चार-पांच दिन पहले, जब विमलेश त्रिपाठी के स्टेटस पर एक कवितानुमा रचना पढ़ी, उस पर टिप्पणी की और उसे शेयर भी किया, तब से ही कई तरह की बातें दिमाग़ की 'दांय' करने में लगी हैं. उस रचना का लब्बोलुबाव तो इतना भर था-- एक ने 'क' से लिखा 'कविता', दूसरे ने 'क' से लिखा 'कहानी' और तीसरे ने 'कुछ' भी न लिखा, और पुरस्कार उस तीसरे व्यक्ति को ही मिल गया. इसमें ऐसा क्या था जिससे मेरे दिमाग़ की दांय होनी चाहिए थी. मित्र, अमित्र, शत्रु सब एकमत हो कर कहेंगे, 'कुछ भी नहीं.' तो फिर?
'क' से 'कई' भी होता है, यानि कई बातें सिर उठाने लगीं. पहली तो यह कि वह रचना 'कविता' कही जा सकती भी है या नहीं? 'क' से बनता है 'कथ्य'. तो यदि वह 'कविता' है, तो उसमें कोई 'कथ्य' भी है या नहीं? 'क' से बनता है 'क्या', तो क्या 'कविता' और 'कहानी' लिख देने भर से इस रचना का 'कथ्य' निर्मित हो गया? या वह निर्मित हुआ तीसरे के 'कुछ न' लिखने से? या फिर 'कुछ न लिखने वाले' के पुरस्कृत हो जाने से? क्या वास्तव में ऐसा होता है /हो सकता है? यदि हां, तो भी क्या यह किसी क़ायदे की रचना का उपयुक्त कथ्य बन सकता है?
अच्छी रचनाओं को पीछे धकिया कर, बुरी ( या उतनी अच्छी नहीं) रचनाएं तात्कालिक रूप से यदा-कदा आगे आ जाएं और कम समर्थ रचनाकार अधिक समर्थ रचनाकारों से आगे निकल जाएं, दौड में; यह भी संभव है. हो भी चुका होगा कई बार. पर इस सबकी पड़ताल 'कभी' बाद में 'क्योंकि' इस समय, प्रमुख मुद्दा एकांतिक रूप से यह हो भी नहीं सकता.
कविता की मृत्यु की घोषणाएं इतनी बार हो चुकी हैं कि इनकी गिनती रख पाना भी संभव नहीं. पर इन तमाम घोषणाओं के बावजूद कविता न केवल ज़िंदा है, बल्कि उसकी सेहत भी पूरी तरह से ठीक है. अभी तीन दिन पहले ही बाबुषा की बहुत बढ़िया कविता पढ़ने को मिली :"वसीयत." पिछले सप्ताह लीना मल्होत्रा की "प्रतिलिपि" में छपी तीन कविताएं पढ़ीं. प्रेमचंद गांधी की कविता 'भाषा की बारादरी' भी इसी बीच आई. हरीश करमचन्दाणी की कविताएं भी. आवेश तिवारी की श्वेताम्बरा श्रृंखला की कविताओं के अलावा दूसरी कविताएं, अंजू शर्मा की कविता जिस पर तो लगभग घमासान ही मच गया था. अरुण देव और अपर्णा मनोज की भी विशेष ध्यानाकृष्ट करने वाली दो-दो कविताएं. तो बीस दिन के भीतर इतनी सारी अच्छी कविताओं का फेसबुक पर आ जाना एक अच्छा संकेत है. ये सिर्फ़ उदहारण हैं. कथ्य और शिल्प जहां एकमेक हो गए हैं. कथ्यविहीन कविताएं भी आ रही हैं, शब्दों के मनमाने प्रयोग वाली कविताएं भी. दो-तीन मित्र लोग मिलकर किसी कवि को 'जोड़-तोड़' से दूर रहने वाला घोषित कर देते हैं, और किसी को 'सबसे कम जादुई', और यह 'अहो रूपम, अहो ध्वनि' का खेल चलता है; तीन-चार मित्र मिलकर किन्हीं दो मित्रों को 'कविता के सबसे अधिक संजीदा आलोचक' घोषित कर देते हैं. और ध्यान देने की बात यह है कि जो कुछ भी इस घेरे के बाहर हो रहा है, वह उल्लेखनीय नहीं है इनकी नज़र में. कहीं कोई पुरस्कार/ सम्मान घोषित हो गया तो " कितनी कविताएं, कितने सम्मान" (!) जैसा उच्छ्वास निकलता है. अरे भाई, कवि हो तो किसी कवि के सम्मान पा जाने पर ऐसी टिप्पणी करने की क्या जरूरत है? और सम्मानों से ही परहेज़ करते हो या उन्हें स्वस्थ / सार्थक रचनाशीलता के लिए घातक मानते हो, तो सभी सम्मानितों /पुरस्कृतों को एक ही नज़र से देखो. या फिर खुलकर यह कहो कि फलां कवि को ग़लत आधारों पर पुरस्कृत/ सम्मानित किया गया है. तर्कसम्मत विश्लेषण कर सको तो 'सोने पर सुहागा.' पर दुर्भाग्य से यह सब हो नहीं रहा.
