लोर्का को याद करते हुए अपने गद्यगीतनुमा स्मृति-लेख में यूनानी महाकवि ओदिसिअस एलाइतिस ने लिखा था, "महत्वपूर्ण यह नहीं कि आप चमकदार मुहावरों को ढूंढते हुए किताब के पन्ने पलटें बल्कि ज़रूरी यह है कि आप अपने आपको एक ऐसी ताक़त के साथ एकात्म महसूस करें जो आपको पेड़ की जड़ों तक ले जाए, जिससे आप दर्द से भरे चेहरों का स्पर्श कर सकें, महत्वपूर्ण यह है कि आप एक कवि के साथ अनंत, अनगढ़ और थरथराते हुए विश्व में यात्रा कर सकें, कुछ इस तरह की अनुभूति के साथ जो आपने अपने बचपन में महसूस की होगी."
आलोचना धर्म के जिन व्यापारियों-पंसारियों ने कविता की वं दृष्टि को भी जड़ीभूत मुहावरों-मंत्रों के रूपवादी काव्यशास्त्र की सिद्धगुटिका में बदल डाला है और जिनका "वाम" सट्टाबाज़ार की 'उड़नछू पूंजी' जैसा छलिया है, उनके लिए शशिप्रकाश की कविताएं महत्वपूर्ण नहीं हो सकतीं. उनके लिए तो ये अप्रिय और उपेक्षणीय ही होंगी. लेकिन साहित्य-संस्कृति और राजनीति के मोर्चे पर जो कुछ नए लोग (निस्संदेह, आज वे कुछ ही हैं) और जो कुछ थोड़े से पुराने, ईमानदार लोग क्रांतिकारी मार्क्सवादी अवस्थिति पर डटे रहते हुए वर्तमान विपर्यय और गतिरोध के कारणों को समझना चाहते हैं और उनकी जड़ों तक जाना चाहते हैं, एक नई शुरुआत और समाज-विकास की गतिकी में जिनका विश्वास अभी भी अक्षुण्ण है और जो, चाहे जिस किसी भी मोर्चे पर, जिस किसी भी रूप में, वर्तमान दमघोंटू गतिरोध के विरुद्ध सक्रिय हैं, उन तमाम लोगों के लिए ये कविताएं महत्वपूर्ण हैं.
-कात्यायनी
सत्यम
नई सदी में भगत सिंह की स्मृति
एक दुर्निवार इच्छा है
या एक पागल-सा संकल्प
कि हमें तुम्हारा नाम लेना है एक बार
किसी शहर की व्यस्ततम सड़क के बीचो-बीच खड़ा होकर
एक नारे, एक विचार, एक चुनौती
या एक स्वगत-कथन की तरह,
जैसे कि पहली बार,
और अपने को एकदम नया महसूस करते हुए.
नहीं,
यह कोई क़र्ज़ उतारना नहीं,
देश की छाती से कोई बोझ हटाना भी नहीं
विस्मृति की ग्लानि का,
(वह यूं कि जब स्मृति थी
तब भी कितना था परिचय वास्तव में?)
यह तो महज़
अंधेरे में रख दिए गए एक दर्पण के बारे में
कुछ बातचीत करनी है अपने-आप से.
सोचना है कि अंधेरे तक
किस तरह ले जाया गया था वह दर्पण
और किस तरह अंधेरा लाया जा रहा है आज
हर उस जगह
जहां कोई दर्पण है.
जहां भी परावर्तन की संभावना,
किरणों का प्रवेश वर्जित है
और कहीं आग लग रही है
कहीं गोली चल रही है.*
हमें तुम्हारा नाम लेना है
उठ खड़े होने की तरह,
देश को धकापेल बनाने या
वाशिंगटन डी.सी. का कूड़ाघर बनाने की
बर्बर-असभ्य या
कला-कोविद कोशिशों के विरुद्ध.
