Friday, 10 February 2012

राघवेंद्र रावत की तीन एकदम नई कविताएं

पेशे से इंजीनियर राघवेंद्र रावत का दूसरा कविता संग्रह "एक चिट्ठी की आस में" हाल ही में प्रकाशित हुआ है. उनका पहले कविता संग्रह "अंजुरी भर रेत" राजस्थान साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हुआ था. राघवेंद्र की यह खूबी है कि वह बहुत ही सीधी-सरल भाषा में कविता बुन लेते हैं. उनके यहां छोटे-छोटे अनुभव और अनुभूतियाँ हैं जिनकी विविधता और जीवन से निकटता उल्लेखनीय है. इस संग्रह का लोकार्पण अभी बाक़ी है इसलिए यहां उनकी सिर्फ़ तीन कविताएं बानगी के तौर पर प्रस्तुत कर रहा हूं ताकि राजस्थान के बाहर भी कविता के पाठक उनकी कविता की सादगी और अर्थमयता से परिचित हो सकें. वैसे भी, राघवेंद्र अन्य कवियों से थोड़ा भिन्न इस रूप में भी हैं कि वे नौकरी और संगठन के कामों में मुब्तिला रहते हुए कविता के लिए कम समय ही चुरा पाते हैं. 



 नेरूदा को पढ़ते हुए

ओ सुबह !
सूरज की उंगली पकड़
तुम चली आईं दबे पांव
मौसम के साथ क़दमताल करते
अपने विविध रूपों मैं

शिशिर मैं आईं तुम
ओस में नहाकर
हवा कि शीतल चिकोटी लिए
याद है मुझे

ओ सुबह !
अब लिए हो ताज़गी बसंत की
हर्षित है सरसों
तुम्हें देख कर
गोद में डाले सारे वसन
गुलमोहर, अशोक व गुलदाउदी के
कर दिया आह्वान नवजीवन का
फिर आओगी
भर पिचकारी
फागुन के रंग लिए
टेसू का संग लिए
प्रेम का उपहार लिए
प्रियतम के द्वार

ओ सुबह !
ज़रा ठहरो
भरने दो शीतलता
हृदय में टेसू की
सह सकूं
जेठ का आघात
खिलने दो अमलताश
आने दो अमराई

फिर आई हो
आकाशीय झरनों में नहा कर
मल्हार गाते हुए
कोयल और नीले पंछी के साथ
इस स्पर्श से मिट जायेंगे
धरती के उदास शिखर
अंकुरित होगा आशाओं का तिनाज

तुम आती हो
महक जाते हैं
मोगरे मन के
तुम्हीं पे गुनगुनाती है गौरैया
तुम्हारे स्पर्श से निकलती है गुटर- गूं
शांति कपोतों की

ओ सुबह !
मुझे इंतज़ार है
जब लाओगी
हर दुखी चेहरे पे ख़ुशी
उड़ेंगे उदासी के गुब्बारे हवा में
इस मरुभूमि में
फिर एक बार !





यात्रा- एक

ऊंचे -ऊंचे
पहाड़ उग आए हैं
घर और मेरे बीच
जहां से
लंबी यात्रा पर निकला
कुछ पाने
कुछ खोकर

उसके पार क्या देखूं
वहां नहीं है मां
चूल्हे पर हाथ की रोटियां बनाती
न पिता
उंगली पकड़ कर रास्ता दिखाते
अब घना कोहरा
मेरे भीतर गहराने लगा है
ढांप रहा है मेरी स्मृतियां
मेरे सपने

छत पर कपड़े सुखा रही है
एक
स्त्री
इस धुंधलके में भी
स्टेशन पहुंच रही है एक ट्रेन पीछे छोड़ते हुए
सुख-दुख के तमाम समंदर !



यात्रा -दो


पिता कहते थे
मैं आया था
घर से खाली हाथ
जीवन भर कमाया
धन-यश /सुख-दुख
घर-परिवार

सौंप दिया
सर्वस्व
अनंत यात्रा पर जाने से पूर्व
सिवाय दुखों के
छिपा कर ले गए
मां से बिछुड़ने का दर्द
फिर थे खाली हाथ
आज नहान के वक़्त !

1 comment:

  1. बहुत उम्दा कवितायेँ ......... बधाई

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