मैंने पिछली बार, अपने ब्लॉग 'सोची-समझी' पर, 'क' से कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की दो कविताएं दी थीं. ये कविताएं 1974 में, हमने 'क्यों' में छापी थीं. यों उस अंक में उनकी आठ कविताएं छपी थीं. ये दोनों कविताएं उस वक़्त बेहद सराही गई थीं. 'कथ्य' की दृष्टि से देखें तो इस देश में अभी तक भी ऐसा कुछ नहीं घटित हो गया है, सामाजिक-राजनैतिक तौर पर, कि इन कविताओं की प्रासंगिकता कम/ खत्म हो गई हो. यह मानने के भी कोई कारण नहीं दिखते कि कुमारेन्द्र पारस नाथ सिंह के कृतित्व से परिचित लोग फेसबुक पर सक्रिय नहीं हैं. इसके एक दम उलट, यहां सक्रिय लोगों में सर्वाधिक कवि-टिप्पणीकार वे ही हैं जो भौगोलिक रूप से भी उस इलाके से / आसपास से आते हैं जो कुमारेंद्र की रचना भूमि/ कर्म भूमि था. मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं? सिर्फ़ यह बात सार्वजानिक करने के लिए कि किसी भी रचना के संभाव्य प्रभाव का अनुमान लगा पाने में मैं पहली बार चूक गया. मुझे इन कविताओं को साझा करते वक़्त यह लगा था कि बहुत सारे कवि, संजीदा पाठक, और टिप्पणीकार इन कविताओं से नए सिरे से रू-ब-रू होने पर न केवल प्रसन्नता ज़ाहिर करेंगे, बल्कि इनकी समकालीन सन्दर्भों में प्रासंगिकता को रेखांकित करने का प्रयत्न भी करेंगे. अपनी विरासत से नए लोगों का परिचय भी वरना कैसे होगा? ऐसा हुआ नहीं. मुझे क्यों बुरा लगना चाहिए? कुमारेन्द्र अब हैं नहीं हमारे बीच, तो वह तो अच्छा/ बुरा लगने की ज़द से बहुत दूर जा चुके हैं. हां, फिर भी मुझे बुरा लगा. इसलिए कि मैं फेसबुक पर सक्रिय ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो कुमारेन्द्र का जब-तब उल्लेख भी करते रहे हैं अपने आलोचनात्मक लेखन में, और दो-चार दिन में कहीं 'लाइक' करके या एकाध वाक्य की टिप्पणी करके कुछ लोगों से अपना जुड़ाव भी व्यक्त करते रहते हैं. 'गंभीर कविता' की अनदेखी, और 'न-कविता' की प्रशस्ति -ये दोनों ही अपराध हैं, ख़ासकर उनके लिए जो कविता से अपनी प्रतिश्रुति घोषित करते रहते हैं. कुमारेन्द्र की इन कविताओं पर कुल 6 टिप्पणियां ( जिनमें से चार ने कविता की पंक्तियाँ उद्धृत भर कर दी थीं) आईं. एक, आशुतोष कुमार की तरफ़ से, आई जिसे पूरी टिप्पणी कहा जा सकता है :"इन कविताओं को फिर से पढ़ना महज़ कविता पढना नहीं है . उस गुजरे हुए दौर को पढ़ना भी है , जब अन्याय के खिलाफ शब्द हथियारों की तरह बरते जा रहे थे. और इस दौर में उस दौर को पढ़ना जब ' अन्याय ' और ' प्रतिरोध ' शब्द मात्र की तरह पढ़े जा रहे हों !"
कविता यदि हमारी मनःस्थितियों का चित्रण भर करती है तो वह कोई ख़ास तीर मार लेने वाला काम नहीं बन पाता. और फिर हम आलोचकों को कोसने लगते हैं; शिकायत करने लगते हैं कि उनकी वजह से "कविता की जान सांसत में" है, जबकि सच यह है कि अपनी जान को ही सांसत में महसूस कर रहे होते हैं. मज़ा देखिए, कि जान सांसत में है फिर भी हम कविता को अपना पर्याय बना लेते हैं.
यह फेसबुक की सीमा नहीं है, उसे बरतने वालों की, उस पर सक्रिय लोगों की विशिष्टता है या 'विशिष्ट' दिखने की चाहत है. क्या कविता में लोकतंत्र तब तक क़ायम हो सकता है जब तक कि कवियों और आलोचकों की लोकतंत्र में निष्ठा न हो? कवि को आलोचक तब तक ही अच्छे लगते रहें जब तक कि वे उस की प्रशंसा करते रहें? अपने अलावा अन्य कवियों की प्रशंसा में अपनी 'हेठी' क्यों माननी चाहिए? महिला कवि की प्रशंसा हो तो उसे 'लैंगिक पक्षपात' के रूप में ही क्यों देखा जाना चाहिए? कविता की अथवा किसी भी विधा में प्रस्तुत रचना की किसी वस्तुपरक कसौटी का तो मान किया ही जाना चाहिए. चार-छह पंक्तियों की कविताएं अपवाद स्वरुप ही टिकाऊ महत्त्व की हो सकती हैं, यह तो सहज बुद्धि से समझ में आ जाना चाहिए. डेढ़ पंक्ति के वाक्य में पूरी कविता यदि आ जाती है, एक साथ लिखने पर, तो उसके 'कालजयी' होने का भ्रम तो नहीं ही पाला जाना चाहिए.
