परसों बाबा रामदेव अपने साथ पांच हज़ार लोगों को लाकर, और नौ अगस्त को नौ लाख लोगों को दिल्ली लाने की घोषणा करके , अन्ना टीम को चिढ़ा क्या गए, कल ही उसका असर भी दिखाई पड़ गया. कल दोपहर तक भीड़ को ग़ैर ज़रूरी बताने वाले अन्ना शाम तक कुछ हज़ार लोगों के आ जाने से कुछ इतने उत्साहित लगे कि वह 2014 के चुनाव की रूपरेखा बताने लगे, कि कैसे उम्मीदवारों का चयन करेंगे और कैसे संसद को ईमानदार लोगों से भर देंगे, और परिणामस्वरूप जन लोकपाल क़ानून बनवा लेंगे.
कल शाम होते-न-होते खबर आई कि 7, रेसकोर्स रोड (प्रधानमंत्री निवास) के सामने प्रदर्शन के लिए पहुंच गए हैं, अन्ना-भक्त और समर्थक. टीवी पर दिखाया जा रहा था यह सब, प्रदर्शनकारी रोके जाने और धर-पकड़ का प्रतिरोध करते हुए. कल तक अन्ना को शिकायत थी कि बिका हुआ मीडिया उनके अनशन पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था. आज जब मीडिया ने अन्ना टीम से सवाल-जवाब करने चाहे, तो टीम का एक भी सम्मानित और "क्रांतिकारी" सदस्य कोई जवाब देने को तैयार ही नहीं था. स्वयं अन्ना मीडियाकर्मियों से बचते हुए एक महंगी-सी कार की तरफ़ बढने लगे. किरण बेदी का अचानक गला खराब हो गया, यह उन्होंने इशारे से बताया गाड़ी की तरफ़ बढ़ते हुए. सवाल सिर्फ़ यही तो था कि रेसकोर्स रोड के प्रदर्शन के बाद क्या अब और जगह भी ऐसे प्रदर्शन होंगे? क्या यह नई रणनीति है? तो फिर शांतिपूर्ण अनशन की सार्वजनिक घोषणा का क्या हुआ? यह सवाल पूछा जाना इसलिए भी वाजिब और जायज़ है कि पिछले दिनों एजेंडे में कोई न कोई नया बिंदु जुड़ जाता रहा है, हर दिन.
पिछले साल जब यह आंदोलन शुरू हुआ था, तो भ्रष्टाचार को बड़ी और जड़ से उखाड़ फेंके जाने के योग्य समस्या मानते हुए भी, और तमाम "रंगतों के भ्रष्टों" का विरोध करते हुए भी, मेरी यह समझ थी कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार को आंशिक रूप से भी ख़त्म नहीं कर सकता. लोकपाल, उसके पहले "जन" लग जाने के बावजूद अप्रभावी रहेगा, क्योंकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार व अन्य सामाजिक बुराइयों को जन्म देने वाली "पूंजी-केंद्रित" व्यवस्था पर तो कोई चोट करना ही नहीं चाहता. पिछले साल की इसकी शक्ति देख कर यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं था कि यह आंदोलन ज़्यादा-से-ज़्यादा सत्ता-परिवर्तन को समर्पित आंदोलन कहा जा सकता है. पर उससे भ्रष्टाचार पर रोक कैसे लग जाती. कांग्रेस की जगह भाजपा की सरकार आ भी जाए तो न तो आर्थिक नीतियां बदलती हैं, न भ्रष्टाचार की "जड़ों" पर कोई "प्रहार" संभव है. सब ने देख लिया है कि भ्रष्ट येदियुरप्पा ने कैसे पूरी पार्टी को घुटनों पर ला दिया ! सबने यह भी देख ही लिया है रेड्डी बंधुओं ने "ज़मानत" का जुगाड़ बैठाने के क्रम में तीन-तीन न्यायाधीशों की नौकरी ले ली है. राजनीति और न्यायपालिका के नापाक गठबंधन का इससे ज़्यादा शर्मनाक उदाहरण और क्या होगा? सो यह भी साफ़ हो ही गया है कि सत्ता-परिवर्तन यदि अभीष्ट भी हो, तो क्या होने वाला है भविष्य में, वह अभी दिख रहा है.
