Thursday, 22 December 2011

समय, समाज, कविता और हम: वर्ष-समापन के मौक़े पर कुछ फुटकर नोट्स

अजब हाल हैं. शब्द-चित्र जैसा कुछ उकेर देने की बात हो तो बात अलग है, पर ऐसा तो नहीं ही हो सकता कि कोई रोज़ कविता टांक दे, और कभी भी, किसी भी कविता का मौजूदा सामाजिक-राजनैतिक हालात से कोई वास्ता न हो. जो यथार्थ से पूरी तरह असंबद्ध हो. ऐसा नहीं होना चाहिए न? और शब्द-चित्र भी कोई रोज़-रोज़ थोड़े ही उकेरे जाते/ जा सकते हैं?
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कविता की रचना-प्रक्रिया कितनी ही निजी, व्यक्ति-सापेक्ष और एकांतिक क्यों न हो, उस प्रक्रिया का प्रतिफल तो निजी नहीं रह जाता. कविता  या कोई अन्य साहित्यिक रचना जैसे ही सार्वजनिक हो जाती है, उससे सवाल पूछे जा सकते हैं /पूछे जाने चाहिए. निजता 'प्रक्रिया' की होती है. निजता रचना पर रचनाकार के नैतिक अधिकार की भी होती है, रचना का जनक होने के नाते, पर सार्वजनिक होते ही रचना समाज के आधिपत्य क्षेत्र में आ जाती है. वैसे भी , कवि जिस माध्यम (भाषा) का इस्तेमाल करता है, वह मूलतः एक सामाजिक उपादान है. भाषा कवि को समाज से ही मिलती है. वह कविता के लिए किसी 'कूट भाषा' को घड़ता नहीं है, बल्कि समाज से प्राप्त भाषा का ही इस्तेमाल करता है. कवि की चेतना भी बहुत दूर तक उसके सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से निर्मित-नियमित-निर्धारित होती है. वंशानुक्रम से भी कोई इसे जोड़ने की चेष्टा करे, तो उस अनुक्रम पर भी तो यह बात उतनी ही लागू होती पाएंगे. प्रतिभा को नैसर्गिक मान भी लें तो भाषा-कौशल फिर एक ऐसी चीज़ है जो सामाजिक अन्तर्क्रियाओं में ही पुष्पित-पल्लवित होती है.
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'प्रेम' पर इन दिनों कविताओं की भरमार है. इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? जो लोग समाज के बुनियादी रूपांतरण की बात करते हैं, उनके मन में भी तो प्रेम होता है, मनुष्य मात्र के प्रति. उस प्रेम का 'स्वभाव' इन दिनों कविता में आ रहे 'प्रेम' से थोडा भिन्न ज़रूर कहा जा सकता है, इस अर्थ में कि उसका संबंध 'देह' के साथ उतना नहीं होता. ख़ास बात यह देखने में आ रही है कि महिला कवि 'प्रेम' के शब्द-छल को बेहतर समझ रही हैं, और 'पुरुष-भाव' की निहायत बेबाक़ तरीक़े से खबर भी ले-दे रही हैं, बिना 'कविताई'  की बलि चढ़ाए. इसके विपरीत अधिकांश उभरते पुरुष कवि "तुम्हारी आंखों/ होठों / तुम्हें  देख कर" से शुरू करके या तो 'फ़ंतासी' बुनने में लगे हैं, या अंत तक पहुंचते-पहुंचते 'ट्रेक बदल कर' एक अविश्वसनीय-सा सूफ़ियाना रूप दे जाते हैं, कविता की शुरुआत से जिसकी कोई संगति नहीं दिखती/बैठती. कहने का आशय यह क़तई नहीं है कि अच्छी प्रेम कविताएं नहीं लिखी जा रही. लिखी जा रही हैं, पर अपवादस्वरुप ही. वैसे भी ऐसा कौन-सा प्रेम होता या हो सकता है, जिसमें समय की सच्चाई बिल्कुल न बोले. यह तो पता चल ही जाना चाहिए कि यह 2011 की प्रेम कविता है. पुरानी फ़िल्मों में प्रेम का चित्रांकन बहुत ही सांकेतिक हुआ करता था, आज की फ़िल्मों की तुलना में. क्या ऐसा ही बात आज की कविता में व्यक्त हो रहे प्रेम के बारे में नहीं कही जा सकती  कि यह आज की फ़िल्मों में चित्रांकित हो रहे प्रेम की तरह कुछ ज़्यादा ही 'लाउड' बन जा रहा है. इसका कारण कहीं ऐसा तो नहीं कि वास्तविक जीवन में जिस तत्व की कमी बेहद खटकती रही हो, उसकी क्षतिपूर्ति कविता में एक प्रति-संसार घड़कर की जा रही हो!  बेलगाम कल्पना और शब्द-प्रचुर अभिव्यक्तियों के बूते पर !
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सहिष्णुता समाज में कम होती रही है तो साहित्य जगत उससे अछूता/अप्रभावित कैसे रह सकता है? कवि का आलोचक के प्रति असहमति का भाव हो तो समझ में आता है, और असहमति के आधारों को खुल कर रख दिया जाए तो यह कवि और कविता की लोकतांत्रिकता ही कहलाएगी, पर यदि मनोनुकूल न होने पर न सिर्फ़ आलोचना को बल्कि आलोचक को भी ख़ारिज करने का प्रयत्न दिखे, तो इसे आप क्या कहेंगे? हर पीढ़ी के कवियों को अपने आलोचकों से शिकायत रही होगी. हमारी वरिष्ठ पीढ़ी के कवियों में से अधिकांश को भी थी. पर उसके आधार कदाचित अलग थे : कि जिन प्रतिमानों की कसौटी पर उनकी कविताओं को परखा जा रहा था, वे प्रतिमान ही पुराने पड़ चुके थे या नए कथ्य, नए मुहावरे, नई संवेदना और  नई कलात्मकता का सही मूल्यांकन के लिए वे नाकाफ़ी साबित हो रहे थे. मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी एक कवि ने भी आलोचक से कभी यह कहा हो