सवाई सिंह शेखावत की गिनती राजस्थान के वरिष्ठ कवियों में होती है. कवियों के बीच प्रिय कवि के रूप में भी. रचनात्मक रूप से अत्यंत सक्रिय, किंतु ऐसे साधक के रूप में जो विशेष आग्रह पर ही दृश्यमान जगत में अवतरित होते हैं. इनके अब तक ६ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिन्हें खासी सराहना भी प्राप्त हुई है. राजस्थान साहित्य अकादमी से दो बार पुरस्कृत-सम्मानित सवाई सिंह की कविता देखने में बेहद सरल लगती है पर ध्यान से पढ़े जाने पर अर्थ की कई परतें खुलने लगती हैं और जीवनानुभव की संश्लिष्टता उद्घाटित होने लगती है. इसे विडंबना ही कहा जाएगा या हम जैसे लोगों की काहिली और कोताही भी कि सवाई सिंह शेखावत जैसे महत्त्वपूर्ण कवि को राजस्थान के बाहर वह पहचान, स्वीकार्यता और सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वह भरपूर हकदार हैं अपनी कविता के बूते पर.
यहां उनकी नौ छोटी कविताओं से आपका परिचय करते हुए मुझे खुशी हो रही है. कविताओं के विषय इस बात की गवाही देते हैं कि सवाई सिंह शेखावत की दृष्टि जहां-जहां पड़ती है वहां-वहां उन्हें कविता का कच्चा माल मिल जाता है. लगता ही नहीं कि उन्हें कोई अतिरिक्त प्रयास करना पड़ा है.
ज़रूरी चीज़ों के बारे में
कितना कुछ जानने के गुमान में
कितना कम जानते हैं हम
जीवन से जुड़ी ज़रूरी चीज़ों के बारे में
जैसे मुफ्त की हवा सेंत का पानी
चुकाया मोल तो याद आई नानी
पानी की हानि में फिर-फिर बूड़े दूबरे
बस खेले खाये ऊबरे
कल ऐसा ही कुछ हवा को लेकर हुआ
तो हम क्या करेंगे
जी लेंगे फिर भी जिस-तिस तिकड़म से
या केवल घुट मरेंगे ?
शब्द के अवमूल्यन पर
कितना निष्करुण समय है
ज़रूरतन नहीं महज शौक़ के लिए
हम शामिल होते हैं शब्दों के पतन में
बिना किसी खेद के
भाषा की दुनिया में जगह बनाने के लिए
सोपान से शिखर तक जाने के लिए
विकट साधना करनी पड़ती है शब्द को
बहुत कठिन और जोखिम भरी है यह यात्रा
एक-एक क़दम तौल कर रखना पड़ता है
कितने खंदक मुंह बाए खड़े हैं राह में
“भाषा का नेक नागरिक होने के लिए
हम किसी शब्द की रीढ़ न बन पाएं
कोई हर्ज़ नहीं
लेकिन एक अच्छे खासे शब्द को
गर्त में धकेलने का हक़ हमें नहीं है
शब्दों की दुनिया में
कल फिर एक हादसा हुआ
जब चैनल वालों ने एक गुंडे को
बाहुबली कहकर पुकारा
मुझे सख्त एतराज़ है
शब्द के अवमूल्यन पर
हमारे सुनने का ऐब
हमारे सुनने का बुनियादी ऐब है
हम अक्सर ऊँचा सुनते हैं
नर्म मुलायम आवाज़ों को तवज्जो नहीं देते
जीवन की कोमल तानों को अनसुना करते हैं
जब कि मानुष होने के लिए
उनका सुना जाना ज़्यादा ज़रुरी है
सुनने की कोशिश में
हम नहीं सुनते मनुष्य की रुलाई
हम शब्दों की गूंज सुनते हैं या आक्रामक हँसी
भूतपूर्व सुनते है या फिर महान भविष्य में
हमारा सुनना समकाल में नहीं होता
(बावजूद तमाम उद्घोषणाओं के)
याद रखने की जुगत में हम भुलाने को सुनते हैं
ठोस सुनते हैं मगर आड़ा-तिरछा
सूधा नहीं सुनते सयानप और बाँकपने से रहित
चुप से बचकर सुनते हैं और एक चीख़
हमें खींच लेती है गुरुत्वाकर्षण की तरह
हमारे सुनने में देश है और दुनिया भी
लेकिन अपने ही मुहल्ले की आवाज़ नहीं है
हम हड़बड़ी में सुनते है या फिर सतर्क होकर
सहज मिली खुशी की तरह नहीं सुनते
हमारे सुनने में शामिल हैं कुछ चुस्त जुमले
सीधी सरल बातें हमें बोदी लगती हैं और दयनीय भी
एक कामयाब चालू आदमी को हम आदरपूर्वक सुनते हैं
एक असफल आदमी को सुनते हैं उपहास की तरह
सुनने के विमर्श को लेकर
हम कितना ही गंभीर होने का नाट्य करें
अपने तमाम संजीदापन के बावजूद
हम सुनते हैं मतलब की यारी की
जबरे की सुनते हैं या जरदारी की ।
यहां उनकी नौ छोटी कविताओं से आपका परिचय करते हुए मुझे खुशी हो रही है. कविताओं के विषय इस बात की गवाही देते हैं कि सवाई सिंह शेखावत की दृष्टि जहां-जहां पड़ती है वहां-वहां उन्हें कविता का कच्चा माल मिल जाता है. लगता ही नहीं कि उन्हें कोई अतिरिक्त प्रयास करना पड़ा है.
