एक ज़माना था जब कवि "निर्मित" करने के उद्देश्य से छंद का अभ्यास कराने के लिए एक "समस्या" दी जाती थी, पंक्ति के रूप में. कविता-लेखन में निष्णात बनने के आकांक्षी अपनी रचना में उस दी गई पंक्ति की "तुक" का निर्वाह करते हुए समस्या-पूर्ति करते थे. निर्णायक फ़ैसला सुनाते थे, जैसा कि सभी प्रतियोगिताएं में होता है. जो सफल होते थे वे "सिद्ध" आशु कवि (तुरत-रचना में निपुण: मौक़े के मुताबिक रचना-सक्षम) बनने की राह पर अग्रसर हो जाते थे, और जो उतने सफल नहीं हो पाते थे वे शब्दकोश लेकर बैठ जाते थे, और अगली समस्या की पूर्ति में प्राण-पण से जुट जाते थे. पर कभी-कभी स्थिति इतनी विकट हो जाती थी कि समस्या के रूप में एक पंक्ति निर्धारित करने वाले काव्य-गुरु की जान पर भी बन आती थी. यहां गौर करने लायक़ बात यह है कि इस पूरे उपक्रम में "अर्थमयता" पर उतना ज़ोर नहीं होता था, जितना कि रचना के "रूप तत्व" पर. आग्रह छंद का अभ्यास कराने पर जो होता था.
एक बार का वाकया है कि काव्य-गुरु ने मन ही मन लय को सराहते हुए समस्या रूपी पंक्ति यह दे दी : "आवत नार उछारत नीबू". सारे कवि इस पंक्ति को घोटते हुए सभा स्थल से बाहर निकले. सभी को समस्या बेहद आसान लगी, और सबके मन में एक ही आकांक्षा - कि अगले आयोजन में प्रथम रहना है. किसी को अंदाज़ तक नहीं था कि मामला उतना सीधा-सादा रहने वाला नहीं था. काव्य-गुरु भी पूरी तरह बेखबर, आसन्न संकट से. पर उन्हें तो संकट का सामना प्रतियोगिता के दिन ही करना था. यानि बीच के दिनों में उनकी नींद को कोई खतरा नहीं था. प्रशिक्षु कवियों की हालत बुरी, इतनी बुरी कि न खाना अच्छा लगे, न चैन मिले, और न नींद ही आ कर दे.
जैसा कि कभी-कभी क्रिकेट में होता है, प्रतियोगिता के दिन जल्दी-जल्दी विकिट गिरने लगे : "तू चल, मैं आया" की तर्ज़ पर. एक-एक करके प्रतियोगी उठे, और यह कह कर कि समस्या-पूर्ति नहीं कर पाए, सिर झुका कर अपने स्थान पर वापस आ कर बैठने लगे. काव्य-गुरु तक स्तब्ध इस विफलता के महा आख्यान को देख-सुन कर. जब सबका मान-मर्दन अनुष्ठान पूरा हो गया, तो आखिरी "वीर" उठा, और गला साफ़ करके रचना पढ़ने लगा :
"कीबू न मिल्यो, खीबू न मिल्यो, गीबू न मिल्यो, मिल्यो नहिं घीबू
चीबू न मिल्यो, छीबू न मिल्यो, जीबू न मिल्यो, मिल्यो नहिं झीबू
टीबू न मिल्यो, ठीबू न मिल्यो, डीबू न मिल्यो, मिल्यो नहिं ढीबू
तीबू न मिल्यो, थीबू न मिल्यो, दीबू न मिल्यो, मिल्यो नहिं धीबू
कैसी समस्या दई महाराज कि आवत नार उछारत नीबू?"
काव्य-गुरु का चेहरा फक्क ! यह क्या हुआ !
हुआ कुछ नहीं, "तुक" मिलाने की सीमा ने स्वयं को उद्घाटित कर दिया.
अब संकट यह खड़ा हुआ कि इस आखिरी "वीर" को विजेता माना जाए या नहीं? क़ायदे से तो नहीं किया जा सकता था उसे विजेता घोषित. पर उसने हार भी कहां मानी थी? दूसरे इस पंक्ति को आधार बनाकर जैसी भी समस्या-पूर्ति हो सकती थी वह तो उसने कर भी दी ही थी. यही नहीं, उसने तो अनजाने में काव्य-गुरु को "आइना" भी दिखा दिया था. अर्थ की दृष्टि से एकदम निरर्थक था वह सब जो उसने सुनाया, पर उससे बेहतर तो काव्य-गुरु भी नहीं सुना सकते थे. और कुछ हो न हो, इस प्रकरण से तुकबंदी की अर्थहीनता तो उजागर हो ही गई. और मज़ा यह है कि आज फिर "तुक मिलाने" की क़वायद को कविता के साथ जोड़ने की मांग की जाने लगी है.