कि पहले आप फ़लां-फ़लां से बेहतर कविता लिख कर दिखलाइए और फिर हमारी कविता पर टिप्पणी करने की अर्हता अर्जित कीजिए. शिकायत यही होती थी कि कुछ कवियों को नज़रंदाज़ किया जा रहा है या उन्हें कम करके आंका जा रहा है. कुछ कवियों ने तो इस 'अनदेखी' की परवाह ही नहीं की, और जो मुखर रूप से असंतुष्ट थे उन्होंने एक दूसरा रास्ता चुना. वह रास्ता यह था कि इन असंतुष्ट कवियों ने अपनी कविता का सौंदर्यशास्त्र भी निर्मित / निरूपित किया. पर आज की युवतर पीढ़ी बड़ी बेचैन है, जल्दबाज़ी में है. किसी कवि के एक मात्र संग्रह पर अगर जैसे-तैसे दो अच्छी समीक्षाओं का 'मीजान' बैठ गया, और एकाध पुरस्कार मिल गया तो वह इसे लगभग अपना 'ह्क़' समझने ही नहीं, बल्कि जताने भी लगता है कि उसकी कविता पर 'अच्छे' के अलावा कुछ न लिखा जाए. मैं तो अपने आपको कोई आलोचक-वालोचक मानता नहीं (कविता का एक सजग पाठक ज़रूर मानता हूं, अब आप जानें/बताएं कि पाठक भी आलोचना करने का ह्क़ रखता है या नहीं! यदि नहीं, तो कविता है किसके लिए? आलोचक भी तो प्रथमतः पाठक ही होगा), फिर भी दो-चार-छह कवि तो दबी ज़ुबान यह कह ही चुके हैं कि हम चाहते हैं आप हमारे संग्रह पर लिखें, अच्छा-सा लिख दें तो संग्रह भेज दें. संग्रह मेरे पास नहीं आए, सो आसानी से अंदाज़ लगा सकते हैं आप कि मैं उन्हें समुचित रूप से आश्वस्त नहीं कर पाया होऊंगा. मैं बीमा कंपनी चलाने वाला पाठक/टिप्पणीकार नहीं हूं.
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भ्रष्टाचार है, इस देश में और जम कर है. इसे दूर भी किया जाना चाहिए. निस्संदेह. किसी भी तरह के विधि-विरुद्ध  एवं अनैतिक आचरण को कठोर रूप से दण्डित भी किया जाना चाहिए. इस व्यवस्था के चलते ऐसे आचरण का उन्मूलन हो सकता है या नहीं, यह अलग बात है. इस पर बहसें चलती भी रही हैं, पिछले चार महीनों के दौरान तो लगभग निरंतर. ऐसा न दिखते हुए भी, भ्रष्टाचार बुनियादी तौर पर सिर्फ़ आर्थिक नहीं बल्कि राजनैतिक मुद्दा भी है, क्योंकि बिना राजनैतिक संरक्षण के यह फल-फूल ही नहीं सकता. कभी नहीं. इसलिए भ्रष्टाचार का विरोध भी राजनैतिक क्यों नहीं होना चाहिए? वह अराजनैतिक क्यों बना रहना चाहिए? यह और भी बुरी बात है कि कोई प्रच्छन्न रूप से राजनीति भी करे और अपने आंदोलन को अराजनैतिक भी कहता रहे. कुछ मित्र व्यक्तिगत चर्चा में नैतिकता के आग्रह को प्रमुखता देने की बात करते हैं. मेरा सिर्फ़ इतना निवेदन होता है कि नैतिकता भी 'वर्गातीत' नहीं होती. यदि भ्रष्ट लोग किसी नैतिकता-आधारित भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन को समर्थन देने या उसमें शामिल होने लग जाएं तो क्या भ्रष्टाचार में उनकी लिप्तता स्वतः खारिज हो जाएगी, और वे पाक-साफ़ हो जाएंगे? दूसरे यह कि यदि शुरू से लेकर आखिर तक मैं आपके साथ नहीं हूं तो इसका मतलब यह कैसे हो गया कि मैं आपके शत्रु के साथ चला गया? यह 'बुशवादी' रवैया ठीक है क्या? और पलट कर आप से यह कहा जाए कि आप 'बगुला भगत भ्रष्टों' के साथ चले गए तो कैसा लगेगा? पर मैं यह नहीं कहता क्योंकि मैं ऐसा मानता ही नहीं. मेरी समझ यह है कि ऐसे लोग ईमानदारी से भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं, पर आंदोलन में जनता की किसी भी स्तर की भागीदारी से मोहाविष्ट होकर ये आंदोलन के संचालकों के मूल मंतव्यों का सही आकलन नहीं कर पा रहे हैं.
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रूस के एक छोटे से प्रांत की निचली अदालत में इस्कोन के संस्थापक प्रभुपाद द्वारा की गई गीता की टीका पर प्रतिबंध लगाने की मांग क्या उठी हमारे देश के संस्कृति-वीर बिना पूरी खबर पढ़े अति-सक्रिय हो गए. फ़ेसबुक पर ही नहीं, संसद तक में सरकार का आह्वान किया गया कि वह 'कुछ' करे, 'राजनयिक चैनेल' को सक्रिय करे. 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' को समर्पित  विपक्षी दल ने तो लगे हाथ गीता को 'राष्ट्रीय ग्रंथ' घोषित करने की मांग तक कर दी. देश के बहुसंख्यक जन की भावनाओं के आहत होने का ज़िक्र किया जाना तो लाज़िमी था ही. ऐसे में, मैंने एक छोटी-सी टिप्पणी करना ही उचित और उपयुक्त समझा :"आहत होने के लिए तो अफ़वाहें ही काफ़ी होती हैं क्योंकि ऐसा ही होता है आस्थावानों का मन! प्रभुपाद की टीका जिसने पढ़ी भी न होगी वह भी घुला-मरा जा रहा है, और विलाप ऐसा चहुंदिश, कि कुछ लोगों को यकायक गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करवाने की मुहिम चलाने का मौक़ा हाथ लग गया. किसी भी मांग के निहितार्थों को समझने की तो जैसे ज़रूरत ही खत्म हो गई है."

