कैसी अजीब बात है कि साल जब शुरू होता है तो बड़े-बड़े मंसूबे होते हैं, सपने होते हैं, संकल्प होते हैं जो इस 'नए' को महत्वपूर्ण बनाते हैं, हमारे लिए. साल जैसे-जैसे बीतता जाता है, हम सपनों, मंसूबों , संकल्पों से लगभग बेखबर-से, लगे रहते हैं कुछ अर्थ और सार्थकता देने में, अपने जीवित होने की क्रिया और तथ्य को. होता चलता है, कुछ चाहा हुआ, और बहुत कुछ ऐसा भी जो अप्रत्याशित होता है.धूप-छांह, सुख-दुःख, आंसू-मुस्कान, जय-पराजय, उतार-चढ़ाव, यानि इस तरह के विपरीत-बोधी जोड़ों में ही, हमारे दैनंदिन जीवनानुभवों से साक्षात्कार होता चलता है. ज़रूरी नहीं कि दोनों विपरीतार्थी अनुभव साथ-साथ होते हों. ख़ास बात यह है कि एक के होने के अनुभव में ही, जो अनुपस्थित है उसकी छाया, आशंका, प्रत्याशा का भी निरंतर अहसास बना रहता है. और हम अक्सर पाते हैं कि मुस्कानों के पीछे दर्द छिपा होता है या कहिए कि कोई ग़म होता है जिसे छिपाने के लिए मुस्कान का कवच धारण कर लेते हैं. कुछ पा जाते हैं तो उसे खो देने की आशंका 'पाने' के सुख को पनियल बना देती है.
कल एक और साल अतीत से जुड़ जाएगा. कई अर्थों में अच्छा व अन्य कई अर्थों में बहुत बुरा साल रहा है यह. निजी तौर पर यह मिला-जुला-सा रहा है.
मुझे फेसबुक से जुड़े भी कल एक साल पूरा हो जाएगा. कैसा रहा? काफ़ी दूर तक सार्थक. बहुत अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलीं. बहसें भी खूब हुईं. मित्र मिले. 2200+ की संख्या पर न भी जाऊं, तो भी भरे-पूरे संतोष और प्रसन्नता के भाव से कह सकता हूं कि वैचारिक और भावनात्मक स्तरों पर जुड़ने वाले मित्रों की संख्या भी "और-क्या-माँगा-जा-सकता-है?"वा ली श्रेणी में ही आ जाता है, कुल मिलाकर लगता है कि सामूहिक प्रयत्न से इसे कहीं बेहतर माध्यम में तब्दील किया जा सकता है जहां साहित्य, समाज, विचार आदि के अंतर्संबंधों को रेखांकित करते जाते हुए, एक नई "शब्द और विचार संस्कृति" विकसित की जा सकती है. संगठित और चौकस प्रयत्न किए जाने की ज़रूरत की अनदेखी न की जाए तो, निजी तौर पर मुझे इस माध्यम से बहुत उम्मीदें हैं. एकदम नई पीढ़ी के रचनाकारों ने जैसी "धमाकेदार एंट्री" मारी है साहित्य जगत में, वह आशा और उम्मीद की लौ को तेज़ करती है. बेशक, इनमें तमाम रचनाकार परिपक्वता और रचनाकौशल की दृष्टि से बराबर न खड़े हों, पर ऐसा तो हमेशा होता है. यह न तो चिंता की बात है, और न निराशा पैदा करने वाली. गौर से देखें तो इनमें भी दो श्रेणियाँ हैं : पहली में वे मित्र हैं जो अपनी रचनाशीलता की सम्मानजनक पहचान बना चुके हैं, और दूसरी में वे जो उन तमाम संभावनाओं को व्यक्त करते हुए आए हैं कि अगले साल-दो साल में वे भी पहली श्रेणी में शामिल तो हो ही जाएंगे, इसके शीर्ष पर भी पहुंच सकते हैं. सुख देने वाली बात यह है कि पहली और दूसरी श्रेणियों के रचनाकारों में आम तौर पर कोई प्रकट अमैत्री दिखाई नहीं पड़ती. परस्पर-सहयोग और प्रोत्साहन का भाव दिखता है, साफ़-साफ़. ब्लॉगों के माध्यम से तथा एक-दूसरे की रचनाएं फेसबुक पर साझा करके भी इस काम को बखूबी अंजाम दिया जा रहा है.