एक सत्य घटना से जुड़ा यह बयान, उन मित्रों के नाम जो कविता को फिर से "रससिक्त" बनाने के आग्रह के इर्द-गिर्द माहौल बनाने के लिए प्रयत्नशील दिखते हैं.
worth reading!! A catchy eye opener ;-)
ReplyDeleteइस पोस्ट ने कितनो को राहत पहुंचाई होगी आप इसकी कल्पना ही कर सकते हैं ,मौजू पोस्ट
ReplyDeleteकविता में तुक हो बात यह है तुक में कविता हो यह जरूरी नहीं........वैसे वाकया अच्छा है कविता को समझने और उस्पर विचार करने के लिये बेह्तर उदाहरण भी
ReplyDeleteतुक मिलाने से कविता रससिक्त नहीं हो सकती. अति सरल काव्यमय उक्ति हो सकती है, जिसका सुन्दर इस्तेमाल विज्ञापन के लिए हो सकता है. रसात्मक वाक्य काव्यात्मक हो सकता है, लेकिन कविता केवल उतने भर से भी नहीं बनती.
ReplyDeleteआप इस लेख की अगली कड़ी लिखें, इंतज़ार है. इस विषय पर और सार्थक बातचीत जरुरी है :)
बढिया! लेकिन लय के कारण कविता अधिक सहजता से स्मरण हो पाती है छंदों में।
ReplyDeleteतुकांत जुबान पर आज भी ज्यादा रहता है... जैसे गीत, गजल, दोहा, चौपाई आदि...
आज तो अभिव्यक्ति कोश पर http://www.abhivyakti-hindi.org/tukkosh/tukkosh.php
तुक भी मशीनी तरीके से पेश हो जाता है। हम भी देख लेते हैं नीबू का तुक किसी के साथ!
वैसे शानदार उदाहरण तुक की बाध्यता का!
vaah..आपने जिस सहजता से बात रखी है वह प्रशंसनीय है.. कोई भी असहमत नही हो सकता..टीबू थीबू का काव्य पढ़ना बहुत रोचक लगा..मैंने तो पूरा लेख मुस्कुराते हुए पढ़ा लेकिन निहितार्थ गंभीरता अपना प्रभाव छोडती है.. आभार.
ReplyDeleteतुक की बाध्यता क्यों !!!! मै तो कहता हूँ सरलता की सहजता की भावुकता रस की छंद की बाध्यता क्यों !!! कविता लिखने की भी भाध्यता क्यों !!! गद्य ही लिख मारा जाय जरा टेढा मेढा करके और उसे ही कविता खा जाया .... सब की अपनी अपनी कविता , अपनी अपनी परिभाषा .... हो सके तो रेलवे और नगर निगम के सुचना बोर्ड पर लिखी सामग्री को ही कविता मान लिया जाया !!
ReplyDeleteमै तो कहता हूँ किसी गीत को सुर में गाने की भी भाध्यता क्यों किसी प्रकार से भी रेंकने वाले को गायक मान लिया जाय , कोई कसौटी ही न रखी जाया कोई मापदंड भी जरूरी नही ... लाता मंगेशकर वगैरह को भगा दिया बेसुरों को लाकर मंच पर बैठा दिया जाय खा जाया यह मुक्त गायक है मुक्त गाता है न सुर न ताल बस गाता है .. रबड़ गायकी विधा में !!!
( खा जाया नही ) कहा जाय
ReplyDeleteकविता में अगर भाव हो, सरलता हो, गहराई हो और लय हो ...तू उसका आनंद सभी उठा सकते हैं ...इतनी भारी कविता का क्या फायदा जो कागज़ को ही दबा दे :-) और इस सब के लिए अनावश्यक समझोतों की आवश्यकता नहीं है !!
ReplyDeleteकुछ हौसला मिला...
ReplyDeleteअच्छा लेख हैं। कोइ भी वस्तु सीमा के बाहर इस तरह की हो जाती है। सिर्फ तुकबंदी से ही कविता नहीं होती है। हाँ मगर यह भी सच्चाइ है कि अगर तुक का निर्वाह विचार के साथ हो तो वह स्मरणीय होती है।
ReplyDeletesahi bat hai ashish ji...
Deletesabhi gyani janon ki batein sar mahte , par TUKANT mein jo SAHAJTA ,SARALATA, MITHAS aur KANTHASTH ho jane ki visheshatayein hain ........kshama keejiyega ,AAJ KI tathakathit kavita mein kahaan?.......paramparagat kavita ki bat hi alag hai.......
ReplyDeleteमुझे काका हाथरसी का तुकबंदी शब्द -कोष याद आगया. बहुत अच्छा है. जब कोई वस्तु अति आग्रह का शिकार हो जाती है तो यही होता रहा है, हो जाता है, हो सकता है और होता रहेगा भी --- यह भी एक तरह कि तुक ही है और इसे मैंने जान-बूझकर प्रयोग किया है. हाँ, यह खीबू और झीबू शैली में नहीं है
ReplyDeleteसर, आपकी बातें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं. आपके विशाल अध्यन और ज्ञान के बारे में क्या कहा जाये. बस आप इसी तरह से उसे हम लोगों के बीच बाँटते रहें और कृतज्ञ करते रहें.
ReplyDeleteसईद.
सच कहा आपने छंद हो न हो सार्थक होना जरूरी है
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