आज से कोई पैंतीस बरस पहले एक छोटी सी रूसी कहानी पढ़ी थी. मुश्किल से चार पृष्ठों की कहानी. लोकप्रिय पत्रिका ' सोवियत लिटरेचर' में प्रकाशित हुई थी. यह साहित्य की,आकार और गुणवत्ता दोनों ही दृष्टियों से, 'बड़ी' और 'सम्मानित' पत्रिका हुआ करती थी. आज लेखक का नाम याद नहीं रहा, पर कहानी का शीर्षक याद है. "कवि". कहानी की एक-एक घटना इतनी ताज़ा है स्मृति में, जैसे कहानी कल ही पढ़ी हो. दो पात्रों के बीच सिमटी कहानी मूलतः कवि-कर्म पर केंद्रित है. एक सौन्दर्यशास्त्रीय आख्यान, जो कविता की अंतर्वस्तु, विषय वस्तु और कविता में उसके रूपांतरण पर अद्भुत और अभूतपूर्व ढंग से रौशनी डालता है. एक बड़े कवि हैं, ख्यातनाम और कविता के भविष्य को संवारने के लिए प्रतिश्रुत.फ़र्ज़ कीजिए कि उनका नाम भी था 'कवि'. उनकी ख्याति इस रूप में थी कि वह नए उभरते हुए कवियों या कवि बनकर नाम कमाने की क़वायद से जूझते लोगों को अपना क़ीमती वक़्त देकर उनका मार्गदर्शन करने को सदैव तत्पर रहते थे. कोई भी उनसे मिल सकता था, पहले से उन्हें सूचित करके समय तय कर सकता था. यह जानकारी कवि बनने को आतुर एक युवा तक भी पहुंच गई, यहां-वहां से होती हुई. युवा इतना आतुर कवि बनने को कि रोज़ दस-बीस पन्ने काले कर लेता था. कवि के रूप में अपनी पहचान बनाने को आतुर इस युवा का नाम, फिर से फ़र्ज़ कीजिए, था 'आकांक्षी'. वह कवि से मिलने को आतुर हो उठा. और एक दिन उसने कवि को एक छोटा-सा पत्र लिख ही दिया, कि वह उनसे मिलकर अपनी कविताओं के बारे में उनकी मूल्यवान राय जानना चाहता है, मार्गदर्शन भी. कोई सातेक दिन में कवि का जवाब भी आ गया कि वह अगले रविवार को ( जो सिर्फ़ तीन दिन बाद ही आने वाला था) सुबह दस बजे उनके घर पहुंच जाए. 'आकांक्षी' को इसमें कोई कठिनाई नहीं थी क्योंकि वह सुबह आठ बजे की ट्रेन से चलकर भी आसानी से वहां पहुंच सकता था.
पर यहीं से 'आकांक्षी' की दिक्क़तें शुरू हो गईं. कौनसी कविताएं चुनूं? कितनी कविताएं ले चलूँ? वह कितनी कविताएं देख पाएंगे? कितनी कविताएं ज़रूरी हैं उनसे कहलवाने के लिए कि मैं कवि के रूप में चमक सकता हूं, आदि,आदि ? यानी खुशी जो हुई थी कवि का खत पाकर, वह थोड़ी देर के लिए काफूर हो गई और उसकी जगह ले ली एक अजब तरह के हाहाकार ने, जैसा उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था. बहरहाल, दो दिन जैसे तैसे बीत गए, आशा और निराशा के बीच पेंडुलम की तरह घूमते, कभी बेहद खुश प्रशंसा की कल्पना मात्र से, और कभी निराशा की अतल गहराइयों में डूब-डूब जाते हुए. ट्रेन की यात्रा एक तरह से सामान्य रही. कोई भीड़-भाड़ नहीं. वह अपने आप में ही खोया रहा. खिड़की के पास बैठा था, पर उसने न तो खिड़की के बाहर किसी चीज़ पर नज़र डाली, न अपने आस-पास के लोगों पर. लगता था उसे किसी भी चीज़ में कोई दिलचस्पी थी ही नहीं. हां, कभी-कभी अपनी कविताओं के पुलिंदे में से कोई कागज़ निकाल कर वापस रख देता.
