Saturday, 10 March 2012

अड़तीस साल पहले लिखा था यह

'क्यों'-5 (फ़र.1974) में छपे मेरे संपादकीय नोट्स से कुछ अंश जो आज प्रासंगिक लग रहे हैं.

* इस बीच बहुत कुछ हो गया है. मसलन, प्रतीक की नया प्रतीक के रूप में वापसी, महाजनी पत्रिकाओं की बौखलाहट; उनके द्वारा छोटी पत्रिकाओं व उनके व्यक्तिवादी एवं महत्वाकांक्षी संपादकों का अपने पक्ष में व श्रमजीवी पत्रिकाओं के खिलाफ इस्तेमाल. बहरहाल, यह सब अप्रत्याशित नहीं था. जनवादी चेतना जब प्रखर होने लगती है तो प्रतिक्रियावादी-फ़ासिस्टी ताक़तें अपनी ओर से घेराबंदी शुरू करती ही हैं. प्रतिबद्धता व जनवादी चेतना के विस्तार की अहमियत व अनिवार्यता को ये सब अपनी-अपनी तरह से विरूपित करने की कोशिश करती हैं. (अमरीका भी तो, चाहे हिंद-चीन में हो या लातिन अमरीका में, जन-क्रांतियों को कुचलने की कोशिश करता ही है). सही विचार पर कीचड़ उछालना इनका स्वाभाव व व्यक्तित्व बन जाता है. हॉवर्ड फ़ास्ट ने बहुत पहले कह दिया था: 
फ़ासीवाद सदा सत्य के खिलाफ़ जेहाद बोलकर अपने आपको प्रकट करता है, और यदि लेखक फ़ासीवाद का सामना व उसका प्रतिरोध नहीं करता है तो उसे सबसे पहले बलि अपनी कला की ही देनी होगी.
 ऐसे में जनवादी लेखकों का यह दायित्व बन जाता है कि वे विभिन्न स्तरों पर पनप रही फ़ासिस्टी साज़िशों का सक्रिय विरोध करें, और जनता के दुश्मनों को जनता के सामने लाएं...साम्यवाद-विरोध एक ऐसा षड़यंत्र है जो कि आम आदमी को उसके भविष्य के प्रति सशंक बनाता है. जैसे-जैसे लेखन व राजनीति में भविष्य के अंकुर दिखने लगते हैं, वैसे ही प्रतिक्रियावादी ताक़तें एकजुट होने लगती हैं. साहित्यिक क्षेत्र में यह हलचल व नाकेबंदी छोटी-बड़ी पत्रिकाओं के मंचों पर परिलक्षित हो रही है. अफ़सोस तो तब होता है जब सही किस्म के लोग भी अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इस कुचक्र में शामिल हो जाते हैं. वे लोग तो पासा फेंकेंगे ही. इधर से एक भी व्यक्ति के उधर जाने से उन्हें सम्मानीयता मिलती है, और वे इसकी घोषणा धूम-धाम से करते हैं. पूंजीवादी प्रचारतंत्र का पूरा  फ़ायदा उठाते हैं.