मीडिया पिछले साल "लाड़ला" था अन्ना टीम का. इसलिए उसे जन लोकपाल के दायरे से बाहर रखा ही जाना था, सब तरफ़ से उठ रही मांग के बावजूद. एनजीओ को भी बाहर रखना था वरना अपने अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और किरण बेदी तो बरबाद ही हो जाते. फ़ोर्ड फाउंडेशन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों से मिलने वाले लाखों डॉलर का हिसाब मांगने लग सकता था कोई भी सिरफिरा. पिछले साल कॉर्पोरेट संस्थानों ने कितनी आर्थिक मदद दी थी अन्ना आंदोलन को, यह भी अब तो उजागर ही है. सो कॉर्पोरेट को तो बाहर ही रखा जाना था, सख्त जन लोकपाल के दायरे से. चुनाव व्यवस्था को भ्रष्ट बनाने में कार्पोरेटी चंदे की कितनी भूमिका है, इसके आंकड़े देकर और इस तरह अन्ना टीम की आंख में उंगली डाल के दिखाने की ज़रूरत है क्या, इस सबके बावजूद भी, कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने की इच्छा तक से प्रेरित-चालित नहीं है.
कुछ लोग, जो ईमानदारी और सच्चे मन से इस आंदोलन से बड़ी-बड़ी उम्मीदें बांध बैठे हैं, कहते हैं कि यह आंदोलन यदि सफल नहीं हुआ/ होने दिया गया, तो भविष्य में कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संगठित और प्रभावी आवाज़ नहीं उठाई जा सकेगी. यह भय और आशंका सही नहीं है. भ्रष्टाचार इस व्यवस्था की अनिवार्य बुराई है. जैसे दलाली, अनापशनाप मुनाफ़ाखोरी, मिलावटखोरी, दहेज प्रथा तथा और बहुत सी बुराइयां हैं. इसके मायने ये हैं कि यह व्यवस्था चलती रहे, और बुराइयां दूर हो जाएं - यह न केवल विरोधाभासी है, बल्कि नामुमकिन भी है. एकमात्र विकल्प यह है कि जनता के व्यापकतम हिस्सों को लामबंद किया जाए सिर्फ़ भ्रष्टाचार को नहीं बल्कि समूची व्यवस्था को उखाड फेंकने के लिए. एक अच्छा चिकित्सक रोग के लक्षणों पर नहीं, रोग की जड़ पर प्रहार करता है. आज ऐसे बड़े उद्देश्य से प्रतिबद्ध व्यापक आंदोलन की तैयारियां बीज रूप में भी यदि नहीं दिख रही हैं, तो इसका यह आशय क़तई नहीं है, कि भविष्य में ही ऐसा नहीं होगा. यह तर्क ठीक नहीं है कि जब तक वैसा न हो पाए इस आंदोलन को तो सफल बनाया ही जाए. समझने की ज़रूरत यह है कि इस तरह के "रंग-रोगन-पलस्तरवादी" आंदोलनों की आंशिक सफलता भी उस बड़े और वांछित बदलाव की लड़ाई की जड़ों में मट्ठा डालने का ही काम करेगी. हालात जिस तरह बिगड़ रहे हैं - आसमान छूती महंगाई, बेरोज़गारी, स्त्रियों के खिलाफ़ बढते अपराध, जान-माल की असुरक्षा, आदि - ये सब ज़मीन तैयार कर रहे हैं नए तरह के जन-उभार के लिए. और इसे संभव बनाने का संदेश दिया-लिया भी जाने लगा है. पांच अहंकारी लोग, जो कभी अपने आपको "पांडव" कह दें और कभी "भगवान", जन आंदोलन के लिए "मुफ़ीद" नहीं हो सकते, क्योंकि अपने बारे में इस तरह के "भ्रम" फैलाने वाले लोग एक फ़ासिस्ट सोच को ही अभिव्यक्त करते हैं. वैसे भी पांडवों ने किस जनता के हितों के लिए लड़ाई की थी? भगवान के बारे में मुझे पता नहीं !
