Monday, 19 December 2011

अकेले में तो संभव नहीं है मुक्ति...

इतने चुनौती भरे समय में
इतने अचेत या कहिए
हत-चेतन
रह कर कैसे जी पाएंगे?

सोने लगता हूं तो घंटियों की
ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है
क्रमशः दूर से पास आती हुई.
एक पल के लिए लगता है
दरवाजे के एक दम बाहर
तक आ पहुंची है.
दस्तक में बदल जाती है
अचानक.

ताज्जुब इस बात का है
कि इस बीच यह कभी हूटर की
तो कभी एम्बुलेंस के सायरन की
तो कभी मंदिर की घंटियों की ध्वनि में
तब्दील होती रही है. समझ से
एक दम परे हो जाती है
यह अदला-बदली. अभी
दो दिन पहले तो हद ही हो गई जब
तोप के गोलों की आवाज़ में
बदल गईं घंटियों, हूटर
और सायरन की आवाज़ें.

पसीने आ जाने के लिए काफ़ी
नहीं होता क्या इतना सब?
और आज?
दस्तक की ठक-ठक सुनकर
उठने की कोशिश पूरी भी नहीं
हो पाई थी कि आवाज़ें
लौटती-सी लगने लगीं.
दूर और दूर बहुत दूर
जाती हुई.
और फिर? हर दिन की तरह
आज भी
ऐसा सन्नाटा पसरने लगा
कि घंटियों की, और तमाम तरह की
आवाज़ें
और दस्तक की खटखट
उतनी डरावनी नहीं लगीं
जितना यह सन्नाटा.

सन्नाटा मौत का भी होता है
षड्यंत्रों के रचे जाते समय भी
सन्नाटा ही तो बुना जा रहा होता है.
कहते हैं तूफ़ान के पहले भी
सन्नाटा ही पसरता है सब ओर....

आवाज़ें अकेलेपन को धकेल देती हैं
पीछे.. सन्नाटा इसे गहरा देता है.
नींद जो लगभग
उतर आई थी आंखों में
पलकों को बोझिल बनाती हुई
अब जैसे सदा-सर्वदा के लिए
गायब हो गई है.
मन में तमाम तरह की आशंकाएं
सिर उठाने लगती हैं.
भीतर अपने ही भीतर
एक निश्शब्द संवाद
या कहूं वाद-विवाद शुरू हो जाता है.
उत्तेजना इतनी सभी स्वरों में
कि घंटियों, हूटरों और एम्बुलेंसी ध्वनियों की
छाया भीतर के तर्क-वितर्कों पर
महसूस कर सकता हूं.

और इस सबके चलते-चलाते
नींद आ ही गई थी शायद. शायद
इसलिए कि अभी तक
सारी चेतना बावस्ता थी सुनने से
अब केंद्रित हो गई दृश्यों पर
दृश्य जो सपने के भीतर थे
और में आधा बाहर सपने के
और आधा भीतर.

कोई जुलूस जैसी शक्ल
हाथों में तख्तियां पूरे खुले हुए मुंह
माथे पर लाल पट्टा
जैसा कुछ साल पहले
टीवी के पर्दे पर देखा था
बार-बार पत्रिकाओं में भी. ज़्यादातर
नौजवान चेहरों पर डरावने भाव
लिए. दृश्य परिवर्तन ...
शायद भीतर की सिहरन को
भांपते हुए.

बड़ी जन सभा मंच पर कितने ही चेहरे
गड्डमड्ड होते हुए
किसी महिला का सिर पुरुष के धड पर
और इसका उलट भी
सिर्फ़ तिरंगा
दायें से बाएं लहराया जाते हुए
पहचानी कुछेक चीज़ों में से एक....

और फिर यकायक कारों का हुजूम
एक दम नई
जैसे अभी-अभी निकल रही हों कारखाने से
रास्ते में आड़े लेटे हुए सैकड़ों लोग
सड़क के दोनों ओर खड़े हुए
पढ़े-लिखे-दिखते-से
युवाओं के हाथों की कसी हुई
मुट्ठियां. दूसरी ओर से हमलावर
मुद्रा में ट्रकों से उतरते
हथियार-सज्जित खाकी ही खाकी
रंग का सैलाब ....
मैं हडबडाकर उठता हूं
गला सूखा धूजती देह
माथे पर पसीना.
सहज प्रकृतिस्थ होना चाहने भर से
हो क्या सकता है. वक़्त लगता है
लगेगा.