फेसबुक सामाजिक अंतरजाल से जुड़ने का माध्यम यदि है, जैसा कि इसे कहा जाता है, तो क्या इसका निहितार्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि इससे जुड़ने का मतलब है अधिक सामाजिक होना. सामाजिकता विकसित होने/ करने की एक अन्तर्निहित शर्त यह भी है कि व्यक्तिवादी आग्रहों को तिरोहित करने की प्रक्रिया से जुड़ लिया जाए. तभी कदाचित कविता का, और फिर कवि का, स्थान वैसा बन पाए जैसा हर कवि 'अपने लिए' चाहता है. मर्यादा बनाए रखकर की जाने वाली हर बहस इस दिशा में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करेगी, प्रत्येक के लिए. ऐसा मुझे लगता है. ज़रूरी नहीं कि आप इससे सहमत हों. विचार और चर्चा का फौरी प्रस्थान बिंदु तो यह बन ही सकता है.
'क' से 'कई' भी होता है, यानि कई बातें सिर उठाने लगीं. पहली तो यह कि वह रचना 'कविता' कही जा सकती भी है या नहीं? 'क' से बनता है 'कथ्य'. तो यदि वह 'कविता' है, तो उसमें कोई 'कथ्य' भी है या नहीं? 'क' से बनता है 'क्या', तो क्या 'कविता' और 'कहानी' लिख देने भर से इस रचना का 'कथ्य' निर्मित हो गया? या वह निर्मित हुआ तीसरे के 'कुछ न' लिखने से? या फिर 'कुछ न लिखने वाले' के पुरस्कृत हो जाने से? क्या वास्तव में ऐसा होता है /हो सकता है? यदि हां, तो भी क्या यह किसी क़ायदे की रचना का उपयुक्त कथ्य बन सकता है?
अच्छी रचनाओं को पीछे धकिया कर, बुरी ( या उतनी अच्छी नहीं) रचनाएं तात्कालिक रूप से यदा-कदा आगे आ जाएं और कम समर्थ रचनाकार अधिक समर्थ रचनाकारों से आगे निकल जाएं, दौड में; यह भी संभव है. हो भी चुका होगा कई बार. पर इस सबकी पड़ताल 'कभी' बाद में 'क्योंकि' इस समय, प्रमुख मुद्दा एकांतिक रूप से यह हो भी नहीं सकता.
कविता की मृत्यु की घोषणाएं इतनी बार हो चुकी हैं कि इनकी गिनती रख पाना भी संभव नहीं. पर इन तमाम घोषणाओं के बावजूद कविता न केवल ज़िंदा है, बल्कि उसकी सेहत भी पूरी तरह से ठीक है. अभी तीन दिन पहले ही बाबुषा की बहुत बढ़िया कविता पढ़ने को मिली :"वसीयत." पिछले सप्ताह लीना मल्होत्रा की "प्रतिलिपि" में छपी तीन कविताएं पढ़ीं. प्रेमचंद गांधी की कविता 'भाषा की बारादरी' भी इसी बीच आई. हरीश करमचन्दाणी की कविताएं भी. आवेश तिवारी की श्वेताम्बरा श्रृंखला की कविताओं के अलावा दूसरी कविताएं, अंजू शर्मा की कविता जिस पर तो लगभग घमासान ही मच गया था. अरुण देव और अपर्णा मनोज की भी विशेष ध्यानाकृष्ट करने वाली दो-दो कविताएं. तो बीस दिन के भीतर इतनी सारी अच्छी कविताओं का फेसबुक पर आ जाना एक अच्छा संकेत है. ये सिर्फ़ उदहारण हैं. कथ्य और शिल्प जहां एकमेक हो गए हैं. कथ्यविहीन कविताएं भी आ रही हैं, शब्दों के मनमाने प्रयोग वाली कविताएं भी. दो-तीन मित्र लोग मिलकर किसी कवि को 'जोड़-तोड़' से दूर रहने वाला घोषित कर देते हैं, और किसी को 'सबसे कम जादुई', और यह 'अहो रूपम, अहो ध्वनि' का खेल चलता है; तीन-चार मित्र मिलकर किन्हीं दो मित्रों को 'कविता के सबसे अधिक संजीदा आलोचक' घोषित कर देते हैं. और ध्यान देने की बात यह है कि जो कुछ भी इस घेरे के बाहर हो रहा है, वह उल्लेखनीय नहीं है इनकी नज़र में. कहीं कोई पुरस्कार/ सम्मान घोषित हो गया तो " कितनी कविताएं, कितने सम्मान" (!) जैसा उच्छ्वास निकलता है. अरे भाई, कवि हो तो किसी कवि के सम्मान पा जाने पर ऐसी टिप्पणी करने की क्या जरूरत है? और सम्मानों से ही परहेज़ करते हो या उन्हें स्वस्थ / सार्थक रचनाशीलता के लिए घातक मानते हो, तो सभी सम्मानितों /पुरस्कृतों को एक ही नज़र से देखो. या फिर खुलकर यह कहो कि फलां कवि को ग़लत आधारों पर पुरस्कृत/ सम्मानित किया गया है. तर्कसम्मत विश्लेषण कर सको तो 'सोने पर सुहागा.' पर दुर्भाग्य से यह सब हो नहीं रहा.