अराजकता की ओर ले जाना आसान है आंदोलन को, पर यह समझ लेना चाहिए सबको कि वैसा हो जाने पर यह शेर की सवारी करने जैसा हो जाएगा. शेर पर जब तक चढ़े हुए हैं, तब तक तो ठीक है. पर उसके बाद? कभी तो उतरना ही होगा. उतरने के बाद का हश्र सबको पता होता है. क्योंकि फिर तो जो भी होना होगा, वह शेर के मन पर ही निर्भर होगा. और ऐसे में शेर क्या करता है यह क़यास लगाने की बात नहीं है.
कल शाम होते-न-होते खबर आई कि 7, रेसकोर्स रोड (प्रधानमंत्री निवास) के सामने प्रदर्शन के लिए पहुंच गए हैं, अन्ना-भक्त और समर्थक. टीवी पर दिखाया जा रहा था यह सब, प्रदर्शनकारी रोके जाने और धर-पकड़ का प्रतिरोध करते हुए. कल तक अन्ना को शिकायत थी कि बिका हुआ मीडिया उनके अनशन पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था. आज जब मीडिया ने अन्ना टीम से सवाल-जवाब करने चाहे, तो टीम का एक भी सम्मानित और "क्रांतिकारी" सदस्य कोई जवाब देने को तैयार ही नहीं था. स्वयं अन्ना मीडियाकर्मियों से बचते हुए एक महंगी-सी कार की तरफ़ बढने लगे. किरण बेदी का अचानक गला खराब हो गया, यह उन्होंने इशारे से बताया गाड़ी की तरफ़ बढ़ते हुए. सवाल सिर्फ़ यही तो था कि रेसकोर्स रोड के प्रदर्शन के बाद क्या अब और जगह भी ऐसे प्रदर्शन होंगे? क्या यह नई रणनीति है? तो फिर शांतिपूर्ण अनशन की सार्वजनिक घोषणा का क्या हुआ? यह सवाल पूछा जाना इसलिए भी वाजिब और जायज़ है कि पिछले दिनों एजेंडे में कोई न कोई नया बिंदु जुड़ जाता रहा है, हर दिन.
पिछले साल जब यह आंदोलन शुरू हुआ था, तो भ्रष्टाचार को बड़ी और जड़ से उखाड़ फेंके जाने के योग्य समस्या मानते हुए भी, और तमाम "रंगतों के भ्रष्टों" का विरोध करते हुए भी, मेरी यह समझ थी कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार को आंशिक रूप से भी ख़त्म नहीं कर सकता. लोकपाल, उसके पहले "जन" लग जाने के बावजूद अप्रभावी रहेगा, क्योंकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार व अन्य सामाजिक बुराइयों को जन्म देने वाली "पूंजी-केंद्रित" व्यवस्था पर तो कोई चोट करना ही नहीं चाहता. पिछले साल की इसकी शक्ति देख कर यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं था कि यह आंदोलन ज़्यादा-से-ज़्यादा सत्ता-परिवर्तन को समर्पित आंदोलन कहा जा सकता है. पर उससे भ्रष्टाचार पर रोक कैसे लग जाती. कांग्रेस की जगह भाजपा की सरकार आ भी जाए तो न तो आर्थिक नीतियां बदलती हैं, न भ्रष्टाचार की "जड़ों" पर कोई "प्रहार" संभव है. सब ने देख लिया है कि भ्रष्ट येदियुरप्पा ने कैसे पूरी पार्टी को घुटनों पर ला दिया ! सबने यह भी देख ही लिया है रेड्डी बंधुओं ने "ज़मानत" का जुगाड़ बैठाने के क्रम में तीन-तीन न्यायाधीशों की नौकरी ले ली है. राजनीति और न्यायपालिका के नापाक गठबंधन का इससे ज़्यादा शर्मनाक उदाहरण और क्या होगा? सो यह भी साफ़ हो ही गया है कि सत्ता-परिवर्तन यदि अभीष्ट भी हो, तो क्या होने वाला है भविष्य में, वह अभी दिख रहा है.