नहीं, यह कोई भाव-विह्वल श्रद्धांजलि नहीं,
यह नीले पानी वाली उस गहरी झील तक
फिर एक यात्रा है
उग आए झाड़-झंखाड़ों के बीच
खो गया रास्ता खोजने की कोशिश करते हुए,
या शायद, कोई भी राह बनाकर वहां तक पहुंचने की जद्दोजहद भी है,
या शायद ऐसा कुछ
जैसे हम किसी विचार के छूटे हुए सिरे को
पकड़ते हैं
आगे खींचने के लिए.
हमें तुम्हारा नाम लेना है
इसलिए नहीं कि तुम्हारे नामलेवा नहीं.
संसद के खम्भे भी तुम्हारा नाम लेते हैं
बिना किसी उच्चारण दोष के
और वातानुकूलित सभागारों में
तुम्हारी तस्वीरें हैं और फूल मालाएं हैं
और धूपबत्तियों का खुशबूदार धुआं है.
एक ख्यातिलब्ध राजनयिक कहता है
कि तुम प्रयोग कर रहे थे क्रांति के साथ
और बाज़ार सुनता है
और रक्त-सने हत्यारे हाथों से
विमोचित हो रही है
तुम्हारी शौर्य-गाथा पर आधारित नई बिकाऊ किताब
और एक बूढ़ा विलासी पियक्कड पत्रकार
अपने अखबारी कालम में तुम्हें याद करता हुआ
अपने पूर्वजों के पाप धो रहा है.
हमें तुम्हारा नाम लेना है
कि वे लोग खूब ले रहे हैं तुम्हारा नाम
जिन्हें खतरा है
लोगों तक पहुंचने से तुम्हारा नाम
सही अर्थों में.
इसलिए सुनिश्चित ऐतिहासिक अर्थों का
संधान करते हुए
हमें फिर थकी हुई नींद में डूबे
घरों तक जाना है लेकर तुम्हारा नाम.
कई बार हमें विचारों को कोई नाम देना होता है
या को संकेत-चिह्न
और हम मांगते हैं इतिहास से ऐसा ही कोई नाम
और उसे लोगों तक
विचार के रूप में लेकर जाते हैं.
हमें तुम्हारा नाम लेना है
एक बार फिर
गुमनाम मंसूबों की शिनाख्त करते हुए
कुछ गुमशुदा साहसिक योजनाओं के पते ढूंढते हुए
जहां रोटियों पर मांओं के दूध से अदृश्य अक्षरों में लिखे
पत्र भेजे जाने वाले हैं, खेतों-कारखानों में दिहाड़ी पर खटने वाले पच्चीस करोड़ मज़दूरों,
बीस करोड़ युवा बेकारों,
उजड़े बेघरों और आधे आसमान की ओर से.
उन्हें एक दर्पण, नीले पानी की एक स्वच्छ झील,
एक आग लगा जंगल और धरती के बेचैन गर्भ से
उफनने को आतुर लावे की पुकार चाहिए.
गंतव्य तक पहुंचकर
अदृश्य अक्षर चमक उठेंगे लाल टहकदार
और तय है कि लोग एक बार फिर इंसानियत की रूह में
हरक़त पैदा करने के बारे में सोचने लगेंगे.**
तुम्हारा नाम हमें लेना है
उस समय के विरुद्ध
जब सजीव चीज़ों में निष्प्राणता भरी जा रही है
एक उज्ज्वल सुनसान में
जहां रहते हैं शिल्पी और सर्जक बस्तियां बसाकर,
और कभी दिन थे, जब हालांकि अंधेरा था,
पर अनगिन कारीगर हाथों ने
मिटटी, राख, रक्त, पानी, धूप और कामनाओं-संकल्पों से-
स्मृतियों-सपनों को गूंथकर गढे थे लोग
विचारों ने बनाया था जिन्हें सजीव-गतिमान.
