(इसमें कविताई न दिखे, कोई बात नहीं. कभी-कभी पोलेमिक्स भी कवितानुमा होनी चाहिए)
बुद्धिजीवियों के नाम
एक-एक पंक्ति के संदेशनुमा
स्टेटसों की
आज के मुहावरे में कहूं तो
वन-लाइनर्ज़ की बन आई है
इन दिनों, फेसबुक पर.
समझ नहीं आता
कौन हैं ये बुद्धिजीवी
जो अवरोध बन गए हैं
जनाकांक्षाओं की पूर्ति के
मार्ग में और जो यह कह रहे हैं
वे क्या हैं ?
बुद्धिजीवी ही तो
लगभग वैसे ही
जैसे वे जिनसे मतभेद हैं
उनके.
विचार से लैस
व्यवस्था को बदलने का जज़्बा लिए
संघर्ष में कूदे जनबल
की ओर से आए यह आक्षेप
तो समझ में आ सकता है
यह
और इसके पीछे का गुस्सा भी
या कहें व्यंग्य भी.
मध्य वर्ग की तमाम दुविधाओं
अनिश्चयात्मकताओं
और ढुलमुलपन पर
प्रहार भी तो कर सकता है वही
जो ऊपर उठ चुका है
इनसे और
नीयत पर संशय किए जा सकने की
तमाम संभावनाओं के दायरे से
कमज़ोरियों और वर्गीय चालाकी
के शक-ओ-शुबहा
से जा चुका हो कोसों दूर.
क्या कभी भी संभव है
कोई ऐसा व्यवस्था-परिवर्तन
जिसमें तमाम भूमिका
की जा सकती हो ख़ारिज
इस मध्य वर्ग के किसी भी नुमाइंदे की?
खंगालें अतीत को
प्रक्षेपित करें अपनी समझ को
भविष्य में
परखें समझ को और
भविष्य में उसके प्रक्षेपण को
लगे हाथ खोजने में जुट जाएं
एक भी स्थापना
जो समर्थन में खड़ी की जा सके
जिसके स्रोत हों विचार की ऊर्जस्वी
सरणियों में.
मध्य वर्ग का यह तबक़ा
छोटा-सा
'जैविक बुद्धिजीवी' न हो बेशक
पिछडों-दलितों-शोषितों-वंचितों के
वर्ग का
पर अपने बदले स्वभाव
और वैचारिक तैयारी के बल पर
उन्हीं पांतों में खड़ा होने का
अर्जित कर लेता है ह्क़
ऐसा जिस पर संदेह नहीं करता
कर सकता उस वर्ग का
'जन्मना-कर्मणा' प्रतिनिधि भी.
इतिहास क्रांतियों का पटा पड़ा है
वर्ग-च्युत ऐसे बुद्धिजीवियों के नामों से
लंबी फ़हरिस्त
हरेक की पहुंच के भीतर
कहां से शुरू करूं गिनती?
बड़बोलापन न समझा जाए उनके साथ
अपना नाम गिनवाने
की कोशिश को
दरअसल कोशिश नहीं है यह
उनके साथ खड़ा होने की
जितनी यह बताने की
कि ये तमाम लोग आए थे
उन जड़ों से जिन्हें लड़ाके
दुश्मन से जोड़ सकते थे
और सही ही
क्योंकि इन्होने
ग़रीबी भुखमरी शोषण और दमन को
वैसे नहीं भोगा था
न जाना था जैसे
जाना था क्रांति के हरावल बने दस्तों ने
पर बखूबी जानते थे वे दस्ते
लड़ाकों के
कि इनके बिना वे अग्रिम पांतों में
खड़ा होने की सोच भी नहीं
सकते थे
अंड-बंड सपनों तक में.
यह सच है पहले भी था
कि दोगला होता है चरित्र
इस बीच के वर्ग का
आतुर ऊपर जा-मिलने को
घृणा करता अपने से नीचे की ओर
देख कर,
पर कितनी ही बार दबाव में
हालात के
या दीवार की लिखावट को पढ़ कर
जोड़ देता इनके साथ अपनी नियति को
हिम्मत बढ़ती है
देख कर उन लोगों को इनके साथ
जिन्हें 'विश्वासघाती' कहा जाता था
'अपने ही वर्ग' का. विश्वासघाती
बुरा हो सकता है यह शब्द
अपमानजनक भी
पर सामाजिक बदलाव की पांतों में
गर्व किया जाता है ऐसे लोगों पर
जो निष्ठा और विश्वास के चलते
अपने ही वर्ग की चालाकियों-मक्कारियों
और धूर्तताओं को समझ कर
तय कर लेते हैं मन बना लेते हैं
पक्का
अपने ही वर्ग के खिलाफ़ खड़ा हो जाने का.