मीडिया पिछले साल "लाड़ला" था अन्ना टीम का. इसलिए उसे जन लोकपाल के दायरे से बाहर रखा ही जाना था, सब तरफ़ से उठ रही मांग के बावजूद. एनजीओ को भी बाहर रखना था वरना अपने अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और किरण बेदी तो बरबाद ही हो जाते. फ़ोर्ड फाउंडेशन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों से मिलने वाले लाखों डॉलर का हिसाब मांगने लग सकता था कोई भी सिरफिरा. पिछले साल कॉर्पोरेट संस्थानों ने कितनी आर्थिक मदद दी थी अन्ना आंदोलन को, यह भी अब तो उजागर ही है. सो कॉर्पोरेट को तो बाहर ही रखा जाना था, सख्त जन लोकपाल के दायरे से. चुनाव व्यवस्था को भ्रष्ट बनाने में कार्पोरेटी चंदे की कितनी भूमिका है, इसके आंकड़े देकर और इस तरह अन्ना टीम की आंख में उंगली डाल के दिखाने की ज़रूरत है क्या, इस सबके बावजूद भी, कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने की इच्छा तक से प्रेरित-चालित नहीं है.
कुछ लोग, जो ईमानदारी और सच्चे मन से इस आंदोलन से बड़ी-बड़ी उम्मीदें बांध बैठे हैं, कहते हैं कि यह आंदोलन यदि सफल नहीं हुआ/ होने दिया गया, तो भविष्य में कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संगठित और प्रभावी आवाज़ नहीं उठाई जा सकेगी. यह भय और आशंका सही नहीं है. भ्रष्टाचार इस व्यवस्था की अनिवार्य बुराई है. जैसे दलाली, अनापशनाप मुनाफ़ाखोरी, मिलावटखोरी, दहेज प्रथा तथा और बहुत सी बुराइयां हैं. इसके मायने ये हैं कि यह व्यवस्था चलती रहे, और बुराइयां दूर हो जाएं - यह न केवल विरोधाभासी है, बल्कि नामुमकिन भी है. एकमात्र विकल्प यह है कि जनता के व्यापकतम हिस्सों को लामबंद किया जाए सिर्फ़ भ्रष्टाचार को नहीं बल्कि समूची व्यवस्था को उखाड फेंकने के लिए. एक अच्छा चिकित्सक रोग के लक्षणों पर नहीं, रोग की जड़ पर प्रहार करता है. आज ऐसे बड़े उद्देश्य से प्रतिबद्ध व्यापक आंदोलन की तैयारियां बीज रूप में भी यदि नहीं दिख रही हैं, तो इसका यह आशय क़तई नहीं है, कि भविष्य में ही ऐसा नहीं होगा. यह तर्क ठीक नहीं है कि जब तक वैसा न हो पाए इस आंदोलन को तो सफल बनाया ही जाए. समझने की ज़रूरत यह है कि इस तरह के "रंग-रोगन-पलस्तरवादी" आंदोलनों की आंशिक सफलता भी उस बड़े और वांछित बदलाव की लड़ाई की जड़ों में मट्ठा डालने का ही काम करेगी. हालात जिस तरह बिगड़ रहे हैं - आसमान छूती महंगाई, बेरोज़गारी, स्त्रियों के खिलाफ़ बढते अपराध, जान-माल की असुरक्षा, आदि - ये सब ज़मीन तैयार कर रहे हैं नए तरह के जन-उभार के लिए. और इसे संभव बनाने का संदेश दिया-लिया भी जाने लगा है. पांच अहंकारी लोग, जो कभी अपने आपको "पांडव" कह दें और कभी "भगवान", जन आंदोलन के लिए "मुफ़ीद" नहीं हो सकते, क्योंकि अपने बारे में इस तरह के "भ्रम" फैलाने वाले लोग एक फ़ासिस्ट सोच को ही अभिव्यक्त करते हैं. वैसे भी पांडवों ने किस जनता के हितों के लिए लड़ाई की थी? भगवान के बारे में मुझे पता नहीं !
