"क्यों" के चौथे अंक (नवंबर 1973) में हमने हिंदी के बड़े कवि कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह की आठ कविताएं छापी थीं. इन्हें उस समय बेहद सराहा गया था, इनमें से दो कविताएं न जाने क्यों पिछले कई दिनों से बार-बार याद आ रही थीं. फेसबुक पर सक्रिय अधिकांश हिंदी कवि और टिप्पणीकार तब तक या तो पैदा नहीं हुए थे, या फिर शैशवावस्था से कैशोर्य के बीच कहीं किसी पड़ाव पर रहे होंगे, यानी उस समय की लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले साहित्य की छाया तक से काफ़ी दूर. इसीलिये मुझे लगा कि इनमें से, कम से कम, दो कविताएं आपके साथ साझा करूं.. ये कविताएं दस्तावेज़ी महत्व की हैं.
चवरी
(चवरी आरा के पास एक बस्ती है जिसमें ज़्यादातर हरिजन और दलित वर्ग के शोषित-दमित-प्रताड़ित लोग रहते हैं. कुछ दिन पहले पुलिस ने धनी किसानों के साथ मिलकर उन पर 'रेड' किया था. कारण? वे लोग मज़दूरी की एवज़ में भर-पेट खाना मांगते थे. उन्होंने पुलिस के धावे का प्रतिरोध किया, पर सशस्त्र पुलिस धावे के सामने कितना टिक पाते ! -सं.)
कभी चंदना - रूपसपुर
कभी चंवरी !
यह चवरी कहां है?
भोजपुर
यानि बाबू कुंवर सिंह के ज़िला शाहाबाद
यानि दलितों के पैग़म्बर महात्मा गांधी के
हिंदुस्तान
यानि अब इस नए समाजवाद में ----
आखिर कहां है चवरी ?
जलियांवाला बाग़ से कितनी दूर ---
वियतनाम के कितनी क़रीब ?
कोई भी ठीक-ठीक नहीं बोलता !
फिर, तू ही बोल - कहां है चवरी ?
तूने तो देस-बिदेस के ड्राइंग रूमों में सजे
किसिम किसिम के आइनों में झांका होगा --
कहीं चवरी को भी देखा ?
जो सड़क चवरी से निकलकर दिल्ली जाती है
उसका दिल्ली से क्या वास्ता है ?
चवरी की हरिजन टोली के नौजवानों के धुंधुआते पेट से
खींच कर लायी गई अंतड़ियों की लंबाई क्या है ?
(कुछ पता है वे कब फिर पलीता बन जाएंगी !)
***
चंदना-रूपसपुर से चवरी पहुंचने में
समय को कितना कम चलना पड़ा है !
और कितनी कम बर्बाद हुई है राजधानी की नींद
पुलिस के 'खूनी', और न्यायपालिका के 'बूचड़खाने'
बन जाने में !
***
जिसे कहते हैं
मुल्क
प्रशासन
न्यायपालिका
उसका रामकली के लिए क्या अर्थ रह गया है ?
रामकली गुम हो कर सोचती है
और उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है.
लाली गौने आई है
और लालमोहर उससे छीनकर मिटा दिया गया है -
वह समय के सामने
अकेले, बुत बनी रहती है - उसकी बेबाक आंखों के लिए
दिन और रात में कोई फ़र्क़ नहीं रह गया है !
दीना और बैजू और रघुवंश की छांह के नीचे
जनतंत्र
किसी बड़े मुजरिम सा
सिर नीचे किए बैठा है
और कहीं कुछ नहीं हो रहा है !
***
मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है;
फिर, भूख और तबाही और ज़ोरो-ज़ुल्म का क्या
नाम होगा?
क्या नाम होगा इस नए जनतंत्र और समाजवाद का ?
नक्सलबाड़ी या श्रीकाकुलम बहुत छोटा नाम होगा !
फिर, सही नाम क्या होगा ?
***
तुझे
मुल्क ने जाने-अनजाने
जी-जान से चाहा है
तेरी मुस्कान को तरोताज़ा रखने के लिए
(खुद भूखा रहकर भी )
एक-से-एक खूबसूरत गुलाब पैदा किया है !
तेरे फूल को
(जब तू नहीं रहेगी)
गोद में ले लेने के लिए
हरी-से-हरी घास उगाई है !
और तेरे होठों को चूमने के लिए
बड़ा-से-बड़ा जानदार आइना तैयार किया है !
फिर क्या कमी रह गई है
कि उसकी सुबह अब तक
शाम से अलग नहीं हो सकी है?
***
ठंडे लोहे पर टंगी
काठ की घंटियों के सहारे
आंगन के पार द्वार
कठपुतली उर्वशी का यह नाटक
आखिर कब तक जारी रहेगा ?
***
आत्महत्या के लिए सबसे माकूल वक़्त तब होता है
जब रौशनी से अंधकार का फ़र्क़ मिट जाता है
बोल, फिर क्या बात है - आत्महत्या कर लेगी?
या अंधेरे से घबराया हुआ कोई हाथ बढ़कर
तेरा गला दबोच लेगा?
छिपकर कहां रहेगी
आज सारा हिंदुस्तान चवरी है
जिसके हिस्से से रौशनी गायब है.