ज़रूरी चीज़ों के बारे में
कितना कुछ जानने के गुमान में
कितना कम जानते हैं हम
जीवन से जुड़ी ज़रूरी चीज़ों के बारे में
जैसे मुफ्त की हवा सेंत का पानी
चुकाया मोल तो याद आई नानी
पानी की हानि में फिर-फिर बूड़े दूबरे
बस खेले खाये ऊबरे
कल ऐसा ही कुछ हवा को लेकर हुआ
तो हम क्या करेंगे
जी लेंगे फिर भी जिस-तिस तिकड़म से
या केवल घुट मरेंगे ?
शब्द के अवमूल्यन पर
कितना निष्करुण समय है
ज़रूरतन नहीं महज शौक़ के लिए
हम शामिल होते हैं शब्दों के पतन में
बिना किसी खेद के
भाषा की दुनिया में जगह बनाने के लिए
सोपान से शिखर तक जाने के लिए
विकट साधना करनी पड़ती है शब्द को
बहुत कठिन और जोखिम भरी है यह यात्रा
एक-एक क़दम तौल कर रखना पड़ता है
कितने खंदक मुंह बाए खड़े हैं राह में
“भाषा का नेक नागरिक होने के लिए
हम किसी शब्द की रीढ़ न बन पाएं
कोई हर्ज़ नहीं
लेकिन एक अच्छे खासे शब्द को
गर्त में धकेलने का हक़ हमें नहीं है
शब्दों की दुनिया में
कल फिर एक हादसा हुआ
जब चैनल वालों ने एक गुंडे को
बाहुबली कहकर पुकारा
मुझे सख्त एतराज़ है
शब्द के अवमूल्यन पर
हमारे सुनने का ऐब
हमारे सुनने का बुनियादी ऐब है
हम अक्सर ऊँचा सुनते हैं
नर्म मुलायम आवाज़ों को तवज्जो नहीं देते
जीवन की कोमल तानों को अनसुना करते हैं
जब कि मानुष होने के लिए
उनका सुना जाना ज़्यादा ज़रुरी है
सुनने की कोशिश में
हम नहीं सुनते मनुष्य की रुलाई
हम शब्दों की गूंज सुनते हैं या आक्रामक हँसी
भूतपूर्व सुनते है या फिर महान भविष्य में
हमारा सुनना समकाल में नहीं होता
(बावजूद तमाम उद्घोषणाओं के)
याद रखने की जुगत में हम भुलाने को सुनते हैं
ठोस सुनते हैं मगर आड़ा-तिरछा
सूधा नहीं सुनते सयानप और बाँकपने से रहित
चुप से बचकर सुनते हैं और एक चीख़
हमें खींच लेती है गुरुत्वाकर्षण की तरह
हमारे सुनने में देश है और दुनिया भी
लेकिन अपने ही मुहल्ले की आवाज़ नहीं है
हम हड़बड़ी में सुनते है या फिर सतर्क होकर
सहज मिली खुशी की तरह नहीं सुनते
हमारे सुनने में शामिल हैं कुछ चुस्त जुमले
सीधी सरल बातें हमें बोदी लगती हैं और दयनीय भी
एक कामयाब चालू आदमी को हम आदरपूर्वक सुनते हैं
एक असफल आदमी को सुनते हैं उपहास की तरह
सुनने के विमर्श को लेकर
हम कितना ही गंभीर होने का नाट्य करें
अपने तमाम संजीदापन के बावजूद
हम सुनते हैं मतलब की यारी की
जबरे की सुनते हैं या जरदारी की ।
पुराने जूते
पुराने जूते सुखद और उदार हैं
किसी पुराने आत्मीय की तरह
अपना विन्यास और अकड़ भूल कर
वे पाँवों के अनुरूप ढल जाते हैं
इतने अपने इतने अनुकूल
गंदले होकर ही कमाई जा सकती है
जीवन की मशक्कत भरी तमीज़
यह केवल जूते जानते हैं
नये जूते बेशक चमचमाते शानदार हैं
लेकिन जीवन की आवश्यक विनम्रता
उन्हे पुराने जूतों से सीखनी पड़ती है