मैंने पिछली बार, अपने ब्लॉग 'सोची-समझी' पर, 'क' से कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की दो कविताएं दी थीं. ये कविताएं 1974 में, हमने 'क्यों' में छापी थीं. यों उस अंक में उनकी आठ कविताएं छपी थीं. ये दोनों कविताएं उस वक़्त बेहद सराही गई थीं. 'कथ्य' की दृष्टि से देखें तो इस देश में अभी तक भी ऐसा कुछ नहीं घटित हो गया है, सामाजिक-राजनैतिक तौर पर, कि इन कविताओं की प्रासंगिकता कम/ खत्म हो गई हो. यह मानने के भी कोई कारण नहीं दिखते कि कुमारेन्द्र पारस नाथ सिंह के कृतित्व से परिचित लोग फेसबुक पर सक्रिय नहीं हैं. इसके एक दम उलट, यहां सक्रिय लोगों में सर्वाधिक कवि-टिप्पणीकार वे ही हैं जो भौगोलिक रूप से भी उस इलाके से / आसपास से आते हैं जो कुमारेंद्र की रचना भूमि/ कर्म भूमि था. मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं? सिर्फ़ यह बात सार्वजानिक करने के लिए कि किसी भी रचना के संभाव्य प्रभाव का अनुमान लगा पाने में मैं पहली बार चूक गया. मुझे इन कविताओं को साझा करते वक़्त यह लगा था कि बहुत सारे कवि, संजीदा पाठक, और टिप्पणीकार इन कविताओं से नए सिरे से रू-ब-रू होने पर न केवल प्रसन्नता ज़ाहिर करेंगे, बल्कि इनकी समकालीन सन्दर्भों में प्रासंगिकता को रेखांकित करने का प्रयत्न भी करेंगे. अपनी विरासत से नए लोगों का परिचय भी वरना कैसे होगा? ऐसा हुआ नहीं. मुझे क्यों बुरा लगना चाहिए? कुमारेन्द्र अब हैं नहीं हमारे बीच, तो वह तो अच्छा/ बुरा लगने की ज़द से बहुत दूर जा चुके हैं. हां, फिर भी मुझे बुरा लगा. इसलिए कि मैं फेसबुक पर सक्रिय ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो कुमारेन्द्र का जब-तब उल्लेख भी करते रहे हैं अपने आलोचनात्मक लेखन में, और दो-चार दिन में कहीं 'लाइक' करके या एकाध वाक्य की टिप्पणी करके कुछ लोगों से अपना जुड़ाव भी व्यक्त करते रहते हैं. 'गंभीर कविता' की अनदेखी, और 'न-कविता' की प्रशस्ति -ये दोनों ही अपराध हैं, ख़ासकर उनके लिए जो कविता से अपनी प्रतिश्रुति घोषित करते रहते हैं. कुमारेन्द्र की इन कविताओं पर कुल 6 टिप्पणियां ( जिनमें से चार ने कविता की पंक्तियाँ उद्धृत भर कर दी थीं) आईं. एक, आशुतोष कुमार की तरफ़ से, आई जिसे पूरी टिप्पणी कहा जा सकता है :"इन कविताओं को फिर से पढ़ना महज़ कविता पढना नहीं है . उस गुजरे हुए दौर को पढ़ना भी है , जब अन्याय के खिलाफ शब्द हथियारों की तरह बरते जा रहे थे. और इस दौर में उस दौर को पढ़ना जब ' अन्याय ' और ' प्रतिरोध ' शब्द मात्र की तरह पढ़े जा रहे हों !"
कविता यदि हमारी मनःस्थितियों का चित्रण भर करती है तो वह कोई ख़ास तीर मार लेने वाला काम नहीं बन पाता. और फिर हम आलोचकों को कोसने लगते हैं; शिकायत करने लगते हैं कि उनकी वजह से "कविता की जान सांसत में" है, जबकि सच यह है कि अपनी जान को ही सांसत में महसूस कर रहे होते हैं. मज़ा देखिए, कि जान सांसत में है फिर भी हम कविता को अपना पर्याय बना लेते हैं.