प्रसंग ब्लॉगों का आ निकला है, तो लगे हाथ यह कहता चलूं कि मनोज पटेल "पढते-पढते" के ज़रिए अद्भुत और अभूतपूर्व काम कर रहे हैं, श्रेष्ठतम विश्व कविता के शानदार अनुवादों के माध्यम से हिंदी-पाठकों को समृद्ध कर रहे हैं. मिशनरी उत्साह एवं प्रतिबद्धता के साथ. लगभग हर सुबह उनके किसी अनुवाद के साथ होना हमारे लिए भी आदत-सी बन गई है. अरुण देव का "समालोचन", प्रभात रंजन का "जानकीपुल" और अशोक कुमार पांडेय के "असुविधा", "जनपक्ष", अपर्णा मनोज का "आपका साथ साथ फूलों का" ऐसे ब्लॉग हैं जिन पर हर तीसरे दिन कोई न कोई बेहद महत्वपूर्ण पोस्ट देखने-पढ़ने को मिल जाती है. अशोक जहां रचना और विचार दोनों पर सामग्री साझा करते हैं, वहीं बाक़ी तीन ब्लॉगों पर रचना- समीक्षा पर ध्यान अधिक दिखता है. ये तीनों ब्लॉग इस मायने में एक-दूसरे से जुड़े हुए भी लगते हैं कि एक पर आई रचना अक्सर दूसरे पर साझा करली जाती है, ब्लॉग के स्तर पर चाहे नहीं, पर फ़ेसबुक पर तो अधिकांशतः.फ़ेसबुक पर सक्रिय हर कवि का अपना ब्लॉग है, पर उनकी कविताएं क्योंकि बिना लिंक के फ़ेसबुक पर आ जाती हैं, वहीं देख ली जाती हैं. मेरा ब्लॉग "सोची-समझी" तो इतना नया है कि शायद किसी के पास इसके बारे में कहने को ज़्यादा कुछ न हो, फिर भी मुझे इतना संतोष अवश्य है कि पांच महीने के भीतर ही क़रीब सौ समर्थकों को इसने अपने साथ जोड़ लिया है. विजय गौड़, महेश पुनेठा, विमलेश त्रिपाठी, लीना मल्होत्रा, हेमा दीक्षित, अजेय कुमार, नील कमल, संतोष चतुर्वेदी, रामजी तिवारी, अंजू शर्मा, कल्पना पंत, और बाबुषा अपने ब्लॉगों के ज़रिए अच्छा काम कर रहे हैं. फ़र्क़ कम-ज़्यादा का हो सकता है, या कहें 'डिग्रीज़' का.
कविता की मृत्यु की न जाने कितनी बार घोषणाएं हो चुकी हैं, पर यह खुश करने वाली स्थिति है कि कविता न केवल जीवित है, बल्कि उसकी सेहत भी बहुत अच्छी है. मृत्यु-प्रतिरोध-क्षमता भी. मृत्यु की घोषणाओं से वह अवसाद में नहीं आ जाती बल्कि अपनी पूरी ताक़त का अहसास करा देती है. पिछले दिनों जिन्होंने भी अरुण देव, अशोक कुमार पांडेय, अपर्णा मनोज, आवेश तिवारी, लीना मल्होत्रा, वंदना शर्मा, महेश पुनेठा, बाबुषा, ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस, प्रदीप सैनी, विमलेन्दु द्विवेदी की एकाधिक कविताएं पढ़ी हैं, वे मेरी बात से सहमत होंगे. जब भी नाम गिनाने की बात आती है तो कुछ मित्र इस पर छींटाकशी भी करते ही हैं - कि सूचियां बन रही हैं, कि गिरोह्बंदियां हो रही हैं आदि आदि. यह सब तो चलेगा ही. यह तब भी चलता है जब जल्दी ही अपना मुक़ाम बना लेने वाले कवियों की ( अभी जो ठीक-ठाक ढंग से दस्तक दे रहे हैं जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता) बात चलती है, तब भी इस तरह की मरमराहट सुनाई पड़ती है. मैं इसे