कहते हैं "गेटे" को पुराने जूते छोड़ते हुए
बहुत तकलीफ होती थी
प्रिय पुरखे को दफ़नाने की तरह
एक कवि को पुराने जूतों की तरह
आत्मीय और उदार होना चाहिए
केवल तभी उसकी कविता बचा सकती है
जीवन को कंटीले धूल-धक्कड़ से
झुलसती धूप से ठिठुरते शीत से
दिल्ली
कितनी नई है
और पुरानी भी यह दिल्ली
हर हमलावर रुख़ किये हुए
दिल्ली की ओर
जिधर भी दिखें
कसी हुई जीन
सजे हुए घुड़सवार
वह रास्ता जाता है
दिल्ली की तरफ़
हज़रत निजामुद्दीन औलिया ने
फ़रमाया था-‘अभी दूर है दिल्ली’
मुझे मालूम नहीं कोई पहुँचा या नहीं
जो रवाना हुए थे दिल्ली के लिए
इतिहास में एक भी उदाहरण दर्ज़ नहीं
दिल्ली अभिशप्त है
दिल्ली नहीं पहुँचने के लिए
फिर भी हर सुबह
आदमी करता है कूच
दिल्ली के लिए
दियासलाई
आदमी की ईजादों में
दुर्लभतम ईजाद है दियासलाई
वह भक् से जलती है उजाले में
और हो जाती है ओझल
आदमी कब सीखेगा जीना
क्षण की त्वरा में
अमरता के रास्ते
मुझे क्षमा करें महत्जन
मेरी क्षुद्रताओं के लिए
मैं झुकता हूं घुटनों के बल
मामूली प्रार्थनाओं में
और मांगता हूं विराट ईश्वर से
केवल मामूलीपन
कि मैं न थकूं आदमी के होने से
बचे रहें आदमी में
भय और शर्म
घृणा और प्रेम
उसका सर्द-गर्म खून
उसकी बेसब्री इरादे उसके
उसकी देह में ढला इस्पात
अमरता के तमाम रास्ते
जाते हैं उधर से
प्रेम में
प्रेम करते पुरुष के लहू में
चीखते हैं भेड़िये
उग आती हैं दाढ़ें
पंजे और नाखून
प्यार में पुरुष बेतरह गुर्राता है
हाँफता है कांपता है
और शिथिल हो जाता है
प्रेम करने की कला
केवल स्त्री जानती है
वह बेसुध भीगती है
प्रेम की बारिश में
फिर कीलित कर देती है उस क्षण को
देखी है कभी ग्लेशियर से फूटती
पीन उज्ज्वल जल-धार
एक स्त्री ही गुदवा सकती है
अपने वक्षस्थल पर
अपने प्रेमी का नाम
नीले हरफ़ों में
मैं फिर लौटूंगा
मैं फिर लौटूंगा
इस पृथ्वी पर सहस्राब्दियों बाद
किसी उजले धूप भरे दिन में
हाथों में लिए मामूली विकल्प
एक अदद कविता का शिल्प
उठा हुआ सिर अवकाश में
सुस्ताता हुआ शिरीष के वृक्ष तले
कोई दिलचस्पी नहीं होगी
मुझे दुनिया को जीतने के बारे में
दसों दिशाओं में
और अन्त तक
हिम्मत न हारने के बारे में
मैं फिर लौटूंगा
स्थगित करते हुए
अन्तिम ऊंचाई
महान् प्रस्ताव
जिन्होंने मुश्किल बनाया दुनिया को
और काफ़ी ऊल-जलूल भी
धड़कता होगा जीवन
अपने अनिवार्य स्पंदन में
मेरे चहुँ ओर
मांगता हुआ अपने होने का हक़
लेकिन मैं तज चुका हूंगा
अपने होने का अधिकार
पुराने जूते सुखद और उदार हैं
किसी पुराने आत्मीय की तरह
अपना विन्यास और अकड़ भूल कर
वे पाँवों के अनुरूप ढल जाते हैं
इतने अपने इतने अनुकूल
गंदले होकर ही कमाई जा सकती है
जीवन की मशक्कत भरी तमीज़
यह केवल जूते जानते हैं
नये जूते बेशक चमचमाते शानदार हैं
लेकिन जीवन की आवश्यक विनम्रता