अराजकता की ओर ले जाना आसान है आंदोलन को, पर यह समझ लेना चाहिए सबको कि वैसा हो जाने पर यह शेर की सवारी करने जैसा हो जाएगा. शेर पर जब तक चढ़े हुए हैं, तब तक तो ठीक है. पर उसके बाद? कभी तो उतरना ही होगा. उतरने के बाद का हश्र सबको पता होता है. क्योंकि फिर तो जो भी होना होगा, वह शेर के मन पर ही निर्भर होगा. और ऐसे में शेर क्या करता है यह क़यास लगाने की बात नहीं है.
Shreekumar Gudhiyari Menon Goodone sir sharing it.Inme itna sanyam nahi hai inhe dar hai ki ramdev ka andolan jyada sashakt ho gaya to cfedit poora le jayenge issi dar se jaldbaji me hai
ReplyDeleteabout an hour ago · Like
Mohan Shrotriya अराजकता की ओर ले जाना आसान है आंदोलन को, पर यह समझ लेना चाहिए सबको कि वैसा हो जाने पर यह शेर की सवारी करने जैसा हो जाएगा. शेर पर जब तक चढ़े हुए हैं, तब तक तो ठीक है. पर उसके बाद? कभी तो उतरना ही होगा. उतरने के बाद का हश्र सबको पता होता है. क्योंकि फिर तो जो भी होना होगा, वह शेर के मन पर ही निर्भर होगा. और ऐसे में शेर क्या करता है यह क़यास लगाने की बात नहीं है.
about an hour ago · Edited · Like
Vijay Singh Dugar अन्नाजी जैसे विचारवान कैसे दूसरोँ के हाथ की कटपुतली बन जाते है हमने देखा रामदेव जैसोँ का साथ लेना पङा । क्योँ नही अन्ना आम आदमी बनकर रह पाये । लगता है मँहगी हवाई यात्रा मँहगी गाङीयोँ मँहगे हस्पताल अन्ना को रास आने लगी है अन्य बाबाओँ की तरह
about an hour ago via mobile · Like
Mahesh Punetha यह व्यवस्था चलती रहे, और बुराइयां दूर हो जाएं - यह न केवल विरोधाभासी है, बल्कि नामुमकिन भी है. एक मात्र विकल्प यह है कि जनता के व्यापकतम हिस्सों को लामबंद किया जाए सिर्फ़ भ्रष्टाचार को नहीं बल्कि समूची व्यवस्था को उखाड फेंकने के लिए........muje bhi yahi ekmatra rasta najar aata hai.
about an hour ago · Like
Anant Vats copy karne ki izzajat mang raha hoon sir.
about an hour ago via mobile · Like
Mohan Shrotriya शेयर कीजिये कॉपी नहीं.
about an hour ago · Like
Nityanand Gayen इसे कहते हैं अन्ना -राम लीला सर ..
about an hour ago · Like
Ramakant Roy भ्रष्टाचार इस व्यवस्था कि अनिवार्य बुराई है. अगर कोई इसका विरोध करता है तो उसका भी विरोध करें...
about an hour ago · Like · 2
Vijay Singh Dugar भ्रष्टाचार विरोधी भ्रष्टाचारी होने लगे तो क्या होगा
about an hour ago via mobile · Like · 1
Nityanand Gayen जो भ्रष्टाचारी हैं , तो विरोधी कैसे कह सकते हैं उन्हें ?
about an hour ago · Like
Mohan Shrotriya सवाल इसका/ उसका विरोध का नहीं है, इस समझ का है कि व्यवस्था यही बनी रहे फिर भी भ्रष्टाचार दूर हो जाए.@रमाकांत रॉय.
about an hour ago · Like
Ramakant Roy हाँ विजय सिंह दुगर जी, सबने पहले यह दिखाने की खूब कोशिश की कि अन्ना और उनकी टीम भ्रष्ट है. अब यह बता रहे हैं कि वे हो रहे हैं
59 minutes ago · Like
Ramakant Roy नहीं मोहन सर! व्यवस्था बदलनी चाहिए. लेकिन विरोध करनेवाले विरोध कर रहे हैं, सरकार को, भ्रष्ट लोगों को मजबूत बना रहे हैं, कोई विकल्प नहीं सुझा रहे और अगर सुजा रहे हैं तो असर हीन होता जा रहा है.