यही तो कसौटी है
वर्गांतरण की
परख की जो कभी ग़लत नहीं होती.
कोशिश कर देखिए
आगे भी समाज को जड़ से बदलने का
कोई भी अभिक्रम
नहीं पहुंचेगा अंजाम तक
इनके बिना.
अपने वर्ग की
आस्थाओं और विश्वासों को
त्याग कर आए इन लोगों के बिना
जिन्हें आज कुछ लोग
देखते हैं हिक़ारत की नज़र से
गाली नहीं होता
नाम ऐसे बुद्धिजीवियों का
चाहे कितना भी लिया जाए
गाली की तरह.
समय है कि समझ लिया जाए फ़र्क़
बुद्धि-व्यवसाइयों और
बुद्धिजीवियों का.
सरोकार जिसके बड़े हों
अपने से 'इतर'
ह्क़ वही अर्जित करता है
कहलाने का बुद्धिजीवी
चालाकी होती है पहचान
अपने हितों का ही दूर तक ध्यान
बुद्धि-व्यवसायी की
अचूक और खरी
निर्विवाद पहचान
जब भी होगी शुरुआत चीज़ों को
सिर्फ़ दुरुस्त न करने की
विषमता और अपराध पनपाने वाली
व्यवस्था की जड़ों में मट्ठा डालने की
विचार-विहीन
'राजनीति' शब्द से करते हुए परहेज़
राजनीति करने वाले
कहीं नहीं होंगे आस-पास भी.
सनद रहे ताकि बखत ज़रूरत काम आए
खुलकर स्याह को स्याह कहने वाले
और सफ़ेद की सफेदी बनाए रखने का
सपना पाले हुए
ये लोग ही खड़े होंगे
एक साथ एक-जुट. व्यवस्था को
चमकाने वालों के खिलाफ़.
चमकाने वाले ऐसे
कि भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ने के
उपक्रम को पुरस्कृत होने के
अनुष्ठान में बदल देने का जादू जानते हैं
और चमत्कार फिर भी
पाक-साफ़ दिखने का.
बहुत दिन नहीं चल सकता यह खेल
प्रवंचना का दौर खत्म होगा जल्दी ही
और इतिहास की सर्वाधिक गतिशील
शक्तियां चूक नहीं करेंगी
सही बदलाव की आंच पर
धूल डालने वालों की रहनुमाई
को तार-तार कर देंगी.
नजूमी नहीं सही मैं
पर भविष्य में कुछ दूर तक तो
देख ही सकता हूं. आप
स्वतंत्र हैं इसे मेरा 'वहम' कहने को
पर किसने सोचा था
आज से दो महीने पहले भी
कि वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा जमा लेंगे लोग
कि मार्क्स के पोस्टरों की
इबारत यह होगी
"देख लो, मैं सही था"
वह भी उस देश में जिसे
स्वर्ग कहा जाता है
पूंजीवाद का
उस देश में जो पर्याय बन गया था
सपने का समृद्धि के सपने का.
एक सपने का ध्वस्त होना
जगा देता है उम्मीदें एक दूसरे सपने
की ताबीर का.
यह सपना जो निन्यानबे फ़ीसद
बनाम एक फ़ीसद का
सपना है चिरकालिक.
सपना जो सदा सपना ही बने
रहने को अभिशप्त नहीं है.
आप चाहें तो कह दें "आमीन" !
न कह सकें तो भी आमीन !
Prem Chand Gandhi on FB
ReplyDeleteएक सपने का ध्वस्त होना
जगा देता है उम्मीदें एक दूसरे सपने
की ताबीर का.
यह सपना जो निन्यानबे फ़ीसद
बनाम एक फ़ीसद का
सपना है चिरकालिक.
सपना जो सदा सपना ही बने
रहने को अभिशप्त नहीं है.