दोनों तरफ़ से अस्वाभाविक नहीं मानता. मैं कविता के एक पाठक (आलोचक चाहे नहीं) की हैसियत से कविताओं से गुज़रता हूं तो अनायास ही एक मूल्यांकन की प्रक्रिया से भी गुज़र रहा ही होता हूं, और यदि मैं अपने कर्म के प्रति संजीदा और निष्ठावान हूं तो मुझे अपने महसूस हुए को कहना भी चाहिए, बिना इस बात की परवाह किए कि यह कुछ लोगों को नाग़वार गुज़र सकता है. ऐसे में सिर्फ़ फैज़ को याद कर लेता हूं जो पहले ही इशारा कर गए कि "सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र" तक न हो वह बात भी कुछ लोगों को "नाग़वार गुज़र" सकती है. अगले साल जिन संभावनाशील कवियों पर सब से ज़्यादा नज़र रहेगी उनमें रामजी तिवारी, हेमा दीक्षित, अंजू शर्मा के नाम बिना किसी झिझक के लिए जा सकते हैं. क़तार में खड़े लोगों में महिलाओं की संख्या अधिक है, यह कहना भी पक्षपातपूर्ण माना जा सकता है. वास्तव में है नहीं. यह आश्वस्तिकारक परिघटना है, इस अर्थ में और भी अधिक कि वे चौका-चूल्हे को साधते हुए कविता भी लिख रही हैं, और यह मांग भी नहीं करतीं कि उनके लिए कोई अलग कसौटी हो मूल्यांकन की. एक और मित्र शहबाज़ ने अकेली कविता "औरंगज़ेब" के आधार पर उम्मीद जगाई है. इस सूची में मैंने जान-बूझ कर विमलेश त्रिपाठी का नाम नहीं लिया है, सिर्फ़ इसलिए कि वह एक बहु-पुरस्कृत, बहु- सम्मानित कवि हैं, जिनकी पहचान को सभी तरह के कविता-केन्द्रों/ प्रतिष्ठानों से स्वीकार्यता प्राप्त है. वह घोषित रूप से मनुष्यता को बचाने के लिए कविता को प्रतिश्रुत हैं. वैसे मैं समझता हूं हर भरोसेमंद (खरा) कवि अपनी तरह से, अपने ढंग से इसी काम में संलग्न होता है. कविता का काम ही मनुष्यता को बचाना तथा किसी भी तरह के संकट की स्थिति में उसे संबल प्रदान करना होता है. यह अलग बात है कि कुछ कवि मनुष्यता को नष्ट करनेवाली शक्तियों की सिलसिलेवार पड़ताल भी करते हैं, और इस उपक्रम में राजनीति, अर्थव्यवस्था तथा समाज में सक्रिय विभिन्न विघटनकारी शक्तियों की कारगुज़ारियों पर भी न केवल नज़र रखते हैं, बल्कि इन्हें व इनसे जुड़े प्रश्नों को कविता का विषय भी बनाते हैं. कुछ दूसरे कवि प्रेम को बचाए-बनाए रखकर मनुष्यता को बचाने के उद्यम में लगे हैं. ज़ाहिर है, प्रेम सामाजिकता का, सामूहिकता का केन्द्रक होने के नाते महत्वपूर्ण तो है ही. शोषण और दमन पर आधारित वर्ग-भेदी व्यवस्था को बदलने का सपना देखने वाले भी तो "प्रेम" और करुणा के वशीभूत ही ऐसा जतन करते हैं. यहां प्रेम और सपने के एक-दूसरे से जुड़े होने को भी रेखांकित किया ही जाना चाहिए. प्रेम और सपने की स्वभावगत-स्वरूपगत भिन्नता हो सकती है : कि कहीं यह 'निजी' है और कहीं 'सार्विक'. यह दूसरी बात है कि उत्तर-आधुनिक व्याख्याकार स्वप्न, स्मृति और यथार्थ सबका अंत घोषित कर चुके हैं.