तुम्हारा नाम हमें लेना है
कि अधबने रास्ते कभी खोते नहीं,
हरदम कचोटते रहते हैं वे दिलों में
जागते रहते हैं
और पीढ़ियों तक धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा के बाद
वे फिर आगे चल पड़ते हैं
और जब भी
पहुंचते हैं अपनी चिर वांछित मंज़िल तक,
तो वहां से
एक नई राह आगे चलने लगती है.
तुम्हारा नाम हमें लेना है
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर पर विश्वास करते हुए और
इतिहास का लंगर छिछले पानी में डालने की***
कोशिशों के खिलाफ़,
और विचारों के खिलाफ़ जारी
चौतरफ़ा युद्ध के खिलाफ़
और उम्मीद जैसे शब्दों को
संग्रहालयों में रख देने के खिलाफ़.
...या तो हमें कविता में लानी है यह बात
या फिर किसी भी तरह की काव्यकला के
आग्रह के बिना ही कह देना है कि
यह सत्ता पलट देनी होगी
जो पूरी नहीं करती हमारी बुनियादी ज़रूरतें
और छीनती है हमारे बुनियादी अधिकार****
और विद्वज्जन हैं कि मुख्य सडकें छोड़कर
पिछवाड़े की गंदगी और कूड़े भरी गलियों से होकर
आ-जा रहे हैं
ढूंढते हुए कविता का अर्थात
मेर्कूरी अव्देविच की तरह*****
और तकिये में सोने की गिन्नियां छुपाए
तीर्थाटन पर निकलने को तैयार हैं भिक्षुवेश में
यदि समय कोई ऐसा वैसा आ-जाए तो.
...बल्कि सबसे अच्छा तो यह होगा कि
बेहद ईमानदार निजी दुखों, प्यार, राग, आदिम सरोकारों,
शब्दों, तरलता, मौन, चिंतन के अकेलेपन,
जनता के सुनसान, पुरस्कार-कामना-बोझिल मन,
सीढ़ियों, रस्सियों, नक़बजनी के औज़ारों और
निर्लिप्त खबरों से भरी
धूसर, चमकीली या सांवली-सलोनी निर्दोष-सी कविताओं के
पाठ के बाद, किसी शाम, जब अपनी बारी आए
तो बस दुहरा दिए जाएं
तुम्हारे ये सीधे-सादे शब्द :
"इंकलाब जिंदाबाद!"
संदर्भ....
* मुक्तिबोध की कविता "अंधेरे में" की पंक्तियां..."कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई..."
**भगत सिंह के प्रसिद्ध कथन का संदर्भ कि..."जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड लेती है" तो इस परिस्थिति को बदलने के लिए ज़रूरी होता है कि "क्रांति की स्पिरिट ताज़ा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरक़त पैदा हो."
***'नौजवान भारत सभा' के घोषणापत्र में उद्धृत मैज़िनी की कविता की पंक्तियाँ हैं :
"लंगर ठहरे हुए छिछले पानी में पड़ता है.
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर पर विश्वास करो
जहां ज्वार हरदम ताज़ा रहता है-
और शक्तिशाली धाराएं स्वतंत्र होती हैं..."
**** 5 मई 1930 को विशेष ट्रिब्यूनल को लिखे अपने पत्र में भगत सिंह ने इसी आशय की बात कही थी.
***** फ़ेदिन के प्रसिद्ध उपन्यास 'पहली उमंगें' का एक कंजूस व्यापारी पात्र.
अगर तुम युवा हो
(एक पोस्टर कविता)
ग़रीबों-मज़लूमों के नौजवान सपूतो!
उन्हें कहने दो कि क्रांतियां मर गईं
जिनका स्वर्ग है इसी व्यवस्था के भीतर.
तुम्हें तो इस नरक से बाहर
निकलने के लिए
बंद दरवाज़ों को तोड़ना ही होगा,
आवाज़ उठानी ही होगी
इस निज़ामे-कोहना के खिलाफ़.
