(1)
आत्म-मुग्धता हरण कर लेती है विवेक का
और बन जाती है यह
दुधारी तलवार जो
ज़ख़्मी करती है सिर्फ़ उसे नहीं
जिसे हम अपना विरोधी समझने लगते हैं
बल्कि उसको भी जो आज़माता है हाथ
या कहें
भांजता है तलवार को. वहम भी तो
होते हैं पैदा आत्म-मुग्धता से अनिवार्य तौर पर
यानि दुर्निवार होता है बच पाना जिनसे.
ज़िंदगी ने लगाई हैं कितनी ठोकरें
या सिखाए हैं कितने सबक़
इससे मिलती है वह दृष्टि जो
करती है प्रेरित खुद पर चलाते
रहने को चाबुक या यों कहें
कर देती है तैयार अलग तरह से देखने को
चीज़ों को.
(2)
जीवन ने गुज़ारा है इतनी
कड़ी परीक्षाओं से, इतने लिए हैं इम्तिहान
जिनमें फ़ेल हो-होकर भी पास हुआ अंततः
सिर्फ़ इस बूते पर कि
छल, फ़रेब और विश्वासघात को मौक़ा
नहीं दे सकता था मेरी अपनी "खुदी" को तोड़ देने का.
मेरी क़ीमत पर खुशियां मनाने का,
उन सबको जिन्होंने कर दिया था
लगभग सुनिश्चित कि
मैं पगला जाऊं या फिर करलूं
आत्म हत्या. बीस से अधिक साल
हो गए और वे "विचार-वीर" दुखी से
ज़्यादा चकित हैं कि "मैं अभी भी हूं"
यहीं, सबके बीचो-बीच
सक्रिय और प्रसन्न.
(3)
मंज़िलें कितनी भी तय हों
रास्ते सीधे नहीं जाते वहां तक
साथ चलनेवाले भी कहीं भी छिटक कर
हो सकते हैं अलग.
बहुत संभव है
आगे मिल जाएं कुछ और लोग
जिनके साथी भी हो गए हों दूर
उनसे छिटक कर. कुछ समय के लिए
ग़लत साबित हो सकता है
भरोसा करना मनुष्य की जन्मजात
अच्छाई पर. सब कुछ के बावजूद
अच्छाई ही सर्वकालिक सत्य होती है,
आज जो भी लगे.
ईर्ष्याएं जीवित रहती हैं, टुच्चापन भी
और अहंकार भी
ज़ाहिर है, ये प्रतीक हैं अंधेरे के
पर हर अंधेरी सुरंग के परे रौशनी होती है,
कितनी ही मद्धिम और क्षीण क्यों न हो !
आत्म-मुग्धता हरण कर लेती है विवेक का
और बन जाती है यह
दुधारी तलवार जो
ज़ख़्मी करती है सिर्फ़ उसे नहीं
जिसे हम अपना विरोधी समझने लगते हैं
बल्कि उसको भी जो आज़माता है हाथ
या कहें
भांजता है तलवार को. वहम भी तो
होते हैं पैदा आत्म-मुग्धता से अनिवार्य तौर पर
यानि दुर्निवार होता है बच पाना जिनसे.
ज़िंदगी ने लगाई हैं कितनी ठोकरें
या सिखाए हैं कितने सबक़
इससे मिलती है वह दृष्टि जो
करती है प्रेरित खुद पर चलाते
रहने को चाबुक या यों कहें
कर देती है तैयार अलग तरह से देखने को
चीज़ों को.
(2)
जीवन ने गुज़ारा है इतनी
कड़ी परीक्षाओं से, इतने लिए हैं इम्तिहान
जिनमें फ़ेल हो-होकर भी पास हुआ अंततः
सिर्फ़ इस बूते पर कि
छल, फ़रेब और विश्वासघात को मौक़ा
नहीं दे सकता था मेरी अपनी "खुदी" को तोड़ देने का.
मेरी क़ीमत पर खुशियां मनाने का,
उन सबको जिन्होंने कर दिया था
लगभग सुनिश्चित कि
मैं पगला जाऊं या फिर करलूं
आत्म हत्या. बीस से अधिक साल
हो गए और वे "विचार-वीर" दुखी से
ज़्यादा चकित हैं कि "मैं अभी भी हूं"
यहीं, सबके बीचो-बीच
सक्रिय और प्रसन्न.
(3)
मंज़िलें कितनी भी तय हों
रास्ते सीधे नहीं जाते वहां तक
साथ चलनेवाले भी कहीं भी छिटक कर
हो सकते हैं अलग.
बहुत संभव है
आगे मिल जाएं कुछ और लोग
जिनके साथी भी हो गए हों दूर
उनसे छिटक कर. कुछ समय के लिए
ग़लत साबित हो सकता है
भरोसा करना मनुष्य की जन्मजात
अच्छाई पर. सब कुछ के बावजूद
अच्छाई ही सर्वकालिक सत्य होती है,
आज जो भी लगे.
ईर्ष्याएं जीवित रहती हैं, टुच्चापन भी
और अहंकार भी
ज़ाहिर है, ये प्रतीक हैं अंधेरे के
पर हर अंधेरी सुरंग के परे रौशनी होती है,
कितनी ही मद्धिम और क्षीण क्यों न हो !
-मोहन श्रोत्रिय
तीनों कविताएं जीवन का दर्शन समझाती हैं, जिन्हें जानते सब हैं लेकिन समझना कोई नहीं चाहता। पहली कविता खासकर पसंद आई.. आत्ममुग्धता वाकई self-destrustive होती है, हमारे आगे बढ़ते कदम रोक देती है, लेकिन फिर भी अच्छे अच्छे लोग इसके शिकार बन जाते हैं। बधाई इन कविताओं के लिए..
ReplyDeleteअनुभव की गहराई और ऊँचाई बड़ी सुन्दरता से रूपांतरित हो गयी है शब्दों में...
ReplyDeleteआत्म-मुग्धता के नकारात्मक प्रभावों को व्यक्त करते हुए कवि की कलम ने अंतर्दृष्टि तक की राह तय की है कविता में... इस जीवन दर्शन को नमन; वहीँ दूसरी कविता जीवन यात्रा में तमाम विरोधाभाषों के बावजूद प्रसन्न और सक्रीय रहने की उर्जा की बात करती हुई बेहद सुन्दर लगती है और फिर अंतिम कविता अच्छाई के सर्वकालिक सत्य होने का शंखनाद करती हुई मन में कहीं गहरे उतर जाती है!
आपकी तीनों कवितायेँ पढ़ीं थी पहले, आज सभी को एकसाथ पढ़ना बहुत अच्छा लगा!
सोची-समझी की एक और बेहतरीन पोस्ट!
सादर!