जून 1976 के पहले सप्ताह में,
मैं पहली बार जेएनयू के नए कैंपस में गया था, उत्तराखंड स्थित नामवरजी के निवास
पर. तब तक जितना भी विकसित था कैंपस, पहली नज़र में बेहद आकर्षक लगा. अप्रेल के
महीने में सतना में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में उदय प्रकाश से हुई
मुलाक़ात काफ़ी घनिष्ठता में बदल गई थी, उन तीन दिनों में ही. उदय ने बेहद आत्मीयता
से यह इच्छा व्यक्त की थी कि मैं जेएनयू आऊं. संयोग से इन्हीं दिनों यूजीसी ने
टीचर फ़ेलोशिप स्कीम शुरू करने का ऐलान कर दिया. तो इसी क्रम में मिलने जाना हुआ
नामवरजी से. मैं पिछले दस साल से अंग्रेज़ी साहित्य का अध्यापन कर रहा था, और इस
वक़्त अजमेर ज़िले के ब्यावर स्थित राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में कार्यरत था.
मेरा मन था कि अंग्रेज़ी-हिंदी तुलनात्मक साहित्य का विषय लेकर जेएनयू में नामवरजी
के निर्देशन में काम करूं. नामवर जी जब जोधपुर में थे तबसे मुझे जानते थे, और वहां
उनसे अक्सर मिलना हो जाता था. उनके जोधपुर-काल में, मैं भीनमाल (ज़िला जालोर) में
था, और (स्वयं प्रकाश के साथ) साहित्यिक त्रैमासिक “क्यों” का संपादन करता था. जोधपुर जाना अक्सर होता था, इसलिए
नामवरजी से मिलना भी होता ही रहता था. प्रगतिशील लेखक संघ के नाम पर भी उनसे जुड़ाव
था ही, तो जब मैंने नामवरजी से यूजीसी की स्कीम के बारे में बताया तो उन्होंने
प्रसन्नता ज़ाहिर की. स्कीम के तहत राज्य सरकार इस सुविधा का लाभ उठाने की स्वीकृति
तभी जारी कर सकती थी जबकि कहीं मेरा प्रवेश-चयन हो जाए.
इस सारी प्रक्रिया के पूरा होने में कुछ वक़्त लगना ही था. अंततः, 16 अगस्त से भारतीय भाषा केन्द्र में टीचर फ़ेलो के रूप में
मेरा नाम जुडना था. जेएनयू पहुंचकर मैं कुछ समय तक उदय के साथ रहा, पेरियार हॉस्टल
के सबसे ऊपरी माले पर. परिवार के साथ रहने के लिए विश्वविद्यालय द्वारा जगह उपलब्ध कराये जाने तक
उदय के साथ ही रहा.
शाम होते ही सारे रास्ते गंगा ढाबा की ओर मुड़ने लगते थे. गर्मागरम चाय के दौर,
और साथ ही और भी गर्म राजनीतिक चर्चाओं के कभी न खत्म होते दौर! छोटे-छोटे समूहों
में बंटे-बैठे लोग अलग दिखते हो सकते थे, पर लगभग सभी चर्चाएं राजनीति के
इर्द-गिर्द ही घूमती थीं, आपातकाल के ढलान के इस दौर में! कुछेक पुराने मित्र अपने
उन साथियों के किस्से भी सुनाते थे, वहीं बैठ कर, नए आए लोगों को. कुछ दिन बाद मैं
ढाबे और चट्टानों के पीछे बने स्टाफ़ क्वार्टर्स में शिफ़्ट हो गया, 720 नंबर के
क्वार्टर में. यह आवास विश्वविद्यालय द्वारा मुझे औपचारिक रूप से आवंटित तो नहीं
हुआ था, पर मूनिस साब ने अनौपचारिक रूप से यह सुविधा मुहैया करा दी थी. यहां रहने
वाले कम्प्यूटर इंजीनियर जीवी सिंह प्रशिक्षण पर बुल्गारिया जा रहे थे, उनसे जब
मूनिस साब ने मेरी समस्या बताई तो वह एक कमरे में अपना सामान-असबाब बंद करके बाक़ी
दो कमरे मुझे सौंप गए. तो गंगा ढाबा यहां से भी उतना ही दूर था, जितना पेरियार
हॉस्टल से. ओल्ड कैंपस से आने पर बस से उतरते ही यहां थे. गंगा ढाबा का एक विस्तार
मेरा घर भी हो गया था, और अक्सर कुछेक मित्र यहां से उठकर वहां भी आ जाते थे.
ढाबे, सड़क-किनारे के भी, जीवंत होते ही हैं, पर गंगा ढाबा की जीवंतता कई
अर्थों में लाजवाब थी. शाम को यह पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता था. क्षेत्रों की
दृष्टि से, मज़हबों, जातियों और पृष्ठभूमियों की विविधता की दृष्टि से भी. दो समूह वामपंथी छात्रों
के थे, और एक फ़्री थिंकर्स का. त्रोत्स्कीवादियों का भी एक समूह था, छोटा-सा.