आदमी के लिए एक नाम
जिसे कहते हैं मुल्क
उसके लिए हम जान देते हैं -
मगर वो मुल्क हमारा नहीं होता
जिसे कहते हैं लोकतंत्र
उसके लिए हम वोट देते हैं
मगर वो लोकतंत्र हमारा नहीं होता
जिसे कहते हैं सरकार
उसके लिए हम टैक्स देते हैं
मगर वो सरकार हमारी नहीं होती
और जिसके लिए हम कुछ नहीं करते
वो आदमी हमारा होता है,
हमारे साथ मरता है, जीता है
हमसे झगड़ता भी है
तो भी बिल्कुल हमारा होता है
क्या जो हम सब करते हैं, ग़लत होता है?
लगता है,
हमने अपना नाम ग़लत रख लिया है -
जिसे हम अपना मुल्क कहते हैं वो हमारा
मुल्क नहीं होता, जिस जाति और वंश पर
हमें अभिमान होता है वह जाति हमारी नहीं होती -
उस वंश में हम पैदा हुए नहीं रहते
हमें अपने लिए कोई और मुल्क
खोजना चाहिए. अपने लिए कोई और
नाम तजबीज़ कर लेना चाहिए. और
ज़रूरत पड़े (पड़ती ही है) तो 'मैं' को निकालकर
'हम' को पोख्ता कर लेना चाहिए.
'मैं' को 'हम' के लिए
मिटा दिया जा सकता है
कि 'मैं' के लिए 'हम' ज़रूरी - सबसे सही
नाम है.
'मैं' को 'हम' के लिए
ReplyDeleteमिटा दिया जा सकता है
सार है यह!
घोर संत्रास और दर्द से गुजरती कवितायेँ झकझोरती हैं!
इस प्रस्तुति के लिए आभार!
इन कविताओं को पढ़वाने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteफिर क्या कमी रह गई है ... कि उसकी सुबहें अब तक.. शाम से अलग नहीं हो सकी है .... कुछ कर गुजरने की चाह रखने वालो की तड़प ऐसे ही चुभती है उन्हें भी और उनके आस-पास से गुजरने वालो को भी ... इनकी आंच कभी खत्म नहीं होती .. आभार मोहन श्रोत्रिय जी का ..
ReplyDeleteइन कविताओं को फिर से पढ़ना महज़ कविता पढना नहीं है . उस गुजरे हुए दौर को पढ़ना भी है , जब अन्याय के खिलाफ शब्द हथियारों की तरह बरते जा रहे थे. और इस दौर में उस दौर को पढ़ना जब ' अन्याय ' और ' प्रतिरोध ' शब्द मात्र की तरह पढ़े जा रहे हों !
ReplyDeleteजीवन की विसंगतियों से गहरा संघर्ष करती कविताएँ!
ReplyDeleteठंडे लोहे पर टंगी
काठ की घंटियों के सहारे
आंगन के पार द्वार
कठपुतली उर्वशी का यह नाटक
आखिर कब तक जारी रहेगा ?
जिन दिनों यह कविता आपने पोस्ट की मनासा में नेटहीन था लगभग तो देर से देख पाया.
ReplyDeleteयह कविता प्रतिरोध को कविता में ढालने की कला सिखाने वाली कविता है. वह कविता जो अपने समय में शोषण के खिलाफ सत्ता के बरक्स खडी होती है. इसे अपने सच को कहने के लिए कोई आवरण नहीं पहनना पड़ता. दुखद यह कि आज ये परिस्थितियाँ और नग्न रूप में हमारे सामने हैं...तो हमारे समय की कविता को इससे सीख कर प्रतिरोध को आवाज देना होगा.
इन विस्फोटक कविताओं को पढवाने के लिए शुक्रिया.. जिसमे धुधियते पेट की आंतड़ियों की लम्बाई की माप एक ऐसा खौफ पैदा करती है की सत्ता के मुखौटो के नीचे के असली चेहरे दिखाई पड़ने लगते हैं.. ऐसी कवितायेँ समाज की रूपरेखा बदलने की सामर्थ्य रखती हैं.. नमन.
ReplyDeleteइन विस्फोटक कविताओं को पढवाने के लिए शुक्रिया.. जिसमे धुधियते पेट की आंतड़ियों की लम्बाई की माप एक ऐसा खौफ पैदा करती है की सत्ता के मुखौटो के नीचे के असली चेहरे दिखाई पड़ने लगते हैं.. ऐसी कवितायेँ समाज की रूपरेखा बदलने की सामर्थ्य रखती हैं.. नमन.
ReplyDeleteआज भी उद्वेलित करती कविताएँ हैं ये।
ReplyDeleteयह कविता प्रतिरोध को कविता में ढालने की कला सिखाने वाली कविता है. वह कविता जो अपने समय में शोषण के खिलाफ सत्ता के बरक्स खडी होती है. इसे अपने सच को कहने के लिए कोई आवरण नहीं पहनना पड़ता. दुखद यह कि आज ये परिस्थितियाँ और नग्न रूप में हमारे सामने हैं...तो हमारे समय की कविता को इससे सीख कर प्रतिरोध को आवाज देना होगा.
ReplyDeleteचवरी पर…अखबार में ऐसी कविता छपे तो आदमी खबरों का सच बेहतर और ईमानदारी से जान सके। काश! ऐसे ही छपतीं खबरें ताकि समय-समाज महसूस कर पाते…
ReplyDeleteमैं का नाम हम…ओह! कब होगा यह!