फ़ेसबुक पर पिछले पांच महीने कमोबेश भ्रष्टाचार-उन्मूलन और अन्ना आंदोलन पर तीखी वैचारिक बहसों के भी रहे हैं. इस बहस के भी दो स्तर रहे. एक समूह उन लोगों का था जो अतिसरलीकृत तरीके से आंदोलन पर आने वाले विचारों को देख रहे थे, इसलिए बिना कोई देर किए ऐसे तमाम लोगों को भ्रष्टाचार समर्थक घोषित कर रहे थे जो आंदोलन के सूत्रधारों और प्रायोजकों के वर्गीय चरित्र के चलते उससे जुड़ नहीं पा रहे थे या उसकी कार्यपद्धति व भाव-भंगिमा का विरोध कर रहे थे. कुछ लोग तो बहसों के दौरान इतनी जल्दबाज़ी में थे कि वे ऐसे लोगों की राष्ट्रभक्ति को भी प्रश्नांकित कर रहे थे. बहस में शरीक लोगों का दूसरा स्तर उन मित्रों से निर्मित होता था जो इस आंदोलन के अंतर्विरोधों से बाखबर होते हुए भी इसे मिल रहे जन-समर्थन के कारण इससे जुड़ने की ज़रूरत को रेखांकित कर रहे थे. बहरहाल, मुझे तकलीफ़ उन लोगों से नहीं थी जो "बुशवादी" रवैया अख्तियार कर रहे थे, या लगभग तिनका-तोड़ स्थिति में पहुंच गए थे. इनमें से अधिकांश के साथ सिर्फ़ फेसबुकी संबंध थे (यद्यपि इनमें से कुछ के साथ संबंधों में गर्मास भी थी, आत्मीयता का ताप भी था), इसलिए तिनका-तोड़कता कोई ख़ास अखरी भी नहीं. अपने वैचारिक समानधर्माओं में से दो के साथ जो असहमतियां बनीं, चलीं - इस बात ने कष्ट ज़रूर दिया, पर ताज्जुब की बात है कि यहां फेसबुक पर बनी वैचारिक मित्रता जीत गई और पुराने निजी वैचारिक संबंध हार गए, और उस तरफ़ से तो ठंडापन शून्य से न जाने कितनी डिग्रीज़ नीचे चला गया है. शायद वक़्त ही समझ को साफ़ करे.
मेरा यह मानना है कि इस वैकल्पिक संवाद माध्यम का इस्तेमाल विवेकपूर्ण तरीक़े से किया जाए तो यहां परस्पर समृद्धिकारी संबंधों की गुंजाइश अकूत है. अपना सोच, अपना कृतित्व न केवल साझा करने की बल्कि तुरत प्रतिक्रिया प्राप्त करने की स्थिति अन्य किसी माध्यम पर नहीं बनती. एक रचना दस पाठकों को भी आकृष्ट करले और सात में से दो टिप्पणियां भी काम की लगें तो रचनाकार के भविष्य की दृष्टि से भी अर्थवान साबित होंगी ही.
मैं इस अर्थ में बहुत सौभाग्यशाली मानता हूं अपने आपको कि यहां में इतने सारे लोगों को खुद से जोड़ पाने में सफल रहा. और परिवार के एक बुज़ुर्ग कि सी हैसियत बना दी मित्रों ने मेरी. निजी तौर पर मैं अपने लिए हितकारी मानता हूं पिछले साल में जो सद्भावना मैंने अर्जित की है, उसकी ताक़त पर मैं अपने आपको समुचित ऊर्जा से भरा हुआ पाता हूं, मुझे खुशी है कि इस उम्र में भी मेरी सक्रियता को मित्र सकारात्मक रूप में ग्रहण कर रहे हैं. यह कहने का मतलब यह क़तई नहीं लिया जाए कि मुझसे असहमत, नाराज़ लोग मेरी फेसबुकी मित्र-सूची में नहीं हैं. हैं, इसका न केवल मुझे अहसास है, बल्कि मैं ज़ुबानी उनकी सूची भी पेश कर सकता हूं. ऐसे मित्रों से यही कहना काफ़ी होगा कि हर आलोचना के पीछे कोई ''वैयक्तिक मोटिव" तलाशना बंद कर दें, तो शायद मेरी टिप्पणियों को सही अर्थों में ग्रहण कर पाएंगे, और तब मैत्री भाव के अतिरिक्त उन्हें कुछ नहीं दिखेगा. क्योंकि होता भी नहीं. हां, अपनी एक कमजोरी ज़रूर साझा कर लूं : मुझे ठकुर-सुहाती नहीं आती. मैं किसी भी सूरत में मुंह देखकर टीका नहीं कर सकता.
