"घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है / बताओ कैसे लिख दूं धुप फागुन की नशीली है." तमाम तरह की रूमानियत के सांचों को तोड़ते हुए, आम जन के दुःख-तकलीफ़ को मुखरित करने वाला जन कवि चला गया. उन्होंने जो जगह खाली छोड़ी है, वह खाली ही रहेगी, भर नहीं सकती.
वह अकेले बहुतेरे कवियों से अधिक सार्थक और प्रेरक काम कर रहे थे, कविता के माध्यम से. उनकी जगह भर सकनेवाला दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ता. समय साबित करेगा कि वह दुष्यंत कुमार से बहुत आगे के कवि थे, अधिक प्रतिबद्ध और कहीं अधिक जन पक्षधर. यह अनुल्लेखनीय नहीं है कि उनकी रचनाएं प्रतिष्ठानी समर्थन-अनुमोदन-प्रोत्साहन के बगैर लोकप्रिय हुईं. दुष्यंत कुमार को उस समय की प्रतिष्ठानी साहित्यिक पत्रिकाओं का समर्थन तो मिला ही था. सत्तर के दशक के मध्य में, कहानी की पत्रिका 'सारिका' ने दुष्यंत-केंद्रित अंक निकालकर उनकी ग़ज़लों को साहित्य के पाठकों के बीच प्रतिष्ठित कर दिया था. मेरा मक़सद दुष्यंत को कम करके आंकना नहीं है (मैं स्वयं अपने आपको को उनका बड़ा प्रशंसक मानता हूं), पर यहां मैं जो रेखांकित करना चाहता हूं वह यह कि अदम, दुष्यंत के विपरीत ठेठ देहाती चेतना के कवि थे, और उनकी जन पक्षधरता कहीं अधिक व्यापक और विश्वसनीय थी. यह तो सोने में सुहागा-जैसी बात है कि वह शहरी मध्य वर्ग के बीच भी, सिर्फ़ अपनी कविता की कुव्वत पर ऐसी लोकप्रियता (या कहूं, लोक मान्यता) अर्जित कर पाए, जिससे किसी भी कवि को ईर्ष्या हो सकती है.
मैं तो उनसे कभी नहीं मिला पर जिनको भी उनके साथ उठने-बैठने का सौभाग्य मिला था, वे सब इस बात पर एकमत हैं कि अदम सबसे बड़े उछाह से मिलते थे. किसी को भी कभी लगा ही नहीं कि वे एक बड़े कवि के साथ बैठे हैं। “न वह बदले न उनकी कविता बदली, न उनका पक्ष बदला। जबकि बदलने और बिकने के लिए कितना बड़ा बाज़ार मुँह बाए खड़ा है। कह सकता हूं कि जो बदल जाता है वो अदम गोंडवी नहीं होता." जाने-माने कवि बोधिसत्व ने बड़ी बात कह दी है. दूसरे कवियों का मूल्यांकन भी इस कसौटी को आधार बनाकर किया जा सकता है/किया जाना चाहिए.
बोधिसत्व कहते हैं, “हम बहुत कुछ पाने के चक्कर में मूलधन खो देते हैं। अदम ने वह धन कभी नहीं खोया। उनमें ऐसी कई बातें थीं जो आज इंसानियत के अजूबाघर में, कवि समाज के म्यूजियम में भी नहीं मिलतीं। नक्कालों की दुनिया में वे एक खुले मन के कवि थे। वे रहें न रहें उनकी कविताएँ रहेंगी। उनकी कथाएँ रहेंगी।“ मैं भी तीन दिन से अपनी समझ के आधार पर तरह-तरह से यही बात कहता रहा हूं. ज़्यादातर मित्रों की सहमति व कुछेक की विमति है. एक शानदार इंसान बने रहना और बड़ा कवि भी बने रहना, बिना किसी शान-गुमान के, विरल बात है. जनता का प्यार बड़ी पूँजी थी, उनकी. चूंकि उनकी खूबियां अजूबाघर में भी नहीं मिलती, बहुत से लोग उन खूबियों के महत्त्व को समझ नहीं पाते, या कोशिश ही नहीं करते समझने की.
मजरूह का यह शेर उन्हें बेहद पसंद था, जैसा कि भाई शेष नारायण सिंह ने अपने संस्मरण में कहा है,
"सुतून-ए-दार पर रखते चलो सरों के चिराग़,
के जहां तक यह सितम की सियाह रात चले."
