Thursday, 15 December 2011

मनुष्यता के सवाल बनाम राजनीति के सवाल

पिछले दिनों कई मित्रों को नागार्जुन की कविता-पंक्ति " दक्षिण हो या वाम/जनता को रोटी से काम" की याद कुछ ज़्यादा ही आती रही है. स्मरणीय है कि नागार्जुन ने यह कविता सत्तर के दशक के मध्य में, जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन के दौरान, लिखी थी. नागार्जुन जनता के प्रति अपने लगाव एवं जुड़ाव के चलते आंदोलन के बीचोबीच खड़े थे. सार्वजनिक सभाओं के दौरान वह मंच पर इस कविता के साथ-साथ अन्य कविताएं भी नाचकर-गाकर सुनाते थे. यह दूसरी बात है, कि आंदोलन की सफलता-स्वरुप केंद्र में सत्ता-पलट के बाद, इस आंदोलन की विसंगतियां भी उनकी समझ में आ गईं, और उन्होंने भूल-सुधार के रूप में "खिचड़ी विप्लव देखा हमने" जैसी कविता भी लिख डाली. इस बात का श्रेय नागार्जुन को दिया जाना चाहिए कि उन्हें जब-जब भी लगा कि जनता के आदमी के रूप में उन्होंने यथार्थ को सही ढंग से नहीं समझा, तो उन्होंने तुरंत भूल-सुधार भी किया, कविता के माध्यम से. ऐसा उन्हें एकाधिक बार करना पड़ा क्योंकि भावना में बह कर, या कहिए जन-ज्वार से आह्लादित होकर वह ऐसा कुछ कर/लिख बैठते थे जो उनकी घोषित-पोषित विचारधारा से मेल नहीं खाता था. भारत-चीन युद्ध के दौरान भी ऐसा हो चुका था. इसका एक कारण कदाचित यह भी था कि उनकी जन-पक्षधरता इतनी प्रबल और प्रचंड थी कि राजनीतिक मूड्स उनकी विचारधारा से टकरा जाते थे और तात्कालिक रूप से विचारधारा गौण हो जाती थी. लेकिन कुल मिलाकर नागार्जुन की प्रतिष्ठा इससे अप्रभावित ही रहती थी क्योंकि ग़लत उठे क़दम को वह जल्दी से जल्दी दुरुस्त भी कर लिया करते थे. सब जानते थे कि इस सब में न तो स्व-हित होता था, न चालाकी, और न अवसरवादिता ही. यह प्रसंग इन दिनों क्यों उठा? और क्यों मैं इसे यहां ला रहा हूं? अन्ना-आंदोलन का द्वितीय संस्करण आते ही कुछेक "मनवादी" ('मनुवादी' नहीं) मित्रों को इसमें मनुष्यता के सवाल दिखाई देने लगे. और सूत्र यह दिया गया कि जब मनुष्यता के सवाल राजनीतिक सवालों से बड़े दिखने लगें, तो राजनीतिक आग्रहों को छोड़ कर, मनुष्यता के सवालों के पक्ष में खड़ा हो जाना चाहिए, यानि आंदोलन में शामिल न भी हों तो उसके समर्थन में जरूर खड़ा हो जाना चाहिए (कहना न होगा कि यह जुमला अत्यंत "जादुई" और "चमत्कारिक" लगता है). और चूंकि भाकपा और माकपा अन्ना के मंच पर विराजमान हो गए हैं, तो अब तो कोई रोक भी नहीं है आंदोलन को सही मानने के रास्ते में! कैसा तर्क है यह? अपनी बात को बल दे रहे हैं राजनीतिक पार्टियों के आ जाने से, और हवाला दे रहे हैं मनुष्यता के सवालों का !!!

यह इलहाम कहां से हुआ कि मनुष्यता के सवाल राजनीतिक सवाल नहीं होते? या इसका उलट कि राजनीतिक सवाल मनुष्यता के सवाल नहीं होते? मार्क्सवाद से जिस किसी का हल्का सा भी परिचय है, वह यह जानता है, या उसे जानना चाहिए कि मनुष्य से जुड़े किसी भी क्षेत्र के सवाल अराजनीतिक नहीं होते. समाज के केंद्र में मनुष्य है, और समाज व्यवस्था के आधार (अर्थव्यवस्था) और अधिरचना (धर्म, संस्कृति, साहित्य, राजनीति, नैतिकता, विचारधारा आदि) से जुड़े तमाम सवाल मनुष्यता के सवाल हैं. इस तरह के प्रश्न उठाना या तो निरी नादानी का परिणाम है, या फिर बौद्धिक चालाकी का. जहां-जहां से ये स्वर उभरे हैं, मैं आश्वस्त हूं कि मामला चालाकी का उतना नहीं है जितना मासूमियत का. यह दूसरी बात है कि उम्र-दराज़ लेखकों-आलोचकों को इतना मासूम भी नहीं होना चाहिए. रोटी का सवाल भी कम राजनीतिक नहीं है. कपड़ा और मकान का भी. ग़रीबी रेखा का भी. भ्रष्टाचार का भी क्यों नहीं? और ये सारे सवाल मनुष्यता के सवाल भी हैं, पूरी तरह से.