24 comments:

  1. ''इसका कारण कहीं ऐसा तो नहीं कि वास्तविक जीवन में जिस तत्व की कमी बेहद खटकती रही हो, उसकी क्षतिपूर्ति कविता में एक प्रति-संसार घड़कर की जा रही हो!''
    प्रेम कविताओं की हालिया अटूट बौछार पर ठहर कर सोचती हुयी यह समग्र टीप कवियों के काम की है .सच यही है कि स्त्रियों ने ही प्रेम के शक्ति समीकरण को ठीक से उद्घाटित करना शुरू किया है . अपनी स्वतंत्र यौनिकता के प्रति उन की जागरूकता भी इसी प्रक्रिया का एक जरूरी हिस्सा है , लेकिन हिंदी में , दूसरी भारतीय भाषाओं की तुलना में , अभी बहुत मद्धम गति है.

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  2. Jin kavitaon men Prem chhalak-chhalak padta hai, bahan prem hoga, jarooro nahi hai. Apne sahi pakad liya hai. sufiyana rang de dene ki baat majedar hai, idhar kavita aise hi tayyar ki ja rahi hai. maal ki tarh jaise bazar prem taiyar karta hai.
    Ashok Vajpeyi ne Prem ke naam par ghinaune pan ki had kar di thi, ab lagta hai Ashok Vajpeyi school fal-fool raha hai.
    Sachche relation ke bina sachchi prem kavita aakhir kaise ho sakti hai. aisa bhi khoob bargalaya jaata hai ki jaise prem aur saamajik karm alg baaten hon lekin maine jo achchi prem kavitayen padhin hain sanyog se ve un kaviyon ki hain jin par wampanthi hone ki tohmat hai.
    Asahishnuta aur yuva peedhi ko lekar apki tippani se sahmat hun. pichhe kaii baar aisa huaa ki kisi purane kavi ne kuchh kah diya aur barr ke jhund ki tarh yuva us par toot pade. mulyankan ko lekar shayad hi koii peedhi itni utawli ho.
    Bhrashtachar ke bahu pracharit andolan se asahmati par bhi aisa hi ravaiya apnaya gaya. `Geeta` prakaran sirf bhavnaon ke ahat hone ka mamla to hai nahi, fal dene wali siyasat ka mamla hai. BJP to theek lekin Congress aur dusre dal bhi aisa hi karta dikhaii diye. mano unka kaam BJP ke agende ko aage badhana ho. dukhad ye raha ki wampanthi sathi bhi thoda der se chete.