** ...उन्हें ज़्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ी: ऐसे लोग मिल गए जो उनकी ही बात कहने को तैयार थे. जब आम आदमी के साहित्य की बात शुरू की गई तो उधर से प्रतिक्रिया हुई : कौन आम आदमी? कैसा आम आदमी? हमें तो दिखता ही नहीं - न मंच के आसपास, और न भीड़ में. जब प्रतिबद्धता का सवाल हुआ: किससे प्रतिबद्धता? क्या साम्यवादी दल की गुलामी ही प्रतिबद्धता है? प्रतिबद्ध होकर अपनी अस्मिता कैसे बनाए रख सकेंगे? हमारी स्वतंत्रता का क्या होगा? कैसी मज़े की बात है कि अस्मिता का संकट है इन लेखकों के सामने और उसका फ़ायदा मिल रहा है शोषकों को, साम्राज्यवादियों को, क्रांति-विरोधियों को! इन्हें चिंता है उस स्वतंत्रता की जो कि बिकने पर भी बनी रहती है- वह स्वतंत्रता जो साम्यवाद के विरोध में लिखने-बोलने के लिए सीआईए से पैसा दिलवाती है, अमरीकी विश्वविद्यालयों (साम्यवाद-विरोधियों की यहां अच्छी खपत है) में अच्छे पद दिलवाती है. जब-जब ये स्वतंत्रताकामी लोग अस्मिता व स्वतंत्रता की बात करते हैं तो इनका विरोध उस विचारधारा से होता है जो शोषण-विहीनसमाज की स्थापना की गारंटी देती है. स्वतंत्रता की बात करनेवाले पूंजीवाद का विरोध नहीं करेंगे, अमरीका का विरोध नहीं करेंगे, जबकि स्वतंत्रता का गला पूंजीवादी व्यवस्था में ही घोंटा जाता है. इनके नज़दीक स्वतंत्रता का अर्थ है शोषण के खिलाफ़ जेहाद बोलने वालों का अनिवार्य विरोध. पूंजी द्वारा संचालित एजेंसियां इनकी अस्मिता की रक्षा करती हैं, इन्हें "कुंठा-रहित इकाई" बने रहने में मदद करती हैं. यह आपके और मेरे लिए सही हो सकता है कि पूंजीवादी ढांचा कुंठाएं पनपाता है, कि कुंठाहीनता इस व्यवस्था में संभव ही नहीं है. पूंजीवाद को ध्वस्त करके नया समाज बनाना इन्हें "सांचे ढला समाज" लगता है.

*** सार्त्र का अस्तित्ववाद साम्यवादियों को प्रिय इसलिए नहीं हो गया कि वह दल से जुड़ गए (संदर्भ, "त्रयी कवितावृत्त" की भूमिका में व्यक्त जगदीश गुप्त की चिंता), बल्कि इसलिए प्रिय हो गए क्योंकि जनांदोलनों में उन्होंने स्वयं को बदलाव चाहने वालों के साथ जोड़ा, आंदोलनों को दिशा दी. और अस्तित्ववाद की जूठन बीनने वाले अज्ञेय (यह जुमला अज्ञेय का ही है, 'शेखर एक जीवनी' से साभार) इसलिए प्रिय नहीं हो पाए क्योंकि वह लेखक को एक विशिष्ट किस्म का प्राणी मानते रहे हैं, और जनांदोलनों व तब्दीली की आकांक्षाओं को कुचलने वाले साम्राज्यवादियों की सेवाएं उठाते रहे हैं. 'कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम' नामक संस्था के अध्यक्ष की हैसियत से सीआईए से उनके संबंधों का भंडाफोड़ किसी हिन्दुस्तानी अखबार ने तो नहीं किया, अमरीकी अख़बारों ने ही किया. यह भी सर्वविदित है कि इस तथ्य को आज तक काटा नहीं जा सका है. और (जगदीश गुप्त के लिए) अज्ञेय सार्त्र के बराबर इसीलिए हो गए कि उन्होंने 'अपने अपने अजनबी' जैसा अस्तित्ववादी उपन्यास लिखा है! हिंदुस्तान के किस हिस्से की कहानी है यह? अज्ञेय अंग्रेजों के लिए फ़ौज में लड़े तथा क्रांति-विरोधी ही नहीं, क्रांति को अपमानित करने वाला लेखन करते रहे. उनके घोषित साम्यवाद-विरोध से खुश होकर अमरीकी साम्राज्यवादियों ने बार-बार उन्हें अपने यहां बुलाकर विभिन्न पदों पर रख कर पुरस्कृत किया है. सार्त्र ने ऐसा कोई समझौता साम्राज्यवादियों से नहीं किया, बल्कि नोबेल पुरस्कार भी ठुकरा दिया. अज्ञेय, इसके विपरीत, अख़बारों में अफ़वाहें (ख़बरें) "प्लांट" करवाते रहे कि इस पुरस्कार के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया गया है.

5 comments:

  1. एक जरुरी आलेख...यह कितना हास्यास्पद है व्यक्तिवाद, महामौन , अस्तित्ववाद के पोषक तथा असाध्य वीणा बजाने वाले अज्ञेय को हमारे शीर्ष वामपंथी आलोचक भी कंधो पर उठाकर घुमाने लगे हैं ....