यदि तुम चाहते हो
आज़ादी, न्याय, सच्चाई, स्वाभिमान
और सुंदरता से भरी जिंदगी
तो तुम्हें उठाना ही होगा
नए इन्क़लाब का परचम फिर से.
उन्हें करने दो "इतिहास के अंत"
और "विचारधारा के अंत" की अंतहीन बकवास.
उन्हें पीने दो पेप्सी और कोक और
थिरकने दो माइकल जैक्सन की
उन्मादी धुनों पर.
तुम गाओ
प्रकृति की लय पर ज़िंदगी के गीत.
तुम पसीने और खून और
मिट्टी और रौशनी की बातें करो.
तुम बगावत की धुनें रचो.
तुम इतिहास के रंगमंच पर
एक नए महाकाव्यात्मक नाटक की
तैयारी करो.
तुम उठो,
एक प्रबल वेगवाही
प्रचंड झंझावात बन जाओ.
अंधकार है घना, मगर संघर्ष ठना है
अभी उष्ण है हृदय,
उबलता रक्त धमनियों में बहता है
ऊर्जस्वी इच्छाओं से
मन आप्लावित है
ऊष्मित नित-नूतन सपनों से.
'कला-कला' की कोमल-कांत पदावलियों से
क़लम मुक्त है.
अभी नहीं बाज़ार-भाव पर नज़र टिकी है.
कभी और क़त्तई नहीं हम
नए-नए नारों के चलते सिक्कों की
पूजा करते हैं,
न ही कला की शर्तों पर
राजनीति का भाषण देने के आरोपों से डरते हैं.
अभी हमारे लिए
प्रगति या परिवर्तन या क्रांति शब्द भी
घिसा नहीं है.
नई-नई यात्राओं की
आतुरता अब भी बनी हुई है,
नए प्रयोगों की उत्कंठा अभी शेष है.
अभी सीखने की आकुलता
गई नहीं है.
नए रास्तों पर चलने का
पागलपन भी मरा नहीं है.
सिर्फ़ सुबह का नहीं,
आग उगलती दुपहर का भी
सूर्य अभी अच्छा लगता है.
अभी अनल जो दहक रहा है
ज्वालागिरी के अतल उदर में,
लहक-लहक उठने को बेकल
हो उठता है बीच-बीच में!
ज्वार अभी उठते रहते हैं
गहन और गंभीर महासागर के तल से
आसमान छूने को आतुर.
तूफानी झंझावातों की उम्मीदें अब भी क़ायम हैं.
जनजीवन के संघर्षों के विद्यालय में
अभी प्राथमिक कक्षा में ही
बैठ रहे हैं,
मगर स्नातकोत्तर कक्षाओं तक पढ़ने की,
आजीवन पढते जाने की
अटल और उद्दाम कामना
बनी हुई है.
हाथ मिलाओ साथी, देखो
अभी हथेलियों में गर्मी है.
पंजों का कस बना हुआ है.
पीठ अभी सीधी है,
सिर भी तना हुआ है.
अंधकार तो घना हुआ है
मगर गोलियथ से डेविड का
द्वंद्व अभी भी ठना हुआ है.
एक दुर्निवार इच्छा है
या एक पागल-सा संकल्प
कि हमें तुम्हारा नाम लेना है एक बार
किसी शहर की व्यस्ततम सड़क के बीचो-बीच खड़ा होकर
एक नारे, एक विचार, एक चुनौती
या एक स्वगत-कथन की तरह,
जैसे कि पहली बार,
और अपने को एकदम नया महसूस करते हुए.
नहीं,
यह कोई क़र्ज़ उतारना नहीं,
देश की छाती से कोई बोझ हटाना भी नहीं
विस्मृति की ग्लानि का,
(वह यूं कि जब स्मृति थी
तब भी कितना था परिचय वास्तव में?)
यह तो महज़
अंधेरे में रख दिए गए एक दर्पण के बारे में
कुछ बातचीत करनी है अपने-आप से.