निजी/ पारिवारिक स्तर पर यह साल कष्टकारी/व्ययकारी ही रहा. अस्पतालों से जुड़ाव खूब रहा. पत्नी के दो बड़े ऑपरेशन हुए, सात महीनों के अंतराल से. दो घनिष्ठ मित्रों को खोया. एक से तो पैंतालीस साल पुराने आत्मीयताभरे, भाई-जैसे, संबंध थे. रसायन विज्ञान के लोकप्रिय प्राध्यापक थे. दूसरे के साथ संबंध पुराने नहीं थे, पर आत्मीयता सघन थी. इनके साथ तो अभी तीन महीने पहले अस्पताल घर-जैसा हो गया था.
काल की मार साहित्य-कला के क्षेत्रों पर भरी ही रही इस साल. श्रीलाल शुक्ल गए, कुबेर दत्त गए और अभी हाल ही में प्रसिद्ध जन-पक्षधर कवि अदम गोंडवी चले गए. संगीत के क्षेत्र में भी ऐसी ही बेहद दुखी करने वाली क्षतियां हुईं. जगजीत सिंह गए, भूपेन हज़ारिका गए, और सुल्तान खान गए. फिल्म जगत पर भी करारी मार पड़ी काल की. पहले शम्मी कपूर गए, और अभी हाल ही में, चार पीढ़ियों के चहेते देव आनंद चले गए. देव साब न केवल कभी न थकने-थमने वाले अभिनेता, निर्माता-निर्देशक ही थे, बल्कि प्रखर बौद्धिक भी थे. आपात काल के खिलाफ खुल कर बोलने वाली अकेली फ़िल्मी हस्ती !
तो कल समाप्त हो जाने वाला यह साल जैसा भी रहा, उम्मीद करें, कामना करें कि आनेवाला साल बेहतर दुनिया बनाने के लिहाज़ से बेहतर साल होगा.
ऐसी साफ़गोई और सादगी पर 'कौन न मर जाए..' !
ReplyDeleteआपके ब्लॉग से हमेशा ही कुछ ना कुछ अर्जित करती हूँ आज भी कुछ नए कवियों और कुछ नए ब्लोग्स के बारे में जाना जिन्हें पढ़कर आनंदानुभूति तो होगी ही बहुत कुछ नया सीखने को मिलेगा ऐसी आशा है |
ReplyDeleteविवाद और मनुष्य तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं | यदि हम अपना कार्य निष्ठा से करें तो संतुष्टि ही हमारा पारितोषिक और प्रेरणा है | यह मेरी धारणा है | आपकी निष्ठा को मेरा नमन |
प्रभु से प्रार्थना है कि वर्ष २०१२ आपके और आपके परिवार के लिए शुभ और मंगलमय रहे और सभी स्वस्थ एवं आनंद से रहें |
आपका लेख पढ़कर याद आया यूँ तो फेसबुक से जुड़े मुझे भी साल होने वाला है पर यहाँ सक्रियता को अभी आठ माह ही हुए हैं, इन महीनों में एक एक कदम बढ़ाते हुए हर कदम पर आपको एक स्वस्थ आलोचक, एक संवेदनशील कवि और लेखक और इन सबसे बढ़कर युवा प्रतिभा के लिए एक ऐसे मार्गदर्शक की भूमिका में पाया है, जिनसे निसंकोच हम न केवल अपनी कविता या लेख शेयर कर सकते हैं बल्कि हर मुश्किल, चाहे वो कविता की किसी पंक्ति पर संशय हो या लेखन में आये दिन हो रही जद्दो-जहद से उभरना हो, में सदा ही साथ खड़ा पाते हैं, मैंने पहले भी लिखा था, आज फिर लिख रही हूँ, जैसे संयुक्त परिवार में एक मुखिया अपने दायित्व को पूरी तन्मयता से निभाता है, वैसे ही इस फेसबुक परिवार के अग्रणी मुखिया के तौर पर हम आपको पाते हैं, बीते साल में कैसा भी विवाद हो या प्रोत्साहन का अवसर आप अपनी भूमिका से कभी भी पीछे नहीं हटे, वक़्त पड़ने पर कभी नर्म हुए तो कभी सख्त किन्तु मैंने हमेशा जाना कि आपकी बात अंतिम होती है हम सबके लिए.....मेरे लिए साल की सबसे बड़ी उपलब्धियों में सबसे ऊपर हम लोगों के सर पर आपका आश्वासन भरा आशीष और मार्गदर्शन रहा है.....इसे यूँ ही बनाये रखियेगा......