इससे यह भी पता चलता है कि वह अपने अग्रज समानधर्माओं को कितनी आत्मीयता के साथ पढ़-समझ रहे थे.
एक बड़े जन-पक्षधर, आखिरी सांस तक विचार और कवि-कर्म से प्रतिबद्ध कवि के निधन के बाद, उनके मित्र-वृत्त से ही शुरू हुई चर्चाएं उनकी कविता की धार को कम नहीं कर सकतीं, और न आगे आने वाले समय में उनकी प्रासंगिकता को ही प्रश्नांकित कर सकती हैं. अपने विश्वास पर मरते दम तक टिके रहने वाले और जनता के बीच ऐसी मान्यता अर्जित कर लेने वाले कवि विरल ही होते हैं.
मैं उनकी कुछ कविताएं बिना किसी टिप्पणी के यहां संलग्न कर रहा हूं.
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर मगर
बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे वो
अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे
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काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
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भटकती है हमारे गांव में गूंगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहबत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
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सब्र की इक हद भी होती है तवजो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को
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अदब का आइना उन तंग गलियों से गुजऱता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से
बहारे-बेकिराँ में ता-कय़ामत का सफऱ ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रखें 'धूमिल' की विरासत को कऱीने से.
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जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
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जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
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हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, ज़ार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
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रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बतलाएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
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ऊपर दिए गए ग़ज़लों के छोटे-बड़े अंश आज के समाज, राजनीति-सत्ता, सांप्रदायिक उन्माद एवं युवा-वर्ग व साहित्य से जुड़े अनेक प्रश्नों को प्रतिबिंबित करते हैं. इससे न केवल कवि के रूप में उनकी सामाजिक सक्रियता का पता लगता है, बल्कि उनकी रचनात्मक ऊर्जा से भी पाठक सहज ही रू-ब-रू हो जाता है. और नीचे दी जा रही कविता तो पाठक को हिलाकर/रुलाकर रख देने वाली है. यह तमाम आधुनिकता, विकास, लोकतंत्र और समानता के दावों के बीच आज की सामंती समाज-संरचना तथा शोषण एवं दमन को उघाड़कर रख देती है, और पाठक शर्मिंदा होता है इस अमानवीयता के मंज़र को देखकर.
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
adam gondviji ko vinamr shradhhanjali... unpar likhi ek kavita padhiye mere blog par www.aruncroy.blogspot.com
ReplyDeleteअदम जी के लिखे में असहमतियों की छटपटाहट और अनुभूतियों की तल्खियाँ जिस सहज शानदार ढंग से आती है वह ही उन्हें अदम गौंडवी बनती है ..बहुत बढिया लेख बांधा आपने मोहन सर ..आपका आभार, अदम जी की स्मृतियों को प्रणाम !
ReplyDeleteजिंदा बातें..जिंदा आदमी...बेजोड़...संग्रहणीय...
ReplyDeleteअदम के काव्य व्यक्तित्व पर आत्मीय और वस्तुपरक टिप्पणी की है आपने...
ReplyDeleteव्यवस्था की विसंगतियों पर सशक्त प्रहार ......
ReplyDeleteहैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए ! आभार सर!
अदम जी हर दिल के कोने में अपनी जगह छोड़ गए हैं.. उन्हें पढ़ना वास्तव में कलेजे को मज़बूत करके सच्चाई का सामना करने जैसा है.. उनकी लेखनी को नमन... आभार आपने बहुत बढ़िया लेख लिखा है
ReplyDeleteश्रद्धांजलि !
ReplyDeleteसटीक आलेख !
शेयर कर रही हूँ सर
ReplyDeleteपिछले तीन दिनों से अदम गोंडवी जी के बाबत अलग अलग तरह की बाते पढ़ने को मिल रही थी परन्तु उनके बारे में और उनकी संवेदनाओं के बाबत बात करता बिल्कुल अलग एवं सटीक आलेख ... उनकी स्मृति में इससे बेहतर कोई अन्य श्रद्धांजलि हो भी नहीं सकती है ... उन्हें सादर नमन ..
ReplyDeleteबहुत सटीक टिप्पणी की है आपने सर !! सच है कि उन्होंने अपना मूलधन कभी नहीं खोया और यह भी कि एक शानदार इंसान बने रहना और बड़ा कवि भी बने रहना,बिना किसी शान-गुमान के, विरल बात है.
ReplyDeleteश्रद्धांजलि!!
