर पुराने सवाल भी दोहराए ही जाने चाहिए, यदि वे आज भी प्रासंगिक हैं तो. ख़ासकर इसलिए कि उनके जो जवाब हमें विरासत में मिले, और जिन पर व्यापक सहमति भी बन चुकी थी, यदि आज भी विवादास्पद या गैर-ज़रूरी माने जाते हैं. चाहे एक ज़िद के तहत ही. सवाल जुड़ा है किसी भी रचनात्मक कर्म की प्रयोजनशीलता से. रचना क्यों की जाती है? क्या सिर्फ़ करने के लिए? या उसके माध्यम से हम कुछ हासिल करना चाहते हैं? कुछ मामलों में, अपने लिए. कुछ दूसरे मामलों में औरों के लिए, और तीसरी तरह के मामलों में अपने साथ-साथ औरों के लिए भी. यह सवाल आज फिर से उठाने का संदर्भ तो यह है कि कविता के सामाजिक प्रयोजन को रेखांकित करने की गरज़ से की गई एक टिप्पणी (जो एक लेख का हिस्सा थी) पर एक पत्रकार-कवि ने यह प्रति-टिप्पणी की :
"प्रेम कविताओं के सामाजिक साहित्यिक प्रयोजनों को समझने की ज़रूरत क्या है? किसी भी कविता के सामाजिक साहित्यिक प्रयोजन को समझने की ज़रूरत क्यों है? अगर है, तो भी ये कवि का काम नहीं है| ये काम उनका है जिन्हें ये लगता है कि ऐसी अप्रयोजनशील कविताओं से उनकी अपनी रचनाओं की पठनीयता पर असर पड़ रहा है| जहाँ तक कवि, कविता और समाज पर असर का सवाल है देश के कोने-कोने में अनाम कवियों की प्रेम रचनाएं पीढ़ियों से जिस ढंग से समाज के अलग-अलग तबकों में गाई और सुनाई जा रही हैं...."
दरअसल यह टिप्पणी साहित्य के बुनियादी सरोकारों के प्रति एक अराजक दृष्टि की ही परिचायक है. कोई भी रचना, चाहे वह पूरी तरह से "आत्माभिव्यक्ति" क्यों न हो, अपने मूल में उसके प्रयोजन को समाए होती है. रचना के "क्यों" पक्ष का उत्तर इसमें निहित होता है. कविता लिख रहे हैं क्योंकि लिखनी है, प्रेम कर रहे हैं क्योंकि कुछ करना है. क्या यह सब शब्दों का खेल भर है? साहित्य शब्दों से बनता है, इस तथ्य को कोई भी जानता है, यानि कौन नहीं जानता? पर क्या सिर्फ़ शब्दों से? शब्दों का अर्थपूर्ण संयोजन रचनाकार के "स्वत्व" का प्रतिनिधित्व करता है या उसके परे जा कर किसी बड़ी सामाजिक सच्चाई का भी? एक वाक्य में रखूँ इस बात को, तो रचना का कार्यभार (प्रकार्य-function) क्या होता है?
ये प्रश्न मुझे बार-बार इसलिए मथते हैं कि इन दिनों कविता के संसार में ज़बर्दस्त सक्रियता दिखाई पड़ती है और उसी अनुपात में कविता-बाहुल्य से खीजे हुए टिप्पणीकारों की संख्या भी बढ़ती दिखाई देती है. कुछ लोग, इस परिघटना के परिणामस्वरूप इतने उग्र और परेशान दिखते हैं कि कविता उन्हें न केवल स्वयं उनके लिए बल्कि अन्य लोगों के लिए भी संकट दिखाई देती है. वैसे, इस सोच और निष्कर्ष वाले मित्रों की भी यह जिम्मेदारी तो बनती ही है कि वे स्पष्ट रूप से रेखांकित करें कि कौनसी कविता उनके व अन्य लोगों के लिए संकट बन गई हैं. यह इसलिए भी ज़रूरी है कि कविताएं रची जाती ही रहेंगी पर रचनाकारों को लोकमत की जानकारी तक न होगी. हम यदि कविता के पक्ष में खड़े हैं तो यह हमारा दायित्व बनता है कि कवि तक न केवल अपनी शिकायतें पहुंचाएं बल्कि उसे अपनी अपेक्षाओं से परिचित कराते हुए उसके कार्यभारों का स्मरण भी दिलाएं.
`ऐसी अप्रयोजनशील कविताओं से उनकी अपनी रचनाओं की पठनीयता पर असर पड़ रहा है`...इस तरह की बातें एक तरह का पलायन या फिर लुंपनिज़्म है। यह उसी शोर की अगली कड़ी है जो बात-बात में विचार की निरर्थकता का हल्ला मचाती है। लोकप्रियता के तर्क को कभी ढाल की तरह और कभी डंडे की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
ReplyDeleteसाहित्यिक सरोकार जाहिर है कि सामाजिक सरोकारों से अभिन्न हैं। अगर कोई सुंदर सी प्रेम कविता है और वह रिलेशनशिप के किसी विमर्श में नहीं जा रही है तो भी उसमें एक किस्म का निर्दोष सुच्चापन तो होगा ही। ऐसा नहीं है तो वह एक बीमार उच्छवास भी हो सकता है, वह सुंदर भी लग सकती है और उसके प्रशंसक भी बड़ी संख्या में हो सकते हैं।
`तीसरी कसम` कहानी और फिल्म की सुंदरता भी उसकी इनोसिटी में, उसके सुच्चेपन में ही है वर्ना उसमें क्रिटिकलिटी की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं। `देवदास` पर भी पतनशीलता का आरोप आसानी से लगाया जा सकता है लेकिन उसमें कुछ और भी है जिसके सहारे शरत की उस कथा को और बिमल राय की उस फिल्म को महान दर्जा हासिल होता है।
सामाजिक सरोकारों का जो दबाव प्रगतिशील आंदोलन ने पैदा किया था, उससे मुक्ति की राह के लिए तर्क गढ़ना आज और भी आसान है।
अगर लोकमत की बात की जाए तो प्रम अंधा होता है बहुत प्रचलित औऱ मान्य है तो क्या प्रेम कविताओं को भी अंधा होना चाहिए?
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