ReplyDeleteआपने जिस सकारात्मक उर्जा और बेबाकी से फेसबुक पर साल 2011 जिया है , वह हम सबके लिए अनुकरणीय है....अपनी बातो को बेबाकी से कहना, दूसरे को खोजकर पढ़ना और राय देना , अपना स्वतंत्र और जन पक्षधर स्टैंड लगातार कायम रखना , जैसी बाते हम सब आपसे लगातार सीखते रहे...हम उम्मीद करते है कि आपकी मित्रता हमें भी एक बेहतर आदमी बनने में मदद करेगी ....
ReplyDeleteगुजरते हुए साल का आकलन करते हुए आपने जो यहाँ लिखा है वह केवल आप ही लिख सकते हैं। तीखा और सटीक विश्लेषण। यह मुँह देखी प्रशंसा नहीं है। मैं लगभग एक वर्ष से आपको यहाँ देख रहा हूँं। शायद ही आपकी कोई पोस्ट या कमेंट रहा हो जो मैंने नहीं पढ़ा ,यह दूसरी बात है कि बहुत कम बार मैं अपनी राय वहाँ दर्ज कर पाया। मैंने पाया कि आपकी टिप्पणी न केवल गम्भीर होती हैं बल्कि बेवाक भी। आपके मन में जो आया या आपने जो सोचा वही लिखा। सामने वाला उसको किस रूप में लेगा आपने इस बात की कभी परवाह नहीं की। आज की यह पोस्ट भी उसका ही उदाहरण है। ऐसा साहस बहुत कम लोगों में होता है। कम से कम मुझ में तो नहीं है।
ReplyDeleteआपकी सक्रियता तो लाजबाव है। किसी युवा की सक्रियता तो स्वाभाविक है पर आप जैसे बुजुर्ग अपवाद ही होंगे। उम्र के इस पड़ाव में तमाम व्यस्तताओं और परेशानियों के बावजूद भी आप यहाँ से बहुत कम अनुपस्थित रहे होंगे और न ही कोई टिप्पणी चलताऊ अंदाज में की होगी। यह मानना ही पड़ेगा कि आप उन लोगों में से हैं जो इस माध्यम का प्रयोग मनोरंजन या समय व्यतीत करने के रूप में नहीं करते बल्कि सामाजिक दायित्व के निर्वहन के माघ्यम के रूप में करते रहे हैं। वैकल्पिक मीडिया की तर्ज में आप इस माध्यम का प्रयोग करते आए हैं जो अनुकरणीय है। आपसे सीखने को मिलता है कि माध्यम कोई अच्छा-बुरा नहीं होता है प्रश्न है कि उसका प्रयोग कैसे और किन उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
आने वाले सालों में भी आपकी यह सक्रियता हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी ,यह आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है। नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाओं के साथ..........।
साल बीतने पर लिखा यह आलेख अपने आप में एक दस्तावेज़ बन गया है...बुजुर्ग तो आप हैं ही..अभिभावक से...देवताले जी को दादा कहता हूँ...आपको भी कहने की इच्छा हो आई...दादा प्रणाम...साल मुबारक...