सोचना है कि अंधेरे तक
किस तरह ले जाया गया था वह दर्पण
और किस तरह अंधेरा लाया जा रहा है आज
हर उस जगह
जहां कोई दर्पण है.
जहां भी परावर्तन की संभावना,
किरणों का प्रवेश वर्जित है
और कहीं आग लग रही है
कहीं गोली चल रही है.*
हमें तुम्हारा नाम लेना है
उठ खड़े होने की तरह,
देश को धकापेल बनाने या
वाशिंगटन डी.सी. का कूड़ाघर बनाने की
बर्बर-असभ्य या
कला-कोविद कोशिशों के विरुद्ध.
नहीं, यह कोई भाव-विह्वल श्रद्धांजलि नहीं,
यह नीले पानी वाली उस गहरी झील तक
फिर एक यात्रा है
उग आए झाड़-झंखाड़ों के बीच
खो गया रास्ता खोजने की कोशिश करते हुए,
या शायद, कोई भी राह बनाकर वहां तक पहुंचने की जद्दोजहद भी है,
या शायद ऐसा कुछ
जैसे हम किसी विचार के छूटे हुए सिरे को
पकड़ते हैं
आगे खींचने के लिए.
हमें तुम्हारा नाम लेना है
इसलिए नहीं कि तुम्हारे नामलेवा नहीं.
संसद के खम्भे भी तुम्हारा नाम लेते हैं
बिना किसी उच्चारण दोष के
और वातानुकूलित सभागारों में
तुम्हारी तस्वीरें हैं और फूल मालाएं हैं
और धूपबत्तियों का खुशबूदार धुआं है.
एक ख्यातिलब्ध राजनयिक कहता है
कि तुम प्रयोग कर रहे थे क्रांति के साथ
और बाज़ार सुनता है
और रक्त-सने हत्यारे हाथों से
विमोचित हो रही है
तुम्हारी शौर्य-गाथा पर आधारित नई बिकाऊ किताब
और एक बूढ़ा विलासी पियक्कड पत्रकार
अपने अखबारी कालम में तुम्हें याद करता हुआ
अपने पूर्वजों के पाप धो रहा है.
हमें तुम्हारा नाम लेना है
कि वे लोग खूब ले रहे हैं तुम्हारा नाम
जिन्हें खतरा है
लोगों तक पहुंचने से तुम्हारा नाम
सही अर्थों में.
इसलिए सुनिश्चित ऐतिहासिक अर्थों का
संधान करते हुए
हमें फिर थकी हुई नींद में डूबे
घरों तक जाना है लेकर तुम्हारा नाम.
कई बार हमें विचारों को कोई नाम देना होता है
या को संकेत-चिह्न
और हम मांगते हैं इतिहास से ऐसा ही कोई नाम
और उसे लोगों तक
विचार के रूप में लेकर जाते हैं.
हमें तुम्हारा नाम लेना है
एक बार फिर
गुमनाम मंसूबों की शिनाख्त करते हुए
कुछ गुमशुदा साहसिक योजनाओं के पते ढूंढते हुए
जहां रोटियों पर मांओं के दूध से अदृश्य अक्षरों में लिखे
पत्र भेजे जाने वाले हैं, खेतों-कारखानों में दिहाड़ी पर खटने वाले पच्चीस करोड़ मज़दूरों,
बीस करोड़ युवा बेकारों,
उजड़े बेघरों और आधे आसमान की ओर से.
उन्हें एक दर्पण, नीले पानी की एक स्वच्छ झील,
एक आग लगा जंगल और धरती के बेचैन गर्भ से
उफनने को आतुर लावे की पुकार चाहिए.