    Apki ye tippaniyan padhna achcha laga...

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  3. महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ!!

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  4. कई आवश्यक बातें। भ्रष्रटाचार पर और गीता-विवाद पर। खासकर यह:

    "आहत होने के लिए तो अफ़वाहें ही काफ़ी होती हैं क्योंकि ऐसा ही होता है आस्थावानों का मन!]"

    या

    "यदि शुरू से लेकर आखिर तक मैं आपके साथ नहीं हूं तो इसका मतलब यह कैसे हो गया कि मैं आपके शत्रु के साथ चला गया? "

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  5. ...कविता अपने परिवेश की उपज होती है , यदि कविता अपने समय की सामाजिक राजनैतिक जीवन को प्रतिबिम्बित नहीं कर रही है अपनी परिस्थितियों और हालात से उपजी हुई नहीं है तो उसे कोरा शब्दजाल ही कहा जा सकता है प्रेम कोई अतीन्द्रीय आत्मानुभूति नहीं है प्रेम भी जीवन के घात प्रतिघातों के बीच ही पल्लवित और विकसित होता है फिर कविता उन घात-प्रतिघातों और जीवन संघर्षों से कैसे अछूती रह सकती है? कवि की निजी रचना सार्वजनिक होती है तो वह उसकी निजी नहीं रह जाती है और अन्त में दो मह्त्वपूर्ण बिन्दु -
    भ्रष्टाचार का विरोध भी राजनैतिक क्यों नहीं होना चाहिए? वह अराजनैतिक क्यों बना रहना चाहिए?
    किसी भी मांग के निहितार्थों को समझने की तो जैसे ज़रूरत ही खत्म हो गई है." मह्त्वपूर्ण नोट्स. !

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  6. कई मुद्दों को देखती परखती हुयी आपकी टिप्पड़ी से कमोबेश सहमती है...कविता को यथार्थ से असम्बद्ध नहीं किया जा सकता और यूँ ही राह चलते इसे टांका भी नहीं जा सकता ....,प्रेम के सम्बन्ध में हर पुरानी पीढ़ी आपकी तरह ही सोचती है ...हमारे समय का प्रेम प्रेम था , आज वाले में वह गहराई कहाँ.....इस तर्क से आंशिक रूप से सहमत हुआ जा सकता है .....आज भी प्यार करने वाले उसी तरह जीते, मरते और निभाते है जैसे किसी भी समय में किया जाता था ...हा इसकी संख्या थोड़ी कम जरुर है...आलोचक और लेखक वाला विवाद भी बड़ा पुराना है ..ठीक है कि आलोचक को लेखक की परवाह किये बिना अपनी बात रखनी चाहिए , लेकिन एक लेखक आलोचक की परवाह क्यों करे ? यदि आलोचक के अपने मानदंड हो सकते है , तो जरुरी तो नहीं कि लेखक उसी साँचे में सोचे - लिखे ...आपकी बात काफी हद तक सही है लेकिन इसके लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार नहीं ...आज कितने ऐसे आलोचक है जो सिर्फ रचना के आधार पर आलोचना लिखते है ? ...भ्रष्टाचार और "गीता" विवाद पर आपसे पुर्णतः सहमत हूँ...

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  7. रचना-प्रक्रिया पर आपके विचारों से पूर्न सहमति है . रचना-प्रक्रिया का प्रतिफल सार्वजनिक है और लेखक की जवाबदेही बनती है . पब्लिक डोमेन में जाने के बाद यह उसका निजी मामला नहीं रहता .