यह देखना कम दिलचस्प नहीं होगा कि मनुष्यता के ये सवाल पिछले साठ वर्षों में राजनीतिक नारों के रूप में उछाले गए. सत्ता पाने और उसमें बने रहने के लिए सीढ़ी बनाया गया नारों में निहित इन मुद्दों को. नतीजा? वह तो सबके सामने है. किसी भी तरह का भ्रष्ट आचरण व्यक्ति की नैतिक गिरावट का द्योतक तो है ही, क़ानूनी अपराध भी है. मनुष्यता का अवमूल्यन और अवमानना भी है यह. बिना राजनीतिक सरपरस्ती के यह फल-फूल नहीं सकता. विषमता को बढ़ावा देने वाली सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के चलते यह नीति वाक्यों या सदाचार की दुहाई देने भर से यह दूर नहीं हो सकता. सख्त क़ानूनों की दुहाई देने वालों को गौर करना चाहिए इस बात पर कि एक ही क़ानून को आधार बनाकर दो वकील न्यायालय में अपने-अपने मुवक्किल की पैरवी करते हैं. ज़ाहिर है, इन दो में से एक पक्ष ग़लत होता है, अपराधी होता है, दोषी होता है, पर क्या अनिवार्यतः दोषी को सजा मिल जाती है? क़ानून और न्यायालय समता को प्रतिश्रुत होने के बावजूद (सत्यमेव जयते के उद्घोष के बावजूद) क्या प्रभु वर्ग के पक्ष में झुकाव नहीं दर्शाते, व्यवहार में? व्यवस्था-जन्य दोष व्यवस्था-परिवर्तन के बिना दूर नहीं किए जा सकते.

मैंने अभी कुछ दिन पहले ये प्रश्न साझा किए थे. मित्रों की प्रतिक्रियाएं भी आईं, पर एक मुक़म्मिल तस्वीर नहीं उभर पाई. सो मुझे इन प्रश्नों के साथ एक ठीक-ठाक सी भूमिका जोड़ देना भी उपयुक्त लगा, ताकि सही संदर्भ उपलब्ध होने पर बात को सही ढंग से समझा जा सके.

क्या राजनीति के सवाल मनुष्यता के सवाल नहीं होते? सही और ग़लत राजनीति का फ़र्क़ करने की कसौटी क्या मनुष्यता-केंद्रित नहीं होती? क्या मनुष्यता के प्रश्न पर दक्षिण और वाम में कोई भेद नहीं होता? दक्षिणपंथी राजनीति को मनुष्यता के सवालों के बहाने समर्थन देना क्या हद दर्ज़े का अवसरवाद या निरी नासमझी नहीं है? जो पार्टियां कुछ भी न कर पाने की वजह से अपराध-बोध-ग्रस्त बैठी थीं, उनका अति-उत्साहित होकर आंदोलन के ट्रक पर सवार हो जाना क्या मनुष्यता के प्रति अपने सरोकार का स्मरण हो आना है? या यह सिर्फ़ अपने अप्रासंगिक हो जाने के भय से उत्प्रेरित क़दम है? पराजित मन को किसी बाहरी शत्रु की ज़रूरत होती है क्या?

6 comments:

  1. बहुत-बहुत आभार सर इस पोस्ट के लिए. बहुत प्रभावशाली और तर्कपूर्ण ढंग से आपने हमारे वामपंथी मित्रों के हालिया वैचारिक विचलन की पड़ताल की है.

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  2. सर, आपने बहुत बुनियादी सवाल उठाए हैं और तकलीफ यह है कि हमारे वामपंथी मित्रों को बुनियादी चीजों से आजकल बड़ी चिढ़ होती है, वे भी तदर्थवाद में काम चला रहे हैं... यह तदर्थवाद बहुत खतरनाक स्‍तर पर जा रहा है और दुर्भाग्‍य से इसकी गंभीरता को कोई नहीं समझ रहा।

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  3. "यह सिर्फ़ अपने अप्रासंगिक हो जाने के भय से उत्प्रेरित क़दम है।" मनुष्यता का सवाल सब कुछ है।

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  4. अन्तिम वाक्य बहुत कुछ कह जाता है।

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  5. masoomiyat aur chalaki men ya phir moorkhta men kaii baar jyada antar nahi haota. andolan ke sath jane ke sath uske har siyah-safed ko sahee thahrane kee koshish kya hai?
    Ek mitr ne kisi sandarbh men kaha ki falan kavita marxwad ko manushyta se otprot kar degi. mujhe aschry hua ki kya ve kisi manushyta vihin marxwad men uljhe the? Manushy kee mukti ka sangharsh hi to marxwad ka janak raha. Anna ke samarthan men ajeebogareeb tark saamne laaye jaa rahe hain.

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  6. नागार्जुन की बताई जाने वाली यह पंक्ति सचमुच उन की ही या नहीं , कोई नहीं जानता. बहरहाल , निवेदन यह है कि यहाँ आशय यह नहीं है कि राजनीति और मनुष्यता में कोई फांक है या वामपंथी दक्षिणपंथी रोटी में कोई फरक नहीं है. इशारा यह है कि भूख के सवाल को हल करने की संजीदा कोशिश न हो तो वाम और दक्षिण में अन्तर करने का कोई मतलब नहीं रह जाता. मेरी समझ में तो यहाँ राजनीति और मनुष्यता के बीच के गहन अंतर्संबंध को ही रेखांकित किया जा रहा है. तानाशाही और भ्रष्टाचार के खिलाफ जन -आन्दोलन में शरीक होना गलत नहीं कहा जा सकता , न बाद में उस की विफलता को रेखांकित करना.गलती तो यही थी कि वाम के एक धड़े ने आपातकाल को अपना समर्थन दिया .अगर वाम ने उस आंदोलन में शामिल हो कर निर्णायक भूमिका में आने की कोशिश की होती , तो उस की भिन्न परिणति भी हो सकती थी.

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