अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर सिद्धेश्वर सिंह की दो कविताएं आपके साथ साझा करना अच्छा लग रहा है. सिद्धेश्वर सिंह चर्चित कवि हैं, चाहे एक ही संग्रह प्रकाशित हुआ है उनका अभी तक. उनके संग्रह "कर्मनाशा" के प्रकाशित होने के पहले ही उनकी कविताओं ने संजीदा पाठकों और कविता से किसी भी तरह का सरोकार रखने वाले मित्रों का ध्यान ठीक से अपनी ओर खींच लिया था. सिद्धेश्वर की पहचान एक सिद्ध अनुवादक के रूप में भी बन गई है. इन दोनों कविताओं पर किसी टिप्पणी की ज़रूरत मुझे नहीं लगती, खासकर इसलिए कि ये अपनी बात, ऊंचे स्वर में, सब तक संप्रेषित कर पाने की क्षमता से संपन्न हैं. व्यंग्य-व्यथा का सहमेल इन कविताओं को विशिष्ट बना देता है.
खुश हो जा मेरी बिट्टो!
यह तेरा वर्ष है.
दक्षेस ने तेरे नाम कर दिया है यह वर्ष
पता है तुझे दक्षेस?
समझ ले दुनिया के सात देश
इस वर्ष तेरी ही चिंता में डूबे हुए हैं.
उन्हें हर हाल में साल रहा है तेरा दुख
वे हर तरफ़ से खोज रहे हैं
तेरे लिए खुशी-- तेरे लिए सुख.
सात भाइयों की तरह
तुझे चंवर डुला रहे हैं सात देश.
देश किसे कहते हैं
यह मत जान मत सोच
छोटे-से बाल मस्तिष्क पर
मत डाल इतना गुरुतर बोझ
इस वर्ष तू मुस्कान बिखेरती रह
तेरी ओर टकटकी बांधे देख रहा है
समूचा प्रचारतंत्र, प्रजातंत्र और राजतंत्र.
इस वर्ष तू भूख की बात मत कर
मत रो कि तेरे कपडे तार-तार हो गए हैं
गुमसुम मत बैठ कि तेरे पास कोई खिलौना नहीं है
तेरे पास एक वर्ष है बिट्टो! हर्ष कर!
पूरे तीन सौ पैंसठ दिन
तेरे नाम कर दिए गए हैं
हमारे प्रति कृतज्ञ रह और काम कर.
अपने चेहरे की तरह चम्कडे घर के सारे बासन
कोयले से मत लिख क ख ग
फ़र्श पर फैला मत गंदगी.
चूल्हे पर अदहन तैयार है
पूरे कुनबे के लिए भात रांध और माड पी
यह तेरा वर्ष है - तुझे तंदुरुस्त देखना है
बचना है हारी-बीमारी से !
राजधानियों में
दीवारों पर चस्पां हैं तेरे पोस्टर
मेजों पर बिखरी पड़ी हैं
तेरी रंगीन पुस्तिकाएं
टेलिविज़न के परदे पर तू उछल-कूद कर रही है
देख तो इस वर्ष तुझे कितनी फ़ुर्सत हो गई है
नन्हे खरगोशों की तरह
तू एक साथ सात देशों की ज़मीन पर खेल रही है.
वर्ष बीतने पर
क्या तू सचमुच मांद में दुबक जाएगी मेरी बिट्टो !
या एक वर्ष तक हर्ष मनाकर
बिल्कुल ठक जाएगी मेरी बिट्टो!
वर्षांत क़रीब है
यह तेरा वर्ष है बिट्टो ! तू खुश रह!
बेटी
घास पर
ठहरी हुई ओस की एक बूंद
इसी बूंद से बचा है
जंगल का हरापन
और समुद्र की समूची आर्द्रता.
सूर्य चाहता है इसका वाष्पीकरण
चंद्रमा इसे रूपायित कर देना चाहता है हिम में
मधुमक्खियां अपने छत्ते में स्थापित कर
सहेज लेना चाहती हैं इसकी मिठास
कवि चाहते हैं
इस पर कविता लिख कर अमरत्व हासिल कर लेना.
मैं एक साधारण मनुष्य
एक पिता
क्या करूं?
चुपचाप अपनी छतरी देता हूं तान
गोकि उसमें भी हो चुके हैं कई-कई छिद्र.
बाहर लगातार
बढ़ रहा है सूर्य का ताप
क्या करूं मैं?
क्या कर रहे हैं आप?
रास्ट्रीय व् अंतर राष्ट्रीय नवतर योजनाओके बावजूद हमारी बिट्टो , स्त्री खुश है ऐसा जब हम मान सके..क्यूंकि ये केवल बिट्टो की बात नहीं है. मुजे तो लगता है कब हमारी बिट्टो छुई मुई ओस से बदलेगी.. और खल खल बहता धरा बन जाये.. अपनी ही आभासे मंड जाये..
ReplyDeleteपहली कविता 'बालिका वर्ष' में एक शब्द के हिज्जे ग़लत हो गए हैं, उस पंक्ति को ऐसे पढ़ें..."अपने चेहरे की तरह चमका दे घर के सारे बासन"
Deleteठीक अवसर पर सटीक कविताएँ. चयन की इस दृष्टि को सलाम. सिद्धेश्वर भाई के पास कविता के कई रंग हैं.
ReplyDeleteसच को इतने मार्मिक अंदाज़ में उधेडती है ये कवितायें कि खुद अपने होने पर शर्म आ जाती है..अन्दर तक भेदते है शब्द...शुक्रिया आपका...
ReplyDeleteप्रभावशाली प्रस्तुति ! एक धार में बहता हुआ व्यंग !सिद्धेश्वर जी को बधाई ,और आपका आभार !
ReplyDeleteआभार इस प्रस्तुति के लिए!
ReplyDeleteसमझ ले दुनिया के सात देश.....इस वर्ष तेरी ही चिंता में डूबे हुए हैं... क्या करूँ मैं?? क्या कर रहे हैं आप?? कविता सच में सोचने को विवश करती है.. और निकलती है तो सिर्फ एक प्रार्थना..कृप्या बेटियों को बचाएं..! कवि को हार्दिक बधाई!! मोहनजी का हार्दिक आभार!!
ReplyDeletesiddheshwar ji ki kavitayen gahre tak utarti hain aur tik jaati hain.. bhav bahut spasht roop se sampreshit hota hai.. aur bhigo deta hai.. badhai siddheshwar ji.. abhar sir..
ReplyDeleteअद्भुत कवितायेँ हैं. पहली कविता बहुत गहरे स्पर्श करती है.शेयर करने के लिए आभार.
ReplyDeleteसटीक और अच्छी कवितायें है ...
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