Saturday, 14 September 2013

कविता में भारतीयता की पहचान

वरिष्ठ कवि विजेंद्र की कविता-विषयक चिंताएं बड़ी हैं, अपने अन्य समकालीनों की तुलना में कहीं ज़्यादा बड़ी. उनके नोट पर मेरी तीन संक्षिप्त टीपें :

भारतीयता की पहचान भूगोल में नहीं बल्कि इसकी बहुलता में निहित है. बहुलता, चिंतन-दर्शन-जीवन पद्धतियों, आदि विविध स्तरों पर. भारतीय चित्त इन सभी से निर्मित होता है. लोक-संपृक्ति एवं लोक-मंगल भी इस पहचान का एक महत्वपूर्ण घटक है. ये सब मिलकर ही रचना के मूल्यांकन की कसौटी भी निर्मित करते हैं. आधुनिकता के दबाव/प्रभाव में आए कुंठा, संत्रास, आत्म-परायापन, अजनबीयत आदि की भारतीय चित्त से (तत्कालीन जीवन-स्थितियों से भी) कोई संगति नहीं बैठती थी. इसी प्रकार स्वर्णिम अतीत से मोहाविष्ट होकर रूढ हो गई जीवन-दृष्टि की भी भारतीयता की अवधारणा से कोई संगति नहीं बैठती.


भारतीयता और वैश्विकता में कोई विरोधाभास नहीं है. अन्य भाषाओँ के जो कवि हमें बेहद प्रिय (व अपने) लगते हैं, उसके पीछे भी चित्त-साम्य अपनी भूमिका अदा करता है. नेरुदा हों या लोर्का, मायकोवस्की हों या ब्रेख्त, ऑडेन हों या लुइस मैक्नीस, नाज़िम हिकमत हों या फ्रॉस्ट या तीसरी दुनिया के अन्य कई कवि, ये यदि हमें अपने-से लगते हैं तो इस सबके पीछे हमारे सरोकारों का साम्य ही तो प्रमुख कारण होना चाहिए. इसके विपरीत टीएस इलियट (द वेस्ट लैंड में तीन भारतीय सन्दर्भों के बावजूद) अपने नहीं लगते क्योंकि "ओम शांति शांति शांति" के उद्घोष पर समाप्त होने के बावजूद उक्त रचना (और रचनाकार भी) वैश्विक शांति प्रयत्नों का हिस्सा नहीं बन पाई थी. बड़ी संख्या में इंग्लैंड के ही अनेक लेखकों कवियों के संदर्भ में जैसे विचार-कर्म की इस एकता को देखा जा सकता है.


उपरोक्त के क्रम में अपनी श्रेष्ठ कविता को चिह्नित कर पाना भी आसान हो जाता है. जब हम मुक्तिबोध-त्रिलोचन-शमशेर-नागार्जुन-केदारनाथ अग्रवाल के महत्व को रेखांकित करते हैं तो बात आसानी से समझ में आ जाने योग्य बन जाती है. कृष्ण कल्पित जिस खतरे की ओर ध्यान खींच रहे हैं, उसे चिह्नित करने का बीज संदर्भ मेरी पहली टिप्पणी में मिल जाना तो चाहिए था.

-मोहन श्रोत्रिय

Sunday, 8 September 2013

मृतक तो महज़ आंकड़े होते हैं...



हथियार किसी के, हाथ किसी के...
मरने-मारने वाले कब समझेंगे
इस बहकी-वहशी सियासत के खेल को !
लड़ानेवालों और लड़नेवालों के हित एक नहीं हैं
कितना खून बह जाने के बाद
समझ में आएगी यह छोटी-सी बात !

लड़ानेवाले बचे रह जाते हैं
और मोहरा बने
लड़नेवाले धो बैठते हैं जान से हाथ
पीछे छूटे लोग विलाप करते रह जाते हैं
और इनमें से कुछ
उतारू हो जाते हैं नए सिरे से मरने-मारने को.