ReplyDelete:-)
ReplyDeleteRegards.
- Baabusha
बहुत ही रोचक और यथार्थपरक विश्लेषण..
ReplyDeleteइण्टरनेट पर आप की टिप्पणियों और प्रतिक्रियाओं ने हम यवाओं को वर्ष भर बहुत सम्बल दिया . आप ने हमारी छोटी मोटी कोशिशों को बहुत गम्भीरता और संलग्नता ( इंवॉल्वमेंट कहना चाह रहा हूँ ) के साथ पढ़ा और जैसा कि महेश पुनेठा कह रहे हैं , तपाक से उनपर टिप्पणी की , खरी और सुच्ची . बिना कोई केल्क्युलेशंज़ किए , बिना किसी एजेण्डे के . ऐसा कोई बुज़ुर्ग हिन्दी वाला आज की तारीख मे नही करता दीखता . न किताबों और पत्रिकाओं मे , न वेब जगत में , न ही मंचों और चेनलों पर . सब जगह मित्रताएं निभाई जारही हैं , निजी हित साधे जा रहे हैं . प्रायोजित कार्यक्रम च्ल रहे हैं . आप हैं तो महसूस होता है, बल्कि उम्मीद जगती है कि और भी होंगे ....और यह उम्मीद हमे हताशा से उबारे रखती है. थेंक्स सर !
ReplyDeleteअच्छा वैचारिक विश्लेषण ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा आकलन किया!सच और सच के सिवा कुछ नहीं!आप के सारे कमेंट्स पढे!आपके कमेन्ट हिम्मत देते हैं और साथ ही रौशनी भी दिखाते हैं !आपके ब्लाग पर जो पढा वोह आपकी शक्सियत का आइना है!निहायत सच्ची, बेबाक और साफ़ शक्सियत के मालिक हैं आप!जवां पीढ़ी की रहनुमाई करते हैं! साल में जो कड़वे मीठे तजुर्बे हुए वोह मैं सोचती हूँ जिंदगी का हिस्सा है और वही हमें बेहतर इंसान बनाते हैं ,जो कि आपसे एक ही बार मिल कर अनुभव हो गया था रही कविता की बात ! कविता तो जज़्बात से जुडी होती है कोई अच्छे सलीके से उसे बयां कर लेता है किसी के पास अंदाज़े बयां नहीं है पर जज़्बात हैं पर यह फेसबुक सबको अपनी बात कहने का मौका देती है ..अच्छा माध्यम है ..सो फेसबुक और फेसबुक के दोस्तों का भी आभार है ! और आपका तो बहुत बहुत शुक्रिया क्योंकि आप एक ऐसी रौशनी हैं जो बहुत से लोगों को अपना सही रास्ता ढूंढने में मददगार है ! आप जैसे लोग ऊपर वाले कि टकसाल में बहुत कम बनते हैं ..जियो भाई
ReplyDeleteमोहन सर,भौतिक दूरियों के बावजूद आपकी टिप्पणियों से हमें बहुत बल मिलता है.सामीप्य की उष्मा मिलती है. चाहे ब्लॉग हो,अपनी कविता हो,या अन्य कोई बात,हम आपका इन्तजार करते रहते हैं.किसी अपने आत्मीय का इन्तजार जो अभी-अभी आयेगा और बेझिझक बताएगा की हकीकत क्या है? सहमति-असहमति का जो स्पेस आपके यहाँ उपलब्ध है वह आज कहाँ,कितना और किसके पास है.जिस समय में छोटी छोटी महत्वाकांक्षाओं को लेकर तमाम उठा पटक चल रही हो उस समय में मोहन सर का होना हमारे लिए सचमुच आश्वस्ति से भरा हुआ है.
ReplyDeleteसच कहूँ तो आपकी सक्रियता से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है. अनेकानेक परेशानियों में फंसे होने के बावजूद आप जिस तरीके से सक्रिय रहे वह हम सबके लिए एक मिसाल है.
नववर्ष की असीम शुभकामनाओं सहित!