उन्हे पुराने जूतों से सीखनी पड़ती है
कहते हैं "गेटे" को पुराने जूते छोड़ते हुए
बहुत तकलीफ होती थी
प्रिय पुरखे को दफ़नाने की तरह
एक कवि को पुराने जूतों की तरह
आत्मीय और उदार होना चाहिए
केवल तभी उसकी कविता बचा सकती है
जीवन को कंटीले धूल-धक्कड़ से
झुलसती धूप से ठिठुरते शीत से
दिल्ली
कितनी नई है
और पुरानी भी यह दिल्ली
हर हमलावर रुख़ किये हुए
दिल्ली की ओर
जिधर भी दिखें
कसी हुई जीन
सजे हुए घुड़सवार
वह रास्ता जाता है
दिल्ली की तरफ़
हज़रत निजामुद्दीन औलिया ने
फ़रमाया था-‘अभी दूर है दिल्ली’
मुझे मालूम नहीं कोई पहुँचा या नहीं
जो रवाना हुए थे दिल्ली के लिए
इतिहास में एक भी उदाहरण दर्ज़ नहीं
दिल्ली अभिशप्त है
दिल्ली नहीं पहुँचने के लिए
फिर भी हर सुबह
आदमी करता है कूच
दिल्ली के लिए
दियासलाई
आदमी की ईजादों में
दुर्लभतम ईजाद है दियासलाई
वह भक् से जलती है उजाले में
और हो जाती है ओझल
आदमी कब सीखेगा जीना
क्षण की त्वरा में
अमरता के रास्ते
मुझे क्षमा करें महत्जन
मेरी क्षुद्रताओं के लिए
मैं झुकता हूं घुटनों के बल
मामूली प्रार्थनाओं में
और मांगता हूं विराट ईश्वर से
केवल मामूलीपन
कि मैं न थकूं आदमी के होने से
बचे रहें आदमी में
भय और शर्म
घृणा और प्रेम
उसका सर्द-गर्म खून
उसकी बेसब्री इरादे उसके
उसकी देह में ढला इस्पात
अमरता के तमाम रास्ते
जाते हैं उधर से
प्रेम में
प्रेम करते पुरुष के लहू में
चीखते हैं भेड़िये
उग आती हैं दाढ़ें
पंजे और नाखून
प्यार में पुरुष बेतरह गुर्राता है
हाँफता है कांपता है
और शिथिल हो जाता है
प्रेम करने की कला
केवल स्त्री जानती है
वह बेसुध भीगती है
प्रेम की बारिश में
फिर कीलित कर देती है उस क्षण को
देखी है कभी ग्लेशियर से फूटती
पीन उज्ज्वल जल-धार
एक स्त्री ही गुदवा सकती है
अपने वक्षस्थल पर
अपने प्रेमी का नाम
नीले हरफ़ों में
मैं फिर लौटूंगा
मैं फिर लौटूंगा
इस पृथ्वी पर सहस्राब्दियों बाद
किसी उजले धूप भरे दिन में
हाथों में लिए मामूली विकल्प
एक अदद कविता का शिल्प
उठा हुआ सिर अवकाश में
सुस्ताता हुआ शिरीष के वृक्ष तले
कोई दिलचस्पी नहीं होगी
मुझे दुनिया को जीतने के बारे में
दसों दिशाओं में
और अन्त तक
हिम्मत न हारने के बारे में
मैं फिर लौटूंगा
स्थगित करते हुए
अन्तिम ऊंचाई
महान् प्रस्ताव
जिन्होंने मुश्किल बनाया दुनिया को
और काफ़ी ऊल-जलूल भी
धड़कता होगा जीवन
अपने अनिवार्य स्पंदन में
मेरे चहुँ ओर
मांगता हुआ अपने होने का हक़
लेकिन मैं तज चुका हूंगा
अपने होने का अधिकार
नर्म मुलायम आवाज़ों को तवज्जो नहीं देते
ReplyDeleteजीवन की कोमल तानों को अनसुना करते हैं
जब कि मानुष होने के लिए
उनका सुना जाना ज़्यादा ज़रुरी है
बेहतरीन रचनाएं पढ़ने को मिलीं ...आभार
कविताओं में एक सुलझे हुए बुजुर्ग की सादगी , समझदारी और तजर्बे के तासीर है.