संकल्प जैसा कुछ लेता हूं
सुबह उठकर
कोशिश करूंगा
मिलाने की सारे बिखरे तारों को
चर्चा करूंगा समानधर्माओं से
ऐसे समय में
मिल-बैठकर ही निकाले
जा सकते हैं कोई निष्कर्ष
चुना जा सकता है कोई रास्ता
बनाई जा सकती है कोई
रणनीति. रणनीति जो
बदले इन हालात को....

अकेले तो कुछ नहीं हो सकता
मुक्ति? क़तई नहीं. हमारे युग का बड़ा
कवि पहले ही कह गया है
मुक्ति अकेले में संभव नहीं.
और उसके 
भी पहले 
दुनिया का सबसे बड़ा विचारक
जो दार्शनिकों का काम
दुनिया को बदलना मानता था
कि मुक्ति अकेले में संभव नहीं.

मुक्ति के लिए जो मरने को
बताते हैं अनिवार्य
वे मुक्ति का अर्थ ही नहीं समझते.
मुक्ति तो सामूहिक होती है
समूचे समाज की. एक साथ
और वैसी ही मुक्ति वरेण्य है
मेरे लिए भी जब भी हो
जैसे भी हो.

18 comments:

  1. मुक्ति के लिए जो मरने को
    बताते हैं अनिवार्य
    वे मुक्ति का अर्थ ही नहीं समझते.
    मुक्ति तो सामूहिक होती है
    समूचे समाज की. एक साथ
    और वैसी ही मुक्ति वरेण्य है
    मेरे लिए भी जब भी हो
    जैसे भी हो....
    बहुत गहरी बात है यह... हर उस आवाज़ को यह बात आत्मसात करने की जरुरत है जो सोचता है की मुक्ति एकल है ,समूचे समाज का बदला हुआ स्वरुप ही सही मायने मै मुक्ति हे

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  2. क्या बात है सर ,मुक्ति तो सामूहिक होती है / अकेले मुक्ति भी नहीं चाहिए /स्वर्ग या नरक सभी के साथ /...... ,जो कबीरा काशी मरे रामहि कौन निहोर...मगहर में रहेगे , बहुत खूब मुक्ति के लिए जो मरने को
    बताते हैं अनिवार्य
    वे मुक्ति का अर्थ ही नहीं समझते.
    मुक्ति तो सामूहिक होती है
    समूचे समाज की. एक साथ
    और वैसी ही मुक्ति वरेण्य है
    मेरे लिए भी जब भी हो
    जैसे भी हो.

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  3. सहज प्रकृतिस्थ होना चाहने भर से
    हो क्या सकता है. वक़्त लगता है
    लगेगा.
    मुक्ति तो सामूहिक होती है
    समूचे समाज की. एक साथ
    और वैसी ही मुक्ति वरेण्य है
    मेरे लिए भी जब भी हो
    जैसे भी हो.
    सही में ये बेचैन मानसिकताएं कितने गहरे उपजतीं हैं कितना कचोटती हैं .और किस कदर जरुरी हैं कविता बखूबी जताती चलती है ..सादर- हार्दिक बधाई मोहन सर..

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  4. जिन्हें अकेले मुक्त होने की इच्छा है, वे अक्सर दूसरों की गुलामी का स्वप्न देखते हैं...

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  6. गहरे मन्थन और जीवन संघर्ष से उपजी बेहद सार्थक कविता-"अकेले तो कुछ नहीं हो सकता
    मुक्ति? क़तई नहीं ...मुक्ति तो सामूहिक होती है
    समूचे समाज की. एक साथ
    और वैसी ही मुक्ति वरेण्य है
    मेरे लिए भी जब भी हो
    जैसे भी हो.."

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  7. अकेले तो कुछ नहीं हो सकता
    मुक्ति? क़तई नहीं. हमारे युग का बड़ा
    कवि पहले ही कह गया है
    मुक्ति अकेले में संभव नहीं.
    और उसके भी पहले
    दुनिया का सबसे बड़ा विचारक
    जो दार्शनिकों का काम
    दुनिया को बदलना मानता था
    कि मुक्ति अकेले में संभव नहीं....