आपका
संतोष
मेरा कमेन्ट हमेशा कहाँ गायब हो जाता है :(
ReplyDelete"कविता का काम ही मनुष्यता को बचाना तथा किसी भी तरह के संकट की स्थिति में उसे संबल प्रदान करना होता है."
ReplyDeleteसत्य!
ऐसी ही कई सुन्दर बातें...सूक्ति से वाक्य... आपके इस आलेख को विशिष्ट बना रहे हैं... बीते पल के लेखे-जोखे खूब समेटे हैं... यह एक ऐसा पन्ना बन पड़ा है... जो समय समय पर सदा पलटा जाएगा... सोची समझी पर!!!
नव वर्ष की ढ़ेर सारी शुभकामनाएं...
आपका आशीर्वाद हम सब पर बना रहे... इश्वर आपको सुख और आरोग्य प्रदान करें!
सादर चरणस्पर्श!
अनुपमा
आपकी गरिमामयी उपस्थिति सदैव ही हमें एक सकारात्मक रचनात्मक उर्जा से भर देती है आपके एक शब्द मात्र का सानिध्य भी हमें समृद्ध करने की सामर्थ्य रखता है मैंने आपके साथ अपने खजाने को सदैव उतरोत्तर वृद्धिमान पाया है और स्वयं को पहले से कही बेहतर और सोद्देश्य .... आपकी उम्मीदों पर खरी रहूँ और अपनी प्रतिबद्धताओं पर कायम रहूँ इस नव वर्ष पर स्वयं से इसी कामना के साथ चलूँ ....
ReplyDeleteदृष्टि की परिधि भले ही एक मानव सीमा तक रह जाए पर आपके अंतरभेदी आभास ने बहुत प्रभावित किया। वैयक्तिक अनुभव को आपने सामाजिक अनुभूति बना कर एक श्रेयस्कर रचना ही लिख डाली - यह आपकी शब्द-साधना कि गुरुता का प्रमाण है।
ReplyDeleteअभिभूत हुआ पढ़कर! ऐसा बेबाक,बेलाग,सुस्पष्ट फिर भी आत्मीय लगने वाला लेख ! बहुत सुन्दर ढंग से पिछले साल के अपने अनुभवों को रेखांकित किया आपने ! अगले साल के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ !
ReplyDeleteगुजर गये वर्ष और जाते हुए साल के दिनों के बावजूद आपके आलेख की ताजगी जिन कारणों से कायम है उसका एक ही कारण नजर आता है कि आपकी सक्रियता चौंकाने वाली है। काश, बहुत से दूसरे बुजुर्ग और आदरणीय भी इस माध्यम की सकारात्मकता पर सोचते तो---।
ReplyDeleteआभार सर आपका बहुत-बहुत। आपने अच्छी पड़ताल की है। आप खुद भी सक्रिय हैं और यह लेख आपकी सक्रियता को द्योतक है...। फिलहाल इतना ही कह रहा हूं...। बहरहाल आपको बहुत-बहुत बधाई....
ReplyDeleteBAHUT SUNDER LIKHA HAI AAPNE. AAPKO BHI BAHUT -BAHUT BADHAI ..........
ReplyDelete४-५ दिनों के लिए भी नेट से दूर रहने पर कितना-कुछ महत्वपूर्ण छूट जाता है. यह पोस्ट आज पढ़ सका. आप से इतना भावनात्मक जुड़ाव हो चुका है कि कभी लगता ही नहीं कि हम आप से दूर हैं या कभी मिले ही नहीं. फेसबुक और ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियों/ प्रोत्साहन ने हमें बहुत हिम्मत और दिशा दी है. आपका बहुत-बहुत आभार सर... हमारे बीच यूं ही बने रहिएगा, आपकी बहुत जरूरत है हम सबको...
ReplyDelete:)
ReplyDeleteआपने बहुत मन और मेहनत से विश्लेषण किया है सा. हैट्स आफ. शायद बड़े होने के नाते यह आपका कर्तव्य व आपकी नज़रों से गुजरे लेखक मित्रों का हक था. नया साल आपको और अधिक ऊर्जावान बनाए.. बहुत शुभकामनाएं.
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