    प्रेम कविताओं पर अंतर्दृष्टि से भरी-पूरी टिप्पणी जबर्दस्त है . इस हस्तक्षेप की बहुत ज़ुरूरत थी . आशुतोष जी ने भी ठीक संकेत किया है . हिंदी के बंद समाज में जब प्रेम की गुंजाइश -- उसके लिए स्पेस -- बहुत कम था तब भी प्रेम की कविताएं ठट्ठ की ठट्ठ आ रही थीं. इसे उस समय की राजेश खन्ना की फिल्मों के समानांतर रख कर भी देखा जा सकता है . अब जबकि प्रेम के लिए गुंजाइश है और प्रेम का कुछ परिपक्व और कुछ उद्धाम रूप बाहर ठाठें मार रहा है पुरुष-भाव की 'छल-बल'और कौशल वाली प्रेम की फार्मूलाबद्ध कविता लिजलिजाहट की यथास्थिति में गोते मार रही है.महिला कवि इस कविता को समझ चुके हैं,इसकी व्यर्थता को भी. संभवतः इसीलिए उनकी कविता अलग धरातल पर है और उनकी बेबाक आंखों से आंख मिलाना कुछ मुश्किल हो रहा है . फार्मूलाबद्ध प्रेम कविता स्त्री को उसी स्टीरियोटाइप में देखती है जिससे वह बडे प्रयास से बाहर आई है . एक ओर तो मीडिया में खुले प्रदर्शन से स्त्री देह का सिंथेटिक सौंदर्य में बदलते जाना और दूसरी ओर कविता में उसकी भावुक-आदर्शीकृत छवि दो विलोम स्थितियां हैं.

    रूस की किसी छोटी इलाकाई अदालत ने हिंदुस्तान के एक संस्कृति-विलग वर्ग को अपनी धार्मिकता की घोषणा करने का अनुपम अवसर उपलब्ध करवा दिया है .

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  8. स्त्री तो होती ही प्रेम की मूरत है, स्नेह और ममता का निर्बाध स्त्रोत । फिर नारी मन अधिक संवेदनशील होता है उसकी अनुभूति भी गहन होती है! प्रेम जैसे विषय पर उसकी अभिव्यक्ति सहज और सुंदर हो यह तो अपेक्षित ही है। मेरे विचार से कवि को सत्य को सुनने और स्वीकार करने का अभिलाषी होना चाहिये तभी उसकी रचनाओं में सुधार, निखार आ सकता है ।
    समाज और कविता पर आपके विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ और आपसे निवेदन करती हूँ कि आप निशंक अपनी बहुमूल्य राय दे कर हमें अनुगॄहित करते रहें।
    सादर

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  9. तुम्हारा प्यार
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    यह स्त्री डरी हुई है
    इस तरह
    जैसे इसी के नाते
    इसे मोहलत मिली हुई है

    अपने शिशुओं को जहां-तहां छिपा कर
    वह हर रोज़ कई बार मुस्कुराती
    तुम्हारी दूरबीन के सामने से गुज़रती है

    यह उसके अंदर का डर है
    जो तुममें नशा पैदा करता है

    और जिसे तुम प्यार कहते हो
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  10. आप की प्रतिक्रियाऔर चिंता उन सभी विषयों पर सटीक है / जो आप ने उठाए हैं /प्रभुपाद की गीता एज इट इज पर बेन का मुकदमा हो और उस पर कट्टर लोंगो की प्रति क्रिया हो 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' को समर्पित विपक्षी दल ने तो लगे हाथ गीता को 'राष्ट्रीय ग्रंथ' घोषित करने की मांग तक कर दी. देश के बहुसंख्यक जन की भावनाओं के आहत होने का ज़िक्र किया जाना तो लाज़िमी था ही. आहत होने के लिए तो अफ़वाहें ही काफ़ी होती हैं ,या भ्रष्टाचार की बात जो हमारी नस नस में रक्त की तरह बह रहा है या फिर राज नैतिक प्रक्रिया की उठा पटक/ देश कौए के पीछे भाग रहा है /काब्य शास्त्र का कथन है की ...अपारे काब्य संसारे कबि रेकः प्रजापति:,मेरा मत है की ब्रम्हा होते हुए भी वह समाज के प्रति उत्तरदायी भी है और समाज का मुखापेक्षी भी ,वह समाज में रहता है इसलिए उससे प्रश्न भी किये जाते हैं पाठक भी आलोचना करने का ह्क़ रखता है,/उत्तर भी देना पड़ता है /आप की इस बात से मै भी सह मत हूँ कीआज की कविता प्रेम पर टिक गई है वह भी स्थूल /बाढ़ भी आगई है / प्रेम कविताओं पर अंतर्दृष्टि से भरी-पूरी टिप्पणी जबर्दस्त है . इस हस्तक्षेप की बहुत ज़ुरूरत थी समाज और कविता पर आपके विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ और आपसे निवेदन करती हूँ कि आप निशंक अपनी बहुमूल्य राय दे कर हमें अनुगॄहित करते रहें।

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  11. अपने समय के सरोकारों से जुड़ा और उसे रुपायित करता एक सटीक विश्लेषणात्मक आलेख

