तातारी (रूसी) कवि जो सिर्फ़ अड़तीस साल जिए. 1906 में जन्मे और 1944 में उनकी मृत्यु हो गई. 'ऐसा भी होता है कभी-कभी' एक “यातना झेल रहे” कवि-मित्र के बारे में है. कवि-मित्र का नाम न देने का कारण न बताया जाए तो भी समझ आ ही जाना चाहिए . दूसरी कविता 'शॉल' स्वयं उनके जीवन से संबंधित है.
1.ऐसा भी होता है कभी कभी
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि
अविचल बनी रहती है आत्मा हालांकि
मौत की क्रूर आंधी चलती रहती है
चौतरफ़ा. आत्मा का लजीला-सा फूल भी
इतना गर्वीला कि कैसे सिहर जाए:
छोटी से छोटी पंखुड़ी भी बनी रहती है स्थिर.
उसके चेहरे पर दुख और पीड़ा की
छाया तक नहीं है. जो कवि को परेशान
कर सके दुनिया की ऐसी कोई चिंता-फ़िक्र नहीं.
“लिखना – और अधिक लिखना”
यही आकांक्षा है जो संचालित करती है
उसके अशक्य हाथों को.
क्रोधित होकर तुम हत्या भी कर दो, उसे
तुमसे कोई भय नहीं. काया जकड़ी है तो भी
उन्मुक्त है उसकी आत्मा. उसे चाहिए सिर्फ़
काग़ज़ का टुकड़ा और
बस एक पेंसिल
कितनी भी घिसी हुई क्यों न हो.
2. शॉल
जब हम अलग हो रहे थे
उसके प्यारे-से हाथों ने
दिया था मुझे क़शीदाकारी से सज्जित
यह शाल. लड़ाई के मैदान में मिले
घावों पर रख लिया मैंने इसे.
सबसे प्यारी सौगात है यह
मेरे जीवन की.
यह शॉल खून से रंग गया है
प्यारी-सी कहानी कहता हुआ
जैसे लड़ाई के बीचोबीच
झुकी हुई है मेरे सिर पर
मेरी प्रियतमा.
मैंने अपनी एक इंच भूमि पर भी कब्ज़ा
नहीं छोड़ा है. कभी भी नहीं टेके हैं
घुटने दुश्मन के सामने.
पता चल जाता है इस
शॉल से ही
कि कितनी क़द्र करता हूं मैं हमारे प्यार की.
अनुवाद - मोहन श्रोत्रिय
प्यारी-सी कहानी कहता हुआ
जैसे लड़ाई के बीचोबीच
झुकी हुई है मेरे सिर पर
मेरी प्रियतमा.
मैंने अपनी एक इंच भूमि पर भी कब्ज़ा
नहीं छोड़ा है. कभी भी नहीं टेके हैं
घुटने दुश्मन के सामने.
पता चल जाता है इस
शॉल से ही
कि कितनी क़द्र करता हूं मैं हमारे प्यार की.
अनुवाद - मोहन श्रोत्रिय
क्या बात है ..
ReplyDeleteचाहिए बस घिसी हुई पेंसिल और कागज का टुकडा ..
.. और समाज को देते हैं इतनी सशक्त भावपूर्ण रचनाएं ..
समग्र गत्यात्मक ज्योतिष
Bahut khoobsoorat, post, badhai.
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