न वह बदले न उनकी कविता बदली, न उनका पक्ष बदला। mujhe lagata hai yahi wah takat hai jisake chalate अदम गोंडवी aisi dhardar or marmik rachanayen kar paye....aapaka yah kahana bilkul sateek hai kiएक शानदार इंसान बने रहना और बड़ा कवि भी बने रहना, बिना किसी शान-गुमान के, विरल बात है. जनता का प्यार बड़ी पूँजी थी, उनकी. चूंकि उनकी खूबियां अजूबाघर में भी नहीं मिलती, बहुत से लोग उन खूबियों के महत्त्व को समझ नहीं पाते, या कोशिश ही नहीं करते समझने की.aapane unaki rachanaon ka bahut umda chayan kiya haiमैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको kavita padakar meri aankhne nam ho aayi....dil dahal gaya....aapane un par man se likha hai..aapaka aabhar.....adam sahab ko श्रद्धांजलि...
ReplyDeleteइस लेख और उन पंक्तियों को पढ़कर स्तब्धता की स्थिति से उभरने में थोडा वक़्त लगा, इतनी तल्खी लेखन में यूँ ही तो नहीं आ जाती, सचमुच अदम जी जनमानस के कवि थे, और उनकी कविताओं में रच-बसे सामाजिक सरोकार मार्मिक सत्य से साक्षात्कार करवाते हैं........
ReplyDeleteअदम के कृतित्व को अदम्यता से प्रस्तुत करने हेतु साधुवाद ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी टिप्पणी है अदम गोंडवी के ग़ज़ल संसार और उनके काव्यमय जीवन पर ,ऐसे बहुत कम लोग होते हैं ,जो जैसा जीवन जीते हैं वैसा ही रचनाकर्म करते हैं अन्यथा जीवन और रचना में गहरी फांक और दरारें मिलती हैं|दरअसल अदम कविता को उन जीवन-क्षेत्रों में ले गए जहाँ आज का मध्यवर्गीय कवी नहीं जाता |वे अपनी कविता की ताजगी से कदाचित इसी वजह से प्रभावित करते हैं कि उनकी जमीन और भाषा -शिल्प न केवल नयी है बल्कि सार्थक,ऊर्जावान और दिशा-निर्देशक भी है |
ReplyDeleteकहने के लियें जैसे शब्द नहीं मिल रहे ..
ReplyDeleteएक सार्थक आलेख ..
आपने सभी कुछ कह दिया इससे अधिक क्या कहा जा सकता है किसी कवि के विषय में... बधाई ..
हम लोग अपने आपको सौभाग्यशाली मानते है की अदम जी जैसा शायर हमारे समय में पैदा हुआ...ये अलग बात है कि हमारा समाज अदम जैसे जनवादी और क्रन्तिकारी शायर को wo sab nahi de paya jiske we sahi mayano में hakdar the ...alvida अदम gondavi
ReplyDelete''अदम, दुष्यंत के विपरीत ठेठ देहाती चेतना के कवि थे, और उनकी जन पक्षधरता कहीं अधिक व्यापक और विश्वसनीय थी''---सटीक रेखांकन .
ReplyDeleteअदम कविता में खरी-खरी कहने वाले खांटी कवि थे . वास्तविक जन-कवि . जनपक्षधर कवि और कविताएं तो बहुत हैं पर जब-जब जनता में पैठ जाने वाले जनपक्षधर कवि और कविता की बात होगी अदम और उनकी कविता का ज़िक्र सबसे पहले होगा . आपने उन्हें सच्चे मन से श्रद्धांजलि दी है .
ReplyDeleteNaari utpeedan par kal sandhyaa samay ek naatak dekhaa jo man ko abhi tak vyathit kiye hai tis par aapkaa yah aalekh samvedanaa ko aur ghanibhoot kar gayaa! Yah ek Krishanaa nahi dalit varg ki sadiyon se nochi-khasoti jaane vaali saikdon abalaaon ki marmaantak peeda hai jise ve badi hi deen, asahaay avasthaa me mook bani,apni aatmaa ko maar bas jhelti chali jaati hain aur Thaakur aur Police yahi saarthak karti hai - nyaay ameer/balvaan ke ghar biki rakhai hai!Vitrashnaa hoti hai aise samaaj aur samaaj ke thekedaron se!
ReplyDeleteAdam ji ko shradhhanjali aur aapko saadhuvaad mahoday ki aapne hame ek dhartiputr se milvaaya unki shreshth rachnaaon ko padhvaaya.