    कविता ने अंतरात्मा को झकजोर दिया है, मुक्ति की कामना व्यर्थ है, यदि उससे स्वार्थ जुड़ा हो, सामूहिक मुक्ति, पुरे समाज की मुक्ति द्वारा ही बदलाव संभव है.....अनुमान लगाना कठिन है, किन्तु इतना तो समझा जा सकता है कि आपके अंतर्मन में उठ रहे कितने झंझावातों का परिणाम है यह अभिव्यक्ति.....और इस दौर में किस मानसिक संघर्ष से गुजर रहे हैं आप......
    कुछ कर गुजरने की तमन्ना, कुछ न कर पाने की कसक, अजीब कशमकश में गुजरी जा रही है जिंदगी.......
    इन हालत में हर गुजरता पल आशा से भरा तो होता है, पर कुछ नहीं कर पाना भीतर तक सालता है, हालात जब अपने बस से बाहर हो तो बेबसी और कुछ कर गुजरने की साध ही ऐसी अभिव्यक्ति का कारण बनती है, जब इंसान अपने स्व से ऊपर उठकर समूह की बात करता है.....आपको और आपकी सोच को सादर नमन.........

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  8. पूरी कविता एक चलचित्र की तरह चलती है और अंत में एक गंभीर प्रश्न छोडती है जो चिंतन करने को बाध्य करता है.. सशक्त अभिव्यक्ति

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  9. चुना जा सकता है कोई रास्ता ... बनायीं जा सकती है कोई रणनीति .... निश्चित ही सर आपकी यह कविता समानधर्मियो को एक आवाहन और चुनौती दोनों ही एक साथ प्रस्तुत करती है.एक गहन चिंतना और वास्तविक सामूहिक चेतना का बोध ही किसी सही राह को चयनित और इंगित करा सकता है ... ऐसी प्रेरणाएँ देने हेतु आपका आभार और आपको सादर बधाई ...

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  10. अकेले की मुक्ति समाज से कट कर स्वयं को सभी मानवीय संवेदनाओं से काट लेना है ,सूख कर ठूँठ हो जाना है जो कि आत्महत्या जैसा ही है क्योंकि हम अकेले हैं ही नहीं , हम हैं मनुष्य परंपरा ,एक दूसरे से गुंथे -बिंधे ! बहुत अर्थ-गाम्भीर्य लिए हुए है रचना ! इस बिखरते हुए समय में सबको जोड़ने की प्रेरणा देती हुई इस कविता के लिए आभार !

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  11. मुक्ति तो सामूहिक होती है
    समूचे समाज की. एक साथ
    और वैसी ही मुक्ति वरेण्य है
    मेरे लिए भी जब भी हो
    जैसे भी हो.
    इसी लिए तो बेचैन है यह कवि. आभार सर!!

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  12. is kavita par kuchh vakyon main kahana kavita or kavi ke sath anyay hoga....fursat milane par main is kavita par kabhi vistar se likhunga...yahna vahi bechaini or chhatpatahat dikhayi deti hai jo muktibodh main thi.

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  13. सन्नाटा मौत का भी होता है
    षड्यंत्रों के रचे जाते समय भी
    सन्नाटा ही तो बुना जा रहा होता है....

    आभार !!

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  14. दस्तक की ठक-ठक सुनकर
    उठने की कोशिश पूरी भी नहीं
    हो पाई थी कि आवाज़ें
    लौटती-सी लगने लगीं.
    ये पंक्तियाँ खास तौर से पसंद आयीं.

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  15. पाठक पढते हुए स्वयम को भूल जाता है ... अपने में, अपने एक-एक भाव में लपेटती चली जाती है कविता...

    बस नमन है मेरा आपकी लेखनी को सर...शुभ कामनाएँ ...

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  16. अँधेरे में के दुस्वप्न को हमारे दौर में पुनर्रेखांकित करती कविता.

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  17. भीतर अपने ही भीतर
    एक निश्शब्द संवाद
    या कहूं वाद-विवाद शुरू हो जाता है.
    और यही वाद विवाद चेतना के धरातल से ऊपर उठकर वृहद् परिदृश्य में कविता के रूप में उभर कर दिशानिर्देश दे जाती है....., मानस की उत्प्रीड़क यात्राओं से उत्पन्न दुहिता ही तो है कविता... वो कहते हैं न... when we quarrel with others, we create rhetoric. when we quarrel with ourselves, we create poetry!
    मानसिक संघर्ष कविता के रूप में बहता हुआ... सुन्दर परिदृश्य का सृजन करता है जहां मुक्ति की संभावनाएं तलाशता कवि समस्त जगत को एक ही धरातल पर ला कर सामूहिक उन्नयन की बात करता है! अनुभव की कलम से लिखी गयी शानदार सोच... इसके सिवा वर्तमान परिदृश्य में कोई विकल्प ही नहीं!
    It was a experience of different genre to go through this poetry! Will return again and again to get inspired!
    regards,

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