यह फेसबुक की सीमा नहीं है, उसे बरतने वालों की, उस पर सक्रिय लोगों की विशिष्टता है या 'विशिष्ट' दिखने की चाहत है. क्या कविता में लोकतंत्र तब तक क़ायम हो सकता है जब तक कि कवियों और आलोचकों की लोकतंत्र में निष्ठा न हो? कवि को आलोचक तब तक ही अच्छे लगते रहें जब तक कि वे उस की प्रशंसा करते रहें? अपने अलावा अन्य कवियों की प्रशंसा में अपनी 'हेठी' क्यों माननी चाहिए? महिला कवि की प्रशंसा हो तो उसे 'लैंगिक पक्षपात' के रूप में ही क्यों देखा जाना चाहिए? कविता की अथवा किसी भी विधा में प्रस्तुत रचना की किसी वस्तुपरक कसौटी का तो मान किया ही जाना चाहिए. चार-छह पंक्तियों की कविताएं अपवाद स्वरुप ही टिकाऊ महत्त्व की हो सकती हैं, यह तो सहज बुद्धि से समझ में आ जाना चाहिए. डेढ़ पंक्ति के वाक्य में पूरी कविता यदि आ जाती है, एक साथ लिखने पर, तो उसके 'कालजयी' होने का भ्रम तो नहीं ही पाला जाना चाहिए.
फेसबुक सामाजिक अंतरजाल से जुड़ने का माध्यम यदि है, जैसा कि इसे कहा जाता है, तो क्या इसका निहितार्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि इससे जुड़ने का मतलब है अधिक सामाजिक होना. सामाजिकता विकसित होने/ करने की एक अन्तर्निहित शर्त यह भी है कि व्यक्तिवादी आग्रहों को तिरोहित करने की प्रक्रिया से जुड़ लिया जाए. तभी कदाचित कविता का, और फिर कवि का, स्थान वैसा बन पाए जैसा हर कवि 'अपने लिए' चाहता है. मर्यादा बनाए रखकर की जाने वाली हर बहस इस दिशा में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करेगी, प्रत्येक के लिए. ऐसा मुझे लगता है. ज़रूरी नहीं कि आप इससे सहमत हों. विचार और चर्चा का फौरी प्रस्थान बिंदु तो यह बन ही सकता है.
मैं पूर्ण सहमति रखती हूँ हमें प्रस्थान बिन्दुओ की बहुत सख्त जरुरत है अति सुन्दर,वाह,बहुत खूब,क्या बात है,अपूर्व ,अद्भुत,जैसे बिन्दुओ से तो निश्चित रूप से प्रस्थान की जरुरत है.सभी लिखने वालो को पक्ष-विपक्ष और बहसों के लिए अपने अभिव्यक्तिकार होने के धर्म में सर्वोपरि स्थान रखना चाहिए.रचनाओं से परिवर्तन के स्वरों के उद्घोष तभी सार्थक होंगे जब हम अपनी ग्रहण और धारण क्षमता का विकास अपने स्वार्थो को परे हटा,कर पायेंगे . मैं आपके प्रति सदैव आभारी हूँ ...
ReplyDeleteफेस्बुक को सामाजिक मीडिया के रूप में गंभीरता से लेने वाले अभी कम ही हैं. ऐसे में आप की यह सक्रियता , जिस में अछ्छे बुरे के विवेक के साथ रचना और विचार का गहरा सम्मान भी है , हौसला बढाने वाला है . इस माध्यम को आत्म प्रोत्साहन और ब्रांड प्रोत्साहन के लिए इस्तेमाल होने से बचाया तो नहीं जा सकता. जिन्हें वह सब करना हो करें. करने को तो यहाँ क्या नहीं किया जा रहा. लेकिन हमारे लिए काम की बात यही है ,कि हम भी यहाँ मिल जुल कर कुछ कर ही रहे हैं , और कर ही सकते हैं , बशर्ते कि हम इस माध्यम की बेशर्त लोकतांत्रिकता को बरत सकें .
ReplyDeleteआपका लिखा पढ़ कर हमेशा सोच में गहराई ही विकसित हुई है.. मैं आपकी बात से सहमत हूँ की कविता के मरने की कई घोषणाओं के बावजूद कविता पुष्पित पल्लवित हो रही है.. लेकिन फेस बुक पर जो टिप्पणियों का सिलसिला है उसमे सिर्फ अधिकतर सहमतियाँ ही दिखाई देती हैं और जो असहमतियां होती हैं उसका कारण रचना के कथ्य से इतर होते हैं.. फेसबुक आने वाले समय का माध्यम है इसलिए इसको नगण्य मान लेना भी उचित नही होगा.. यदि एक स्वस्थ परम्परा की नींव डाले तो ये सभी के हित में होगा.. सादर.
ReplyDeleteमहोदय! आपसे विनती है कि यूँ ही कविता को पोषित और संरक्षित करते रहें पूरी निष्पक्षता और विवेक के साथ और हम जैसे बहुतों का मार्गदर्शन करते रहें जो कविता से प्यार करते है और अच्छा लिखने का प्रयास करते हैं ।
ReplyDeleteप्रणाम !
बेहद जरुरी मुद्दा उठाया सर ..बेशक कई बार होता है ऐसा कि लिख मारे किधर से कविता है भाई यह ..पर लिख आते हैं क्या कविता है भाई ..गलत समझ लिए जाने का भय ..राग द्वेष से उपर उठ आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं को सकारात्मक अधिकांशत: लिया ही नही जाता ..अब लगता है क्यूँ बुरा बना जाए एक 'वाह' ही तो लिखनी है पर यह 'वाह' रचनाकार के लिए ही सर्वाधिक घातक है यह बात समझनी होगी ! सादर ..