ठीक-ठाक पढे-लिखे लोग थे ये. दक्षिणपंथी राजनीति अंकुआने बेशक लगी थी पर, मुखर
नहीं थी. एक तरह से आतंकित भी रहती थी. हिंदी पट्टी से आने वाले लोग सहमे-सहमे
रहते थे, अंग्रेज़ियत के माहौल में, पशुपतिनाथ सिंह और घनश्याम मिश्र जैसे अपवाद
बेशक थे. हां, यह कभी समझ नहीं आया कि उर्दू की पृष्ठभूमि वाले लोग इतने बेख़ौफ़ और
मुखर कैसे होते थे ! चाहे अली जावेद हों, या क़मरआग़ा या मौलाना अनीस. और भी कई लोग थे,
जिनके नाम मशक़्क़त करने पर ही याद आ सकते हैं. एक दिलचस्प बात यह भी लगती थी कि
अपने-अपने राज्यों में विद्यार्थी परिषद की राजनीति करते रहे कुछ लोग यहां आते ही
एसएफ़आई में शामिल हो जाते थे. डीपीटी (देवी प्रसाद त्रिपाठी, आजकल राज्य सभा के
सदस्य) से तो यह बात मैंने सीधे उनके स्वयं के बारे में ही पूछी थी. एक बार फिर,
लंबी चर्चा के दौरान अपने घर पर.
अनिल चौधरी (जो अब साठ साल के हो गए हैं), राजेंद्र शर्मा (जिन्हें बाद में लोग
"डिक्टेटर
" कहने लगे, यह
भी तब पता चला जब वह we love jnu से जुड़े), विजय शंकर चौधरी, अली जावेद, उदय प्रकाश, असद ज़ैदी, रमेश दीक्षित,
रमेश दधीच और चमन लाल यहां नियमित रूप से मौजूद होने वाले मित्र थे. कभी-कभी सोहेल
हाश्मी भी. मनमोहन, रामबक्ष आदि मित्र कम बोलने वालों में हुआ करते थे. आपस में तो
खूब बोलते थे, पर समूह में संकोची-वृत्ति थी इनकी. रामनाथ महतो भी बोलते मजबूरी
में ही थे, पर हलके से व्यंग्य अच्छा कर जाते थे. यही हाल महेंद्रपाल शर्मा का
था, पर वह बोलते भी रहते थे, और व्यंग्य भी सटीक कर गुज़रते थे. पंकज सिंह दो-चार
महीने में कभी अचानक अवतरित हो जाते थे, पर उसके बाद टिक कर रह जाते थे. उनसे
मिलना-बात करना बेहद अच्छा लगता था. विजय शंकर और पंकज सिंह से तब के बाद मुलाक़ात
का योग ही नहीं बैठा.
शनिवार की शाम को रीगल बिल्डिंग स्थित टी हाउस जाना होता था, क्योंकि वहां शहर
भर के साहित्यिक मित्रों का जमावड़ा होता था. बाहर से आने वाले मित्रों से भी वहां
मिलना हो जाता था. सो दस बजे से पहले लौटना हो नहीं पाता था. पर बस से उतरते ही
कुछ लोग तो बैठे मिल ही जाते थे गंगा ढाबा पर.. पंद्रह-बीस दिन का वक्फ़ा ऐसा आया,
जब गंगा ढाबा पर लगभग स्थाई अनुपस्थिति रही. वह इसलिए कि परसाईजी सफ़दरजंग अस्पताल
में भर्ती थे, अपनी टूटी टांग का इलाज करा रहे थे. जबलपुर में हुआ ऑपरेशन बिगड़ गया
था, अतः यहां आए थे. जब तक वह वहां रहे मैं नियमित रूप से उनसे मिलने जाता था, और
क़रीब दो घंटे वहां बैठता था. संघियों ने परसाई जी की टांग तोड़ दी थी, उनके लेखन से
त्रस्त होकर. परसाईजी अक्सर हंसते हुए लोगों को बताया करते था कि लड़कों ने घर में
घुसकर उनके पैर छुए, और फिर हॉकी स्टिक से प्रहार करके उनकी टांग तोड़ दी. इसे
मात्र संयोग कहेंगे क्या कि नाथूराम गोडसे ने भी गांधीजी पर गोलियां चलाने से पहले
उनके पैर छूने का उपक्रम किया था? क्या यह
उनकी संस्कृति का हिस्सा है? संस्कृति का या अपसंस्कृति का?
आपातकाल उठने और चुनाव के दिनों का माहौल काफ़ी गर्म और दिलचस्प दोनों ही हुआ
करता था. गंगा ढाबा यानि देशभर की खबरों का प्रामाणिक अड्डा! देश के हर राज्य के
लोग यहां थे, और वे आदतन वहां के अपडेट्स मित्रों से साझा किया करते थे.