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  12. आइकन बनाऊ आज के इस बाजारू दौर ने हमारे समाज को अपनी गिरफ़्त में लिया है। खासतौर पर मध्यवर्ग सबसे अधिक चपेट में है। ऎसे में यह कहना कि आज का युवा रचनाकार बहुत जल्दबाज है और अपनी आलोचना स्वीकार नहीं करना चाहता, सच होते हुए भी अधुरा है। यह आरोप सिर्फ़ युवा रचनाकरों पर चस्पा कर देने कि बजाय इस प्रव्रत्ति पर बात होनी चाहिए कि क्या व्यक्तिवादी रूझानों और कैरियरिस्टिक एप्रोच को साहित्य की दुनिया का मूल्य बनाने वाली मानसिकता के साथ जनता के पक्ष को सही तरह से दर्ज किया जाना संभव है ? , जो कि बहुत न सिर्फ़ युवा रचनाकारों में दिख रही बल्कि बहुत से वरिष्ठ भी जिसके शिकार है और जिनकी क्षत्र-छाया में ही युवा का ऎसा हिस्सा वरिष्ठ होता हुआ रहता है।

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  13. Ramji Tiwari कई मुद्दों को देखती परखती हुयी आपकी टिप्पड़ी से कमोबेश सहमती है...कविता को यथार्थ से असम्बद्ध नहीं किया जा सकता और यूँ ही राह चलते इसे टांका भी नहीं जा सकता ....,प्रेम के सम्बन्ध में हर पुरानी पीढ़ी आपकी तरह ही सोचती है ...हमारे समय का प्रेम प्रेम था , आज वाले में वह गहराई कहाँ.....इस तर्क से आंशिक रूप से सहमत हुआ जा सकता है .....आज भी प्यार करने वाले उसी तरह जीते, मरते और निभाते है जैसे किसी भी समय में किया जाता था ...हा इसकी संख्या थोड़ी कम जरुर है...आलोचक और लेखक वाला विवाद भी बड़ा पुराना है ..ठीक है कि आलोचक को लेखक की परवाह किये बिना अपनी बात रखनी चाहिए , लेकिन एक लेखक आलोचक की परवाह क्यों करे ? यदि आलोचक के अपने मानदंड हो सकते है , तो जरुरी तो नहीं कि लेखक उसी साँचे में सोचे - लिखे ...आपकी बात काफी हद तक सही है लेकिन इसके लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार नहीं ...आज कितने ऐसे आलोचक है जो सिर्फ रचना के आधार पर आलोचना लिखते है ? ...भ्रष्टाचार और "गीता" विवाद पर आपसे पुर्णतः सहमत हूँ.....

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  14. aap sabhi se sahamathoon.kavita kya hai sivay iske ki main kaha gaya or aap mahasooste hi rah gaye. sawal samvedna k samajik pariprekhya ka hai ki koi bhi vidha ya byakti....aakhir kyon or kisli?

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  15. aap sabhi se sahamathoon.kavita kya hai sivay iske ki main kaha gaya or aap mahasooste hi rah gaye. sawal samvedna k samajik pariprekhya ka hai ki koi bhi vidha ya byakti....aakhir kyon or kisli?

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  16. aaj devnagri likhne me dikkat aa rahii hai aur roman me maza nahi aataa...is par main vistar se likhna chahta hoon...kal...

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  17. शब्द-चित्र भी कोई रोज़-रोज़ थोड़े ही उकेरे जाते/ जा सकते हैं?
    रचना जैसे ही सार्वजनिक हो जाती है, उससे सवाल पूछे जा सकते हैं /पूछे जाने चाहिए.
    हर पीढ़ी के कवियों को अपने आलोचकों से शिकायत रही होगी
    आहत होने के लिए तो अफ़वाहें ही काफ़ी होती हैं क्योंकि ऐसा ही होता है आस्थावानों का मन! और धिक्कार दिवस आधी रात भी मनाये जा सकते है ..आनंद आ गया सर,टीप लिखने चली तो हर एक बात उल्लिखित कर डालने का मन हुआ लगा टीप उतनी ही बड़ी हो जायेगी जितना आप लिख गये हैं ..आप के कहे में बेहतर सिरजने का आग्रह और स्नेह सिंचित फटकार है पढ़कर वाकई अच्छा लगा

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  18. मोहन जी...आपने पूरे साल को शब्दों में बांधने का एक सफ़ल प्रयास किया है...कविता, भ्रष्टाचार और गीता पर की गयी टिप्पणियां न केवल सारगर्भित है वरन एक दस्तावेज की भांति याद रखी जायेंगी...

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  19. एक- रोज कविता टांकना जहाँ कवि होने की गारंटी बन जाता हो..लोग टाकेंगे ही :) मुझे तो इस उत्पादन क्षमता पर बड़ा आश्चर्य और इर्ष्या वाला भाव पैदा होता है.