गंतव्य तक पहुंचकर
अदृश्य अक्षर चमक उठेंगे लाल टहकदार
और तय है कि लोग एक बार फिर इंसानियत की रूह में
हरक़त पैदा करने के बारे में सोचने लगेंगे.**
तुम्हारा नाम हमें लेना है
उस समय के विरुद्ध
जब सजीव चीज़ों में निष्प्राणता भरी जा रही है
एक उज्ज्वल सुनसान में
जहां रहते हैं शिल्पी और सर्जक बस्तियां बसाकर,
और कभी दिन थे, जब हालांकि अंधेरा था,
पर अनगिन कारीगर हाथों ने
मिटटी, राख, रक्त, पानी, धूप और कामनाओं-संकल्पों से-
स्मृतियों-सपनों को गूंथकर गढे थे लोग
विचारों ने बनाया था जिन्हें सजीव-गतिमान.
तुम्हारा नाम हमें लेना है
कि अधबने रास्ते कभी खोते नहीं,
हरदम कचोटते रहते हैं वे दिलों में
जागते रहते हैं
और पीढ़ियों तक धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा के बाद
वे फिर आगे चल पड़ते हैं
और जब भी
पहुंचते हैं अपनी चिर वांछित मंज़िल तक,
तो वहां से
एक नई राह आगे चलने लगती है.
तुम्हारा नाम हमें लेना है
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर पर विश्वास करते हुए और
इतिहास का लंगर छिछले पानी में डालने की***
कोशिशों के खिलाफ़,
और विचारों के खिलाफ़ जारी
चौतरफ़ा युद्ध के खिलाफ़
और उम्मीद जैसे शब्दों को
संग्रहालयों में रख देने के खिलाफ़.
...या तो हमें कविता में लानी है यह बात
या फिर किसी भी तरह की काव्यकला के
आग्रह के बिना ही कह देना है कि
यह सत्ता पलट देनी होगी
जो पूरी नहीं करती हमारी बुनियादी ज़रूरतें
और छीनती है हमारे बुनियादी अधिकार****
और विद्वज्जन हैं कि मुख्य सडकें छोड़कर
पिछवाड़े की गंदगी और कूड़े भरी गलियों से होकर
आ-जा रहे हैं
ढूंढते हुए कविता का अर्थात
मेर्कूरी अव्देविच की तरह*****
और तकिये में सोने की गिन्नियां छुपाए
तीर्थाटन पर निकलने को तैयार हैं भिक्षुवेश में
यदि समय कोई ऐसा वैसा आ-जाए तो.
...बल्कि सबसे अच्छा तो यह होगा कि
बेहद ईमानदार निजी दुखों, प्यार, राग, आदिम सरोकारों,
शब्दों, तरलता, मौन, चिंतन के अकेलेपन,
जनता के सुनसान, पुरस्कार-कामना-बोझिल मन,
सीढ़ियों, रस्सियों, नक़बजनी के औज़ारों और
निर्लिप्त खबरों से भरी
धूसर, चमकीली या सांवली-सलोनी निर्दोष-सी कविताओं के
पाठ के बाद, किसी शाम, जब अपनी बारी आए
तो बस दुहरा दिए जाएं
तुम्हारे ये सीधे-सादे शब्द :
"इंकलाब जिंदाबाद!"
संदर्भ....
* मुक्तिबोध की कविता "अंधेरे में" की पंक्तियां..."कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई..."
**भगत सिंह के प्रसिद्ध कथन का संदर्भ कि..."जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड लेती है" तो इस परिस्थिति को बदलने के लिए ज़रूरी होता है कि "क्रांति की स्पिरिट ताज़ा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरक़त पैदा हो."
***'नौजवान भारत सभा' के घोषणापत्र में उद्धृत मैज़िनी की कविता की पंक्तियाँ हैं :
"लंगर ठहरे हुए छिछले पानी में पड़ता है.
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर पर विश्वास करो
जहां ज्वार हरदम ताज़ा रहता है-
और शक्तिशाली धाराएं स्वतंत्र होती हैं..."
**** 5 मई 1930 को विशेष ट्रिब्यूनल को लिखे अपने पत्र में भगत सिंह ने इसी आशय की बात कही थी.
***** फ़ेदिन के प्रसिद्ध उपन्यास 'पहली उमंगें' का एक कंजूस व्यापारी पात्र.
अगर तुम युवा हो
(एक पोस्टर कविता)
ग़रीबों-मज़लूमों के नौजवान सपूतो!