... बहुत ही विचारणीय बिंदु हैं सर, बेहद कचोटती हुई काव्य-टिप्पणी है। कई दिनों से ब्लॉग पर टिप्पणी पोस्ट नहीं हो पा रही है, इसलिए यहीं प्रतिक्रिया दे रहा हूं।
मध्यवर्गीय चेतना का बुद्धिजीवी और उसका ढुलमुलपन फिर भी उसकी कारगर भूमिका पर एक जबरदस्त विश्लेषणात्मक और तर्कसंगत टिप्पणी करती है आपकी कविता ! एक सर्वथा संग्रहनीय और चर्चा योग्य रचना ! बहुत बहुत आभार आपका मोहन जी ! आपकी कवितायेँ हम सब का मार्गदर्शन करती रहें !
ReplyDelete. . आमीन
ReplyDeleteसमय है कि समझ लिया जाए फ़र्क़
ReplyDeleteबुद्धि-व्यवसाइयों और
बुद्धिजीवियों का.
सरोकार जिसके बड़े हों
अपने से 'इतर'
ह्क़ वही अर्जित करता है
कहलाने का बुद्धिजीवी
चालाकी होती है पहचान
अपने हितों का ही दूर तक ध्यान
बुद्धि-व्यवसायी की
अचूक और खरी
निर्विवाद पहचान
एक कटु यथार्थ जिसे समझने की आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है
आपकी चिंता सराहनीय है।
ReplyDeleteहाँ , मुक्तिबोध ने जिन क्रीत- दास बौद्धिकों की चर्चा की है , उन से ग्राम्शी के 'जैविक बुद्धिजीवियों ' या प्रेमचंदीय 'कलम के मजदूरों ' को अलग करना जरूरी है.इन के लिए बुद्धिकर्मी शब्द अधिक मौजूं है.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमोहन जी, यह कविता, सम सामयिक राजनैतिक आंदोलन का एक तरफ़ कच्चा चिठ्ठा खोलती है साथ ही साथ इसमें भाग ले रहे तत्वों का वर्गीय पोस्टमार्टम भी कर देती है, आगह करती है कि जो साथ खडे दिखाई दे रहे हैं वह छद्दम रुप भी हो सकता है और जो दिखाई नहीं पड़ रहा है उसकी उपस्थिती शायद कहीं उससे अधिक कारगर होगी जो भौतिक रुप में जलसे जलूस में शामिल है. वर्गीय चेतना के महत्व को, जैसा कि भाई आशुतोष जी ने अपने व्यक्तव्य में बताया, समय समय पर सभी कलमकारों ने किया है क्योंकि वह जनता के उस वर्ग का समर्थन करते थे जिसके हितों की रक्षा करना उनका पेशा था, आपने भी यही फ़र्ज पूरा किया है, हमारे समय में..कितनी सशक्त पंक्तियां है:
ReplyDeleteसनद रहे ताकि बखत ज़रूरत काम आए
खुलकर स्याह को स्याह कहने वाले
और सफ़ेद की सफेदी बनाए रखने का
सपना पाले हुए
ये लोग ही खड़े होंगे
एक साथ एक-जुट. व्यवस्था को
चमकाने वालों के खिलाफ़.
आज के तमाम अंतर्विरोधों का जबरदस्त जायज़ा लेने वाले इस काव्यात्मक गुलदस्ते को सलाम...
Parmanand Shastri on FB
ReplyDeleteसही बदलाब की आंच पर धूल डालने वालों की रहनुमाई को तार तार कर देगी ...एक का ध्वस्त होना जगा देता है उम्मीदें एक दूसरे सपने की ताबीर की .आज के दौर को चुनौती देती एक बहुत ही शानदार रचना है .हमारे दौर के तमाम लोगों को दर्पण दिखाती है यह रचना .आपका आभार.
Navneet Pandey on FB
समय है कि समझ लिया जाए फ़र्क़
बुद्धि-व्यवसाइयों और
बुद्धिजीवियों का.
सरोकार जिसके बड़े हों
अपने से 'इतर'
ह्क़ वही अर्जित करता है
कहलाने का बुद्धिजीवी
चालाकी होती है पहचान
अपने हितों का ही दूर तक ध्यान
बुद्धि-व्यवसायी की
अचूक और खरी
निर्विवाद पहचान
एक कटु यथार्थ जिसे समझने की आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है
आमीन ......
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