गद्दी पर बैठे लोग अपराधी हैं
भड़कती आग को देख
मुंह फेरे रहना भी तो अपराध ही है
और अपराधी हैं वे भी
जो जल्द-से-जल्द बैठ जाना चाहते हैं
गद्दी पर...हर गद्दी पर
गद्दी लखनऊ की हो या दिल्ली की.

गद्दी पा जाने तक
कितनी और जानें जाएंगी ऐसे ही
पूरे देश में
कोई अनुमान लगा सकते हैं इसका?

ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कुछ भी.
लड़नेवालों को नहीं पता
लड़ानेवालों को कोई परवाह नहीं
मृतक तो महज़ आंकड़े होते हैं

लड़ानेवालों के दिल को आदत है पुरानी
कैसी भी हालत में न पसीजने की.

-मोहन श्रोत्रिय

यूपी गाथा


एक -

उत्तरप्रदेश में यह हो क्या रहा है?

अभी से रुला रहे हो, दो हज़ार चौदह !
तुम कब आओगे, दो हज़ार चौदह?
तुम आओगे नहीं तब तक रोटियां सेंकते रहेंगे सब, इस आग पर, जिसे जल्द-से-जल्द बुझा दिया जाना चाहिए.

ध्रुवीकरण की यह जो क़वायद चल रही है, कितनों की बलि लेगी?

चेत सपा, चेत ! खतरनाक खेल है यह ! आत्मघाती साबित होगा ! देश-घाती भी !

ज़रा सा स्वार्थ, ज़रा सी शह, ज़रा सी ढील...थोड़ा सा भी ढुलमुलपन...ले डूबेंगे.



दो -

भाजपा की #बी-टीम बनने में ही अपना भला और भविष्य देखना बंद नहीं किया अखिलेश यादव ने तो इतिहास उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा :

सांप्रदायिक तनाव बढ़ता देखते ही स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त न करना उतना ही महंगा पड़ेगा जितना सपा द्वारा प्रतियोगी-सांप्रदायिकता फैलाने को अपनी नीति बनाना.

अमित शाह के मंसूबों को ऐसे तो परास्त नहीं किया जा सकता, अखिलेश बाबू ! यह तो खुद चलाकर जाल में फंसने जैसा हुआ ! न कम, न ज़्यादा !

यूपी में जो होगा, वह पूरे देश को प्रभावित करेगा. ध्यान रहे, एक छोटी-सी चिंगारी काफ़ी होती है, सबका आशियां जलाने को. आग तो जब भड़कती है तो दाएं-बाएं, आगे-पीछे सब तरफ़ फैलती है, और प्रचंड से प्रचंडतर होती चली जाती है. राज्य-प्रशासन के निकम्मेपन को मुआवज़े बांटकर नहीं छुपाया जा सकता. मुआवज़े जख्मों को नहीं भर पाते, यह भी ध्यान में रखा ही जाना चाहिए.


तीन -

किसी #वहम के शिकार मत होओ, #कांग्रेसियो !

भाजपा-सपा को कोस कर, और दंगों की आग पर हाथ सेंक कर तुम राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक पाओगे !

#मुज़फ्फ़रनगर दिल्ली से ज़्यादा दूर नहीं है ! ध्यान है न?

केंद्र में, और दिल्ली में भी, अभी सरकार तुम्हारी ही है. भूल तो नहीं गए?

तुम मज़े लेते रहोगे, तो यूपी को गुजरात बनने से तो नहीं ही रोक पाओगे, दिल्ली में भी इस संकट को न्यौत लोगे. इतनी कम-निगाही ठीक नहीं है, देश के लिए !

बनना-बिगडना, सिर्फ़ तुम्हारा होता, तो कुछ न कहता. न ताली बजाओ, न कोसो उन दोनों को, अपनी सकारात्मक भूमिका अदा करो. हस्तक्षेप करो, सक्रिय-सकारात्मक हस्तक्षेप !

-मोहन श्रोत्रिय