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  2. 38 saalon ke baad bhi is sach par dhool aur gard dalne ke prayas darasal usi manasikata ki vazah se hain. nav agyeypanthi apani vaicharik pratibaddhataa me spast hain, aur ab kai poorv-krantikariyon ne bhi unse hath mila liya hai...

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  3. लेख आज भी प्रासंगिक है। तमाम हकीकत इससे मालूम होती हैं।

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  4. बहुत जरूरी है यह हमारे समय में... पूंजी के प्रपंच में किस तरह अच्‍छे खासे लोग प्रतिबद्धता की राह छोड़कर सुगम रास्‍ता चुन लेते हैं...यह हम हिंदुत्‍ववादियों के उभार में भी देख चुके हैं और पिछले 20 वर्षों में अमेरिकी साम्राज्‍यवाद और कार्पोरेट अधिनायकवाद के दौर में भी देख रहे हैं। आपने सही नब्‍ज पकड़ी है और संभव है बहुत से लोग अब विचलन की राह पर जाने से पहले सोचें... लेकिन जो एक बार विचलित हो जाता है, उसके भविष्‍य की गारंटी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं ले सकती...

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  5. Ashutosh Kumar ने फ़ेसबुक पर कहा:

    "वाह, यह लेख मौजूदा संदर्भ में एक विचारोत्तेजक हस्तक्षेप तो कर ही रहा , एक सुनहरे बीते हुए दौर से हो आने का सुख भी दे रहा है. अज्ञेय और सार्त्र में जो फर्क है , उसे भुला कर अज्ञेय का पुनर्मूल्यांकन नहीं हो सकता . आज बहस अज्ञेय की रचनाओं पर नहीं हो रही है , बल्किव्यक्ति अज्ञेय पर या फिर उन के मूल्यांकन पर हो रही है . इस का मतलब यही है कि रचनाओं में अब वह ऊर्जा नहीं बची है , जो नयी बहसों को जन्म दे सके .एक साहित्यिक शक्ति के रूप में अज्ञेय पहले ही मर चुके हैं . (इस माफी के साथ कि यह मुहावरा अज्ञेय की ही है , जो उन्होंने निराला के संदर्भ में इस्तेमाल कियाथा . फिर यह सारी बहस इसतरह क्यों चलाई और ज़िंदा रखी जा रही है ? उस के पीछे कौन से उद्देश्य हैं ?--इसे परखना जरूरी है.
    दूसरी ओर कुछ लोग इसभ्रम में जी रहे हैं कि सिर्फ विचारधारा या व्यक्तिगत जीवन के आधार पर एक लेखक के रूप में अज्ञेय को पूरी तरह खारिज किया जा सकता है और सिर्फ इतना ही कर लेने से हिदी साहित्य को अज्ञेय के प्रभाव से बचाया जा सकेगा . लेकिन साहित्य में ऐसा नहीं होता . भले ही अज्ञेय मर चुके हों , लेकिन वह साहित्यक प्रवृत्ति नहीं मरी है , जिस के वे शीर्ष प्रतिनिधि थे .
    उस प्रवृत्ति का मुकाबला तो केवल अज्ञेय की सम्यक आलोचना के जरिये ही किया जा सकता है."


    Mohan Shrotriya ने फ़ेसबुक पर कहा:

    "अज्ञेय के साहित्यिक अवदान को नकारने की तो बात ही नहीं, कल के एक स्टेटस में भी इस बात को रेखांकित किया था. अफ़सोस इसलिए ज़्यादा था कल, कि अधिकांश लोग गदगद भाव से ले रहे हैं चीज़ों को कि यह भी देखना नहीं चाहते कि इस प्रायोजित उत्सवी माहौल का सच क्या है, और किन लोगों के क्या हित सध रहे हैं इससे. मुझे तभी याद आया कि ये हिस्से कुछ काम के हो सकते हैं. कप्ल्पना कीजिए कि यह अंक पढ़कर नामवरजी कैसे गदगद थे. मैंने कल इसीलिए कहा था कि "तब और अब" का "फ़र्क़-फ़ासला" देखने लायक है."

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