ReplyDelete57 minutes ago · Like
Nand Bhardwaj सौ टका सही बात। जब तक पूंजीवादी व्यवस्था बरकरार है, भ्रष्टाचार उन्मूलन का संकल्प शाब्दिक जुगाली होकर रह गया है।
51 minutes ago · Like
Mohan Shrotriya मैं तो विरोध नहीं कर रहा असलियत बता रहा हूं. इस आंदोलन से जो नतीजा प्राप्त किया ही नहीं जा सकता, उससे मोहाविष्ट रहना चाहते हैं, रहें. और ध्यान रखें भ्रष्टाचार का मुद्दा सिर्फ़ सरकर से नहीं जुड़ा है. जिन-जिन के नाम गिनाये गए हैं, इसी स्टेटस में, ज़रा गौर तो करें उस सब पर@रमाकांत रॉय
48 minutes ago · Edited · Like · 2
Prem Mohan Lakhotia सच है नाग़वार जिनको, उनको भ्रम भी लगते हैं ख़्वाब जैसे। किसी नाम से हो, कुछ हंगामे चलने चाहिए ताकि हम मान सकें कि हम जाग रहे हैं, चाहे बेचैनी में ही सही - हमको चेता हुआ मान लिया जाये! राम देव और अण्णा बहुतों के लिए अच्छा बहाना है।
44 minutes ago · Edited · Like
Ramakant Roy आपकी भावना का सम्मान करता हूँ सर! मैं जानता हूँ कि आप बेहतर समाज चाहते हैं. समतामूलक समाज! लेकिन आज असलीअत सीधे-२ विरोध की भाषा लिए हुए है. मैंने पूरा पोस्ट पढ़ा था सर और आपके पोस्ट से ही पहली पंक्ति ली थी..
मैंने पढ़ा था सर कि सफाई का काम ऊपर से शुरू करना चाहिए. सीढियां साफ़ करनी हों तो उसके उपरी हिस्से से शुरुआत कि जाती है..
45 minutes ago · Like · 1
Vivek Kumar सत्य यही है कि लोगों को अपने तरीके के अलावा और कोई तरीका न तो पूर्ण लगता है और न प्रासंगिक| बाद की स्थिति की क्या कहें, पर देश मे तो अराजकता की ही स्थिति तो है इससे भी कहाँ इंकार है किसे|
रामदेव और अन्ना टीम का गठजोड़ को मौकापरस्ती कह सकते है, पर वहाँ क्या, जहाँ विपरीत विचारधाराओं वाले दल एक दूसरे के हाथ पकडे मजे मे समय गुजार रहे है| यहाँ एक सख्त बिल की बात करता है और दूसरा काला धन लाने की बात करता है| कोई गलत मांग तो नहीं है यह?
बिल का नाम चाहे कुछ भी हो- लोकपाल, जन लोकपाल, कांग्रेस का लोकपाल या कुछ भी- सख्त हों, कारगर हो|
देश हित मे तो शायद ज्यादातर बुद्धिजीवी ऐसे किसी न मुहीम का हिस्सा बनना पसंद करेंगे जहाँ भ्रष्टाचार उन्मूलन की बात हो रही हो, गर मौका मिले| पर न तो ऐसा कोई सरकारी मुहीम चलता प्रतीत होता है और न ही विपक्षी दलों की तरफ से ही कोई कदम लेता दिख रहा है| असलियत तो सबको मालूम है|
अन्ना मुहीम कितनी सफल होगी या तो भविष्य के ही गर्भ मे है, पर उचित मांग रखना और गलत बात के लिए विरोध दर्ज करना गलत तो नहीं हो सकता|
29 minutes ago · Like · 1
Mukteshwar Kumar apke uchhkoti ke vicharo ka mai samman karta hu
28 minutes ago · Like