    दो- पाठक का हक बस 'बहुत बढ़िया''क्या बात है', बहुत दिनों बाद ऎसी कविता पढ़ी...वगैरह-वगैरह का है. दरअसल इन माध्यमों ने पाठक को 'दर्शक' में बदला है...जो या तो हाल से बाहर चला जाय...या सिटी बजाए.

    तीन- प्रेम पर लिखना इतना बढ़ने के पीछे मुझे दो कारण नज़र आते हैं. पहला - शून्य सामाजिक सरोकार और ऋणात्मक सामजिक-राजनैतिक समझदारी, जहाँ इतिहास,दर्शन,विचारधारा से लेकर विमर्शों तक को टिप्पणियों और अखबारी कचरा लेखन के सहारे 'जान-समझ' लेने का महान भ्रम पाला जाता है. जहाँ सामजिक संक्रियाओं में भागीदारी तो छोड़िये, इसके लिए किसी गंभीर अध्ययन की ज़रूरत नहीं समझी जाती है. यही कवि जब कभी किसी दबाव में ही सही सामाजिक-राजनैतिक विषयों पर लिखने की कोशिश करते हैं तो इतिहास और वर्तमान की विकलांग समझ स्पष्ट सामने आ जाती है...और अगर किसी ने इंगित कर दी तो....:) सीधे कहूँ तो यह सुविधा की कविता है जिससे सब खुश हो जाते हैं, वे भी जो अभी-अभी बिटिया को उसके प्रेम के लिए कमरे में बंद करके आये हैं. दूसरा - भरपूर नक़ल के बावजूद प्रेम ही एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें हम कह सकते हैं कि भाई उसका चेहरा मुझे भी चाँद जैसा ही लगता है. अनुभूति की प्रामाणिकता तो पुरानी बात हुई यहाँ लेखन की प्रामाणिकता की भी ज़रूरत नहीं है. इस संपादक विहीन समय में जो न हो वो कम है.(

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  20. aaage

    कवि-आलोचकों का रिश्ता मजेदार है. बिना एक दूसरे के काम भी नहीं चलता और साथ मिलते हैं तो लट्ठ भी चलते हैं. देवरानी-जेठानी जैसा ;) सहमति है आपके लिखे से. बस इतना जोडूंगा - कि जहाँ कवि को खुद को पढवाने के लिए अपनी ही किताब खरीद के भेजनी पड़े वहाँ वह फेवर चाहेगा ही...बेहतर होता कि आलोचक अपने प्रिय-अप्रिय कवियों की किताब खरीद कर पढते और फिर अच्छा-बुरा जैसा चाहे लिखते.

    अंतिम दोनों पैरा आपने लिखा है मैं? इसे मेरा लिखा माना जाय...:)

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  21. सर, आपने हमेशा की तरह हमें एक अच्छा आलेख पढने का सुअवसर दिया, उसके लिए आभार, आपने कविता में प्रेम के बारे में लिखा और यह भी एक किस तरह की प्रेम कवितायेँ लिखी जा रही हैं, वस्तुतः मेरा भी यह मानना है प्रेम को जीकर ही शब्द-रूप दिया जा सकता है, आपने आलोचना के लिए जो कुछ भी कहा, सर्वमान्य है, एक आलोचक का धर्म है तठस्थ होकर राय दे और लेखक को उसका स्वागत करना चाहिए.....आपका लेख सचमुच इस विषय में जागरूकता पैदा करता है, भ्रष्ट्राचार और गीता पर आधारित पुस्तक पर बैन पर भी आपके विचार स्वागत योग्य हैं.....लेख बहुत ही उत्कृष्ट और संजोने लायक है.....आशा करती हूँ आप आगे भी हमें अपने विचारों से अवगत कराते रहेंगे........

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  22. :-) :-) :-) :-)
    इसे पढ़ते हुए हर लाइन पर मुस्कुराई हूँ और अब कुछ भी कह नहीं पा रही सिवा इसके कि जहां आवश्यकता समझें मेरे कान ज़रूर खींचें. आखिर मेरी पीठ ठोंकते हैं आप भरी महफ़िल में शाबाश कहते हैं तो कान भी आप ही खींचेंगे न ! :-)
    ज़रूरी नोट है
    . 2011 की कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण बातों की पुडिया बना के रख ली है. इसकी भी भी पुडिया बना ली है.शुक्रिया मोहन सर.