जून के महीने में मैं अपने लिए आवंटित रूसी अध्ययन केन्द्र (सीआरएस) के
वार्डेन फ़्लैट में शिफ़्ट हो गया, तो गंगा ढाबा और गीता बुक सेंटर सप्ताह में
तीन-चार दिन का रह गया. एक कारण इसका यह भी था कि चूंकि मैं सपरिवार रहता था, मेरे
कई मित्र परिवारों का मेरे घर आना-जाना बढ़ गया था. इनमें कुछ तो जेएनयू के शिक्षक
मित्र थे, और कुछ यहां से बाहर के साहित्यिक मित्र थे. चूंकि मैं अखिल भारतीय
शिक्षक आंदोलन में भी सक्रिय था तो जेएनयू के शिक्षकों से भी मेरे बड़े घनिष्ठ
संबंध बन गए थे. पर गंगा ढाबा तो एक लत थी, जो छोड़े न छूटे. बाद के दिनों में कुछ
नए युवा मित्र भी यहां से जुड़ गए थे. इनमें पुरुषोत्तम अग्रवाल से काफ़ी उम्मीदें
थीं. समय ने सिद्ध भी कर दिया कि वे उम्मीदें ग़लत नहीं थीं.
पिछले दिनों जब गंगा ढाबा ब्लॉग पर "गेंग्स ऑफ वासेपुर" की समीक्षा पर टिप्पणी कर रहा था तो मन
अतीत की भूली-बिसरी स्मृतियों से भर गया. मित्र आशुतोष कुमार ने आग्रह किया कि मैं
उन दिनों के बारे में कुछ लिखूं. पता नहीं कैसा बन पाया है, पर यह जैसा भी बन सका,
जेएनयू में गंगा ढाबा के केंद्रीय महत्त्व को उकेरने के लिए अतीत में झांकने की
मेरी कोशिश की सूचना तो देता ही है. क्या बेफ़िक्री के दिन थे! मस्ती और उत्साह के
दिन भी!
हां, एक बात और...वहां रहते हुए मैं कभी गंगा हॉस्टल में नहीं रहा था, जिसका
नाम इस ढाबे के साथ जुड़ने पर गंगा ढाबा ने संस्थानिक रूप ग्रहण कर लिया, और पूरे
देश में अपनी पहचान भी बनाई. अगस्त 1979 में मैं राजस्थान वापस आ गया. पर संयोग ऐसा बना कि अंग्रेज़ी
एवं भाषाविज्ञान केंद्र में कार्यरत अपने मित्रों के आग्रह पर चार महीने के लिए
जेएनयू फिर आया, एक विशेष टीचिंग असाइनमेंट पर. सोमवार से शुक्रवार
तक वहां, और फिर दो दिन अपने परिवार के साथ. शुरू में तो मैं अपने मित्र हरीश
नारंग के साथ रहा. वह उस समय पेरियार के वार्डेन थे. बाद के दो महीने, मैं अली
जावेद के साथ रहा था गंगा हॉस्टल में. यह पुनरागमन जैसे पिछली बार रही क़सर को पूरा
करने के लिए ही हुआ था.
जेएनयू से जुड़ना एक अप्रतिम अनुभव था, गंगा ढाबा से जुड़ना
भी लगभग वैसा ही.
आभार कि आप ने अनुरोध का मान रखा .हम जूनियर गंगावासियों को अपने शानदार अतीत की याद दिलाई. नामवर सिंह , उदय प्रकाश और पुरोशत्तम अग्रवाल और डी पी टी के बिना गंगा ढाबे का चक्र पूरा नहीं होता .इनके माध्यम से आपकी पीढ़ी से हमारी पीढ़ी का सीधा रिश्ता जुड जाता है .
ReplyDeleteगंगा ढाबे की खास बात थी -बहसने और बहकने की आज़ादी. यह सच है कि जे एन यू अपनी कक्षाओं और पुस्तकालय से ज़्यादा गंगा ढाबे से सिखाता है . ढाबा एक तरफ लोक संस्कृति से जुडता है, तो दूसरी ओर मध्यकालीन यात्रियों के इतिहास से. यह गल्प ,ज्ञान और रोमान का केन्द्र होता है . गंगा ढाबा यह सब कुछ प्रतीकित करता है .
मेरा अनुरोध सभी पुराने नए गंगावासियों से अनुरोध है कि वे इस श्रृंखला को आगे बढ़ाएँ. इस से एक सामूहिक 'निजी इतिहास' बनता जाएगा.
http://www.apnimaati.com/2012/07/blog-post_11.html
ReplyDeleteअच्छी स्मृतियां हैं... एक इतिहास सामने आ जाता है। आप इसे और विस्तार से लिखेंगे तो और अच्छा लगेगा।
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