ReplyDeleteएक समझदारी भरी टिप्पणी पढ़कर जितनी खुशी होनी चाहिए, उतनी मुझे हो रही है. आपका कहना एकदम सही है कि हर युग में हर तरह का रचनाकर्म होते रहना स्वाभाविक है और समय अपना न्याय करता ही है. मुझे लगता है कि फेसबुक जिस तरह का प्रजातांत्रिक माध्यम है उस पर 'हर तरह का रचनाकर्म' और भी अधिक स्वाभाविक है. किसी के भी मन में इस आकांक्षा का सर उठाना बहुत उचित है कि जो कुछ उसने लिखा है वह औरों से साझा करे. अब यह उन 'औरों' पर निर्भर है कि वे उस लिखे-रचे पर प्रतिक्रिया करते हुए कितने संतुलित और ईमानदार रह पाते हैं. असल गड़बड़ तो यहीं होती है. अगर मेरे परिचित ने यहां कुछ पोस्ट किया है तो फिर मेरा फर्ज़ बनता है कि मैं उसकी सराहना करूं.... इस भाव के चलते गड़बड़ होती है. लेकिन हमें यह मानकर चलना चाहिए कि इस माध्यम पर ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है और यहां होने वाली प्रशंसा को अगर हम इसी भाव से लेंगे तो सही रहेगा.
ReplyDeleteसर, आपका लेख बहुत ही प्रासंगिक है, हमेशा ही होता है, और जिन मुद्दों को आपने उठाया उनसे असहमति होना संभव ही नहीं है! वस्तुतः फेसबुक वर्तमान समय में एक ऐसे मंच के रूप में उभर कर आया है जहाँ प्रकाशक की चिंता किये बिना हम अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त कर पा रहे हैं! हाँ, इसके साथ पात्र और अपात्र की पहचान तो जुडी ही है! साथ ही कभी कभी अवांछित विवाद भी जुड़ जाते हैं किन्तु इससे इसकी सार्थकता पर कोई असर नहीं होता! मैं स्वयं कई बार अतिश्योक्ति वाली सकारात्मक और नकारात्मक टिप्पणियों से दो-चार होती हूँ और मेरा मानना है अंततः तो निर्णय आपकी लेखनी ही करती है! पिछले दो दिन में मैंने कई कवयित्रियों की बड़ी अच्छी कविताओं पर अच्छी, बहुत अच्छी और साथ ही कुछ भद्दी टिप्पणियों को पढ़ा और जाना कि टिप्पणियों की भांति पाठक भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं! सच कहूँ तो एक लेखिका की दृष्टि सभी को तौलती है...जानती भी है कि कहाँ कितना सच है और कितना तमाशा.....हाँ कई बार लाईक का बटन ऐसी पोस्ट पर भी दब जाता जहाँ सवाल पसंद नापसंद का होता ही नहीं है.....वस्तुतः इसे पसंद करना न मानकर पोस्ट पढने की सूचना भी माना जाना चाहिए.....कई नए युवा बच्चे अच्छा लिखते हैं तो स्वतः ही मैं उनका होंसला बढाती हूँ....कल एक लड़की की कविता में एक गलती पर ध्यान दिलाया तो उसने दोबारा जवाब ही नहीं दिया.....जबकि आलोचना तो सदा बगल में स्थान देना चाहिए, ताकि आगे का मार्ग प्रशस्त हो और और इसे उम्र, लिंग या अनुभव से परे रखा जाना भी उचित है......सादर
ReplyDelete'गंभीर कविता' की अनदेखी, और 'न-कविता' की प्रशस्ति -ये दोनों ही अपराध हैं, ख़ासकर उनके लिए जो कविता से अपनी प्रतिश्रुति घोषित करते रहते हैं. ''
ReplyDeleteमोहन जी ने यह सही हस्तक्षेप किया है.दिक्कत यह नहीं है कि बहुत कविता लिखी जा रही है...समस्या है संपादक की संस्था लोप..और साथ में आलोचक की संस्था का प्रशंसक/प्रस्तोता में तब्दील होते जाना. टिप्पणी करना इतना सहज हो गया है कि कोई भी किसी भी कविता पर कुछ भी लिख सकता है. 'बहुत दिनों बाद ऎसी कविता पढ़ी' जैसे टीप जगत का क्लीशे बन गया है...या आप्त वाक्य!
ReplyDeleteकई बार इस विश्लेशण को पढा.. बहुत से सामयिक प्रश्न जो बार-बार इस बीच उठते रहे हैं .इसमें समाहित हो गये हैं मुझे लगता है हमें अनवरत सीखते जाना है हर दिन कुछ नया और ये सब उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है.