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  23. Leena Malhotra on FB

    स्त्री रचनाकरों पर भरोसे की टिपण्णी के लिए मैं स्त्री जगत की ओर से आपका धन्यवाद करती हूँ.. फेसबुक आत्म मुघ्धता को बढ़ावा दे रहा है.. जैसे कि अधिक टिप्पणियां आना ही कविता या पोस्ट का सही मूल्यांकन है.. टिपण्णी कौन कर रहा है ये नही...आपकी बेबाकी पसंद आई.. मैं बीमा कम्पनी चलने वाला पाठक/टिप्पणीकार नही हूँ.. भ्रषटाचार सम्बन्धी आपकी पोस्ट और गीता पर उठे विवाद से मैं आपसे सहमत हूँ..


    Harish Kumar Karamchandani on FB

    बेहद मूल्यवान टिप्पणियां...कौन सहमत न होगा कि स्वयं रचनाकार के लिये भी अनुकूल नहीं,सच्ची टिप्पणी ही मददगार साबित होती हैं.


    Jai Narain Budhwar on FB

    अब आप जानें/बताएं कि पाठक भी आलोचना करने का ह्क़ रखता है या नहीं! यदि नहीं, तो कविता है किसके लिए? आलोचक भी तो प्रथमतः पाठक ही होगा), फिर भी दो-चार-छह कवि तो दबी ज़ुबान यह कह ही चुके हैं कि हम चाहते हैं आप हमारे संग्रह पर लिखें, अच्छा-सा लिख दें तो संग्रह भेज दें. संग्रह मेरे पास नहीं आए, सो आसानी से अंदाज़ लगा सकते हैं आप कि मैं उन्हें समुचित रूप से आश्वस्त नहीं कर पाया होऊंगा. मैं बीमा कंपनी चलाने वाला पाठक/टिप्पणीकार नहीं हूं......aapne kuchh jaroori sawal uthaye hain. main adhik likhne kee halat me nahi hoon..apne aap ko aapki chinta men shamil karta hoon


    Ashok Kumar Pandey on FB

    एक- रोज कविता टांकना जहाँ कवि होने की गारंटी बन जाता हो..लोग टाकेंगे ही :) मुझे तो इस उत्पादन क्षमता पर बड़ा आश्चर्य और इर्ष्या वाला भाव पैदा होता है.

    दो- पाठक का हक बस 'बहुत बढ़िया''क्या बात है', बहुत दिनों बाद ऎसी कविता पढ़ी...वगैरह-वगैरह का है. दरअसल इन माध्यमों ने पाठक को 'दर्शक' में बदला है...जो या तो हाल से बाहर चला जाय...या सिटी बजाए.

    तीन- प्रेम पर लिखना इतना बढ़ने के पीछे मुझे दो कारण नज़र आते हैं. पहला - शून्य सामाजिक सरोकार और ऋणात्मक सामजिक-राजनैतिक समझदारी, जहाँ इतिहास,दर्शन,विचारधारा से लेकर विमर्शों तक को टिप्पणियों और अखबारी कचरा लेखन के सहारे 'जान-समझ' लेने का महान भ्रम पाला जाता है. जहाँ सामजिक संक्रियाओं में भागीदारी तो छोड़िये, इसके लिए किसी गंभीर अध्ययन की ज़रूरत नहीं समझी जाती है. यही कवि जब कभी किसी दबाव में ही सही सामाजिक-राजनैतिक विषयों पर लिखने की कोशिश करते हैं तो इतिहास और वर्तमान की विकलांग समझ स्पष्ट सामने आ जाती है...और अगर किसी ने इंगित कर दी तो....:) सीधे कहूँ तो यह सुविधा की कविता है जिससे सब खुश हो जाते हैं, वे भी जो अभी-अभी बिटिया को उसके प्रेम के लिए कमरे में बंद करके आये हैं. दूसरा - भरपूर नक़ल के बावजूद प्रेम ही एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें हम कह सकते हैं कि भाई उसका चेहरा मुझे भी चाँद जैसा ही लगता है. अनुभूति की प्रामाणिकता तो पुरानी बात हुई यहाँ लेखन की प्रामाणिकता की भी ज़रूरत नहीं है. इस संपादक विहीन समय में जो न हो वो कम है.(कवि-आलोचकों का रिश्ता मजेदार है. बिना एक दूसरे के काम भी नहीं चलता और साथ मिलते हैं तो लट्ठ भी चलते हैं. देवरानी-जेठानी जैसा ;) सहमति है आपके लिखे से. बस इतना जोडूंगा - कि जहाँ कवि को खुद को पढवाने के लिए अपनी ही किताब खरीद के भेजनी पड़े वहाँ वह फेवर चाहेगा ही...बेहतर होता कि आलोचक अपने प्रिय-अप्रिय कवियों की किताब खरीद कर पढते और फिर अच्छा-बुरा जैसा चाहे लिखते.

    अंतिम दोनों पैरा आपने लिखा है मैं? इसे मेरा लिखा माना जाय...:)

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