उन्हें कहने दो कि क्रांतियां मर गईं
जिनका स्वर्ग है इसी व्यवस्था के भीतर.
तुम्हें तो इस नरक से बाहर
निकलने के लिए
बंद दरवाज़ों को तोड़ना ही होगा,
आवाज़ उठानी ही होगी
इस निज़ामे-कोहना के खिलाफ़.
यदि तुम चाहते हो
आज़ादी, न्याय, सच्चाई, स्वाभिमान
और सुंदरता से भरी जिंदगी
तो तुम्हें उठाना ही होगा
नए इन्क़लाब का परचम फिर से.
उन्हें करने दो "इतिहास के अंत"
और "विचारधारा के अंत" की अंतहीन बकवास.
उन्हें पीने दो पेप्सी और कोक और
थिरकने दो माइकल जैक्सन की
उन्मादी धुनों पर.
तुम गाओ
प्रकृति की लय पर ज़िंदगी के गीत.
तुम पसीने और खून और
मिट्टी और रौशनी की बातें करो.
तुम बगावत की धुनें रचो.
तुम इतिहास के रंगमंच पर
एक नए महाकाव्यात्मक नाटक की
तैयारी करो.
तुम उठो,
एक प्रबल वेगवाही
प्रचंड झंझावात बन जाओ.
अंधकार है घना, मगर संघर्ष ठना है
अभी उष्ण है हृदय,
उबलता रक्त धमनियों में बहता है
ऊर्जस्वी इच्छाओं से
मन आप्लावित है
ऊष्मित नित-नूतन सपनों से.
'कला-कला' की कोमल-कांत पदावलियों से
क़लम मुक्त है.
अभी नहीं बाज़ार-भाव पर नज़र टिकी है.
कभी और क़त्तई नहीं हम
नए-नए नारों के चलते सिक्कों की
पूजा करते हैं,
न ही कला की शर्तों पर
राजनीति का भाषण देने के आरोपों से डरते हैं.
अभी हमारे लिए
प्रगति या परिवर्तन या क्रांति शब्द भी
घिसा नहीं है.
नई-नई यात्राओं की
आतुरता अब भी बनी हुई है,
नए प्रयोगों की उत्कंठा अभी शेष है.
अभी सीखने की आकुलता
गई नहीं है.
नए रास्तों पर चलने का
पागलपन भी मरा नहीं है.
सिर्फ़ सुबह का नहीं,
आग उगलती दुपहर का भी
सूर्य अभी अच्छा लगता है.
अभी अनल जो दहक रहा है
ज्वालागिरी के अतल उदर में,
लहक-लहक उठने को बेकल
हो उठता है बीच-बीच में!
ज्वार अभी उठते रहते हैं
गहन और गंभीर महासागर के तल से
आसमान छूने को आतुर.
तूफानी झंझावातों की उम्मीदें अब भी क़ायम हैं.
जनजीवन के संघर्षों के विद्यालय में
अभी प्राथमिक कक्षा में ही
बैठ रहे हैं,
मगर स्नातकोत्तर कक्षाओं तक पढ़ने की,
आजीवन पढते जाने की
अटल और उद्दाम कामना
बनी हुई है.
हाथ मिलाओ साथी, देखो
अभी हथेलियों में गर्मी है.
पंजों का कस बना हुआ है.
पीठ अभी सीधी है,
सिर भी तना हुआ है.
अंधकार तो घना हुआ है
मगर गोलियथ से डेविड का
द्वंद्व अभी भी ठना हुआ है.
अंधकार तो घना हुआ है
ReplyDeleteमगर गोलियथ से डेविड का
द्वंद्व अभी भी ठना हुआ है.---कोटेबल लाइनें . .
दिल से दिमाग़ तक को झकझोरती कविताएं
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