ReplyDeleteएक गंभीर मगर बेहद जरूरी मुद्दा उठाया है आपने जो सोचने को विवश करता है। आज ऐसे ही जागरण की जरूरत है शायद तभी सोच मे कुछ बदलाव आने लगे ।
ReplyDeleteसर, आपका लेख बहुत ही प्रासंगिक है, हमेशा ही होता है, और जिन मुद्दों को आपने उठाया उनसे असहमति होना संभव ही नहीं है! वस्तुतः फेसबुक वर्तमान समय में एक ऐसे मंच के रूप में उभर कर आया है जहाँ प्रकाशक की चिंता किये बिना हम अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त कर पा रहे हैं! हाँ, इसके साथ पात्र और अपात्र की पहचान तो जुडी ही है! साथ ही कभी कभी अवांछित विवाद भी जुड़ जाते हैं किन्तु इससे इसकी सार्थकता पर कोई असर नहीं होता! मैं स्वयं कई बार अतिश्योक्ति वाली सकारात्मक और नकारात्मक टिप्पणियों से दो-चार होती हूँ और मेरा मानना है अंततः तो निर्णय आपकी लेखनी ही करती है! पिछले दो दिन में मैंने कई कवयित्रियों की बड़ी अच्छी कविताओं पर अच्छी, बहुत अच्छी और साथ ही कुछ भद्दी टिप्पणियों को पढ़ा और जाना कि टिप्पणियों की भांति पाठक भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं! सच कहूँ तो एक लेखिका की दृष्टि सभी को तौलती है...जानती भी है कि कहाँ कितना सच है और कितना तमाशा.....हाँ कई बार लाईक का बटन ऐसी पोस्ट पर भी दब जाता जहाँ सवाल पसंद नापसंद का होता ही नहीं है.....वस्तुतः इसे पसंद करना न मानकर पोस्ट पढने की सूचना भी माना जाना चाहिए.....कई नए युवा बच्चे अच्छा लिखते हैं तो स्वतः ही मैं उनका होंसला बढाती हूँ....कल एक लड़की की कविता में एक गलती पर ध्यान दिलाया तो उसने दोबारा जवाब ही नहीं दिया.....जबकि आलोचना तो सदा बगल में स्थान देना चाहिए, ताकि आगे का मार्ग प्रशस्त हो और और इसे उम्र, लिंग या अनुभव से परे रखा जाना भी उचित है......सादर
ReplyDeleteकविता की मृत्यु की घोषणाएं इतनी बार हो चुकी हैं कि इनकी गिनती रख पाना भी संभव नहीं. पर इन तमाम घोषणाओं के बावजूद कविता न केवल ज़िंदा है, बल्कि उसकी सेहत भी पूरी तरह से ठीक है....... कथ्यविहीन कविताएं भी आ रही हैं, शब्दों के मनमाने प्रयोग वाली कविताएं भी. दो-तीन मित्र लोग मिलकर किसी कवि को 'जोड़-तोड़' से दूर रहने वाला घोषित कर देते हैं, और किसी को 'सबसे कम जादुई', और यह 'अहो रूपम, अहो ध्वनि' का खेल चलता है; तीन-चार मित्र मिलकर किन्हीं दो मित्रों को 'कविता के सबसे अधिक संजीदा आलोचक' घोषित कर देते हैं. और ध्यान देने की बात यह है कि जो कुछ भी इस घेरे के बाहर हो रहा है, वह उल्लेखनीय नहीं है इनकी नज़र में. ......'गंभीर कविता' की अनदेखी, और 'न-कविता' की प्रशस्ति -ये दोनों ही अपराध हैं, aapaki in baton se sayad hi kisi ko aapatti ho sakati hai. yah aapane bahut jaroori bahas shuru kar di hai. lagabhag ham sabhi log jane-anjane in prawritiyon ke shikar hain ,imandari se yah bat sweekari jani chahiye. isake peeche bahut sare karan hain jin par vistar se baten ho sakati hain...janhna tak kisi post ya stetus par comment ka sawal hai , bahut samay pasand aane par bhi vyastataon ya takniki karano ke chalate comment nahni ho pata hai isase kisi ki pratibaddhata par sawal khada kar dena mujhe bahut uchit nahni jan padata hai....fir sabaki skhamtayen saman nahni hoti hai....kair aapane yah sab likhakar sabhi ko jhakajhor diya. f.b.har doosare mitra ka aagrah rahata hai ki unaki post par kuchh na kuchh comment karen ab bechara comment karane wala kahna-kahna comment kare. mere to bahut se mitra isliye naraj ho gaye hain ki main unaki post par comment nahni kar paya . is prawritti ko dekhakar to kabhi-kabhi man karata hai ki f.b.par aana hi chhod dun...par dil hai ki manata nahni. aasha hai meri bhawana ko samjhenge or maf kar denge.