ReplyDelete'' 'हम शामिल होते हैं शब्दों के पतन में/
बिना किसी खेद के' . 'हम सुनते हैं मतलब की यारी की'
जबरे की सुनते हैं या जरदारी की' 'एक कवि को पुराने जूतों की तरह/
आत्मीय और उदार होना चाहिए' 'हज़रत निजामुद्दीन औलिया ने
फ़रमाया था-‘अभी दूर है दिल्ली’/
मुझे मालूम नहीं कोई पहुँचा या नहीं/
जो रवाना हुए थे दिल्ली के लिए'....यादगार पंक्तियाँ हैं. आप का आभार.
सवाई सिंह शेखावत हमारे महत्वपूर्ण कवि हैं.विविधता और रंग विषय में भी तो भाषा में भी ;उनकी ताकत हैं.आशुतोषजी ने एकदम सही लिखा कि"कविताओं में एक सुलझे हुए बुजुर्ग की सादगी , समझदारी और तजर्बे के तासीर है."हाँ..... मैं न थकूं आदमी के होने से...कहता कवि नहीं थकेगा,यह बात उनकी कविता को चाहने वाला पाठक यकीनन जानता हैं.
Deleteसवाई सिंह शेखावत हमारे महत्वपूर्ण कवि हैं.विविधता और रंग, विषय में भी तो भाषा में भी ;उनकी ताकत हैं.आशुतोषजी ने एकदम सही लिखा कि"कविताओं में एक सुलझे हुए बुजुर्ग की सादगी , समझदारी और तजर्बे के तासीर है."हाँ..... मैं न थकूं आदमी के होने से...कहता कवि नहीं थकेगा,यह बात उनकी कविता को चाहने वाला पाठक यकीनन जानता हैं.
ReplyDeleteसवाई सिंह शेखावत हमारे महत्वपूर्ण कवि हैं.विविधता और रंग, विषय में भी तो भाषा में भी ;उनकी ताकत हैं.आशुतोषजी ने एकदम सही लिखा कि"कविताओं में एक सुलझे हुए बुजुर्ग की सादगी , समझदारी और तजर्बे के तासीर है."हाँ..... मैं न थकूं आदमी के होने से...कहता कवि नहीं थकेगा,यह बात उनकी कविता को चाहने वाला पाठक यकीनन जानता हैं.
ReplyDeleteसवाई सिंह जी की कवितायेँ पढ़ने में चाहे सहज-सरल हों, किन्तु कविताओं में गहराई है.निसंदेह वे अपनी पीढ़ी के अच्छे कविओं में से है. राजस्थान की हिंदी कविता के साथ न्याय नहीं हुआ,हिंदी कविता में विजेंद्र, ऋतुराज और नन्द किशोर आचार्य के बाद किसी अन्य कवि की चर्चा नहीं हुई, इसके लिए राजस्थान के आलोचक भी जिम्मेदार है, वे बाहर के चर्चित कवियों की तो चर्चा करते रहते है किन्तु कभी अपने प्रदेश के कविओं की चर्चा नहीं करते है. यदि कभी कोई कवि ये सवाल करता है तो उसे संकीर्ण विचार का माना जाता है.
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