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसर, आपका लेख बहुत ही प्रासंगिक है, हमेशा ही होता है, और जिन मुद्दों को आपने उठाया उनसे असहमति होना संभव ही नहीं है! वस्तुतः फेसबुक वर्तमान समय में एक ऐसे मंच के रूप में उभर कर आया है जहाँ प्रकाशक की चिंता किये बिना हम अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त कर पा रहे हैं! हाँ, इसके साथ पात्र और अपात्र की पहचान तो जुडी ही है! साथ ही कभी कभी अवांछित विवाद भी जुड़ जाते हैं किन्तु इससे इसकी सार्थकता पर कोई असर नहीं होता! मैं स्वयं कई बार अतिश्योक्ति वाली सकारात्मक और नकारात्मक टिप्पणियों से दो-चार होती हूँ और मेरा मानना है अंततः तो निर्णय आपकी लेखनी ही करती है! पिछले दो दिन में मैंने कई कवयित्रियों की बड़ी अच्छी कविताओं पर अच्छी, बहुत अच्छी और साथ ही कुछ भद्दी टिप्पणियों को पढ़ा और जाना कि टिप्पणियों की भांति पाठक भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं! सच कहूँ तो एक लेखिका की दृष्टि सभी को तौलती है...जानती भी है कि कहाँ कितना सच है और कितना तमाशा.....हाँ कई बार लाईक का बटन ऐसी पोस्ट पर भी दब जाता जहाँ सवाल पसंद नापसंद का होता ही नहीं है.....वस्तुतः इसे पसंद करना न मानकर पोस्ट पढने की सूचना भी माना जाना चाहिए.....कई नए युवा बच्चे अच्छा लिखते हैं तो स्वतः ही मैं उनका होंसला बढाती हूँ....कल एक लड़की की कविता में एक गलती पर ध्यान दिलाया तो उसने दोबारा जवाब ही नहीं दिया.....जबकि आलोचना तो सदा बगल में स्थान देना चाहिए, ताकि आगे का मार्ग प्रशस्त हो और और इसे उम्र, लिंग या अनुभव से परे रखा जाना भी उचित है......सादर
ReplyDeleteकविता की मृत्यु की तमाम घोषणाओं के बावजूद कविता कभी मर नहीं सकती... साँसों से भिन्न तो नहीं होती कविता... फिर उसपर सवाल कैसे उठाया जा सकता है...! टिपण्णी/प्रतिक्रियायों की मोहताज भी नहीं होतीं कवितायेँ... क्यूंकि कविता का होना ही किसी यश या मान की अपेक्षा से परे है... यह आत्मा की अनुभूति है... दर्द की शब्दयात्रा है... जिसे महसूस किया जा सकता है...! कविता अगर वास्तव में कविता है तो बहुधा वह पाठकों को निःशब्द ही करती है... मर्म जिसने समझा वह कहेगा क्या... टिका टिपण्णी क्या करेगा...! बाक़ी बहस चलती रहती है... कविता अपने वेग से बहती रहती है... सिक्त करती हुई अन्तःस्तलों को!!!
ReplyDeleteआपके आलेख ने कई विचारों को प्रवाह दिया! आभार!
सादर!
भीतरी समझ विकसित होना आवश्यक है. आपने सही मुद्दा सामने रखा है.
ReplyDelete
ReplyDelete♥
आदरणीय मोहन श्रोत्रिय जी
नमस्कार !
विषय पर बहुत गंभीरता से लिखा है आपने … साथ ही प्रसन्नता है कि गंभीर पाठकों ने भी यहां अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है …
मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
Anju Sharma writes:
ReplyDeleteसर, आपका लेख बहुत ही प्रासंगिक है, हमेशा ही होता है, और जिन मुद्दों को आपने उठाया उनसे असहमति होना संभव ही नहीं है! वस्तुतः फेसबुक वर्तमान समय में एक ऐसे मंच के रूप में उभर कर आया है जहाँ प्रकाशक की चिंता किये बिना हम अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त कर पा रहे हैं! हाँ, इसके साथ पात्र और अपात्र की पहचान तो जुडी ही है! साथ ही कभी कभी अवांछित विवाद भी जुड़ जाते हैं किन्तु इससे इसकी सार्थकता पर कोई असर नहीं होता! मैं स्वयं कई बार अतिश्योक्ति वाली सकारात्मक और नकारात्मक टिप्पणियों से दो-चार होती हूँ और मेरा मानना है अंततः तो निर्णय आपकी लेखनी ही करती है! पिछले दो दिन में मैंने कई कवयित्रियों की बड़ी अच्छी कविताओं पर अच्छी, बहुत अच्छी और साथ ही कुछ भद्दी टिप्पणियों को पढ़ा और जाना कि टिप्पणियों की भांति पाठक भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं! सच कहूँ तो एक लेखिका की दृष्टि सभी को तौलती है...जानती भी है कि कहाँ कितना सच है और कितना तमाशा.....हाँ कई बार लाईक का बटन ऐसी पोस्ट पर भी दब जाता जहाँ सवाल पसंद नापसंद का होता ही नहीं है.....वस्तुतः इसे पसंद करना न मानकर पोस्ट पढने की सूचना भी माना जाना चाहिए.....कई नए युवा बच्चे अच्छा लिखते हैं तो स्वतः ही मैं उनका होंसला बढाती हूँ....कल एक लड़की की कविता में एक गलती पर ध्यान दिलाया तो उसने दोबारा जवाब ही नहीं दिया.....जबकि आलोचना तो सदा बगल में स्थान देना चाहिए, ताकि आगे का मार्ग प्रशस्त हो और और इसे उम्र, लिंग या अनुभव से परे रखा जाना भी उचित है......सादर
सर पृष्ठभूमि के रंग को हल्का करें, पढ़ने में दिक्कत आती है. पूरी टिप्पणी नहीं पड़ पाया
ReplyDelete