स्टेशन से कवि के घर पहुंचना आकांक्षी के लिए आसान सिद्ध हुआ क्योंकि पहले व्यक्ति ने ही उसे सीधा रास्ता बता दिया था. कवि का घर कस्बे के आखिरी छोर पर था, और उसके पिछवाड़े से ही जंगल शुरू हो जाता था. आकांक्षी ने जैसे ही दरवाज़े पर लगी घंटी बजाई, अंदर से धीर-गंभीर आवाज़ आई, "आ जाओ, आकांक्षी." सहमे हुए-से आकांक्षी को अपनी घबराहट कम होती- सी लगी. कवि ने उसका स्वागत किया, हाल-चाल पूछा. यात्रा के बारे में भी दरयाफ्त की.इतने में ही नौकरानी चाय लेकर आ गई, बिना दूध की हरी चाय. चाय की चुस्कियों के साथ कवि आकांक्षी से तरह-तरह के सवाल पूछते रहे: घर-पारिवार, खेत-खलिहान, लोगों की हालत, मौसम, वनस्पति-पक्षियों से जुड़े सवाल. गरज़ यह कि कवि ने उसकी कविताओं के अलावा लगभग तमाम विषयों पर सवाल पूछ डाले. आकांक्षी अपने आपको फंसा हुआ महसूस कर रहा था. मन-ही-मन खीझ भी रहा था, ताज्जुब करता हुआ कि पता नहीं कविताओं के बारे मैं बात कब शुरू होगी. यह बात शुरू नहीं हुई, क्योंकि तब तक खाने की तैयारी होती दिखने लग गई थी. दस्तरखान सज चुका था. पर, खाने के लिए बहुत सारी चीज़ें होने के बावजूद आकांक्षी का मन खाने का बन ही नहीं पाया. उधेड़-बुन कविता को लेकर चलती रही. कवि एक-एक चीज़ का नाम लेकर उकी राय और पसंद पूछते रहे, और उसे खुद को भी लगा कि वह अटपटे-से जवाब ही दे पा रहा था. खाना खाते ही कवि उसे एक कमरे में ले गए और उसे विश्राम करने को कहा: 'खाने के बाद दो घंटे विश्राम ज़रूरी होता है.'
आकांक्षी को चैन कहां? कविताओं की बात कब होगी, यह सवाल उसे 'खाए' जा रहा था. निश्चित समय पर कवि उठे. बोले चाय पीने के बाद मैं तुम्हें आसपास घुमाने ले चलूँगा. देखना हम कहां, किस परिवेश में और कैसे लोगों के बीच रहते हैं. आकांक्षी को तो काटो तो खून नहीं ! कविताएं फिर 'स्थगित'. पता नहीं, लोग क्यों कवि की शान में इतने कशीदे पढते हैं.
रास्ते भर कविजी आकांक्षी को कुछ न कुछ बताते रहे -- लोगों की तंग हाली और बड़े दिल के बारे में, पेड-पौधों के बारे में, रंग बिरंगे फूलों के बारे में. कभी कहते, देखो वह चिड़िया कितना मीठा गाती है या कितनी सुंदर दिखती है. गरज़ यह कि वह विस्तार से उन तमाम चीज़ों के बारे में भावपूर्ण तरीक़े से बात करते रहे, जिनकी कोई पाठक/कवि कल्पना कर सकता है, बीच-बीच में आंख की कोर से आकांक्षी की मुख मुद्रा देख लेते यह जानने के लिए कि उसकी उत्सुकता जागृत हो रही है या नहीं, दिलचस्पी व्यक्त हो रही है कि नहीं. ज़ाहिर है, आकांक्षी उनके साथ चल-भर रहा था. उसका मन कहीं और था. अचानक जैसे कोई विस्फोट हो गया हो, आकांक्षी रुका, और बोला मैं सुबह से आपकी इन 'उबाने वाली' बातों को झेल रहा हूं, आप कभी 'यह' और कभी 'वह' बताने लगते हैं. मैं बड़ी उम्मीद से आपके पास आया, साठ मील दूर से, इस भरोसे से कि आप मुझे बड़ा कवि बनने में मदद करेंगे. आप मेरी कविताओं पर बात कब करेंगे? कवि चौंके, कुछ गंभीर हुए, और हौले से बोले : तुम्हारी किसी चीज़ में दिलचस्पी नहीं है - न मनुष्य में और न प्रकृति में, न मेरी बातों में ! सच बताओ, "तुम कविता लिखते किसके बारे में हो?''
आखिर तुम कविता लिखते किसके बारे में हो ? बस इस अंतिम पंक्ति ने पुरी कहानी का सारा भाव समेत लिया ! यही यदि कवि जान ले तो उसकी कविता का बिम्ब कितना निखर जाएगा !आभार मोहन जी !
ReplyDeleteसच में यह अनुपम बोध कथा है कवियों के लिए। धन्यवाद और आभार इसे प्रस्तुत करने के लिए।
ReplyDeleteगजब! जिसे जगत गति व्यापति ही नहीं है उसे तुलसी बाबा ने भी मूढ़ ही कहा है. वे व्यक्ति कविता क्या ख़ाक लिखेगा?
ReplyDeleteसत्य का दर्शन! बहुत खूब! उत्तम!!
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ReplyDeleteइतने प्रभावशाली ढंग से ये कहानी संप्रेषित करटी है कवी होने और न होने को.. नमन.. बहुत ही अच्छी लगी..
ReplyDeleteमैं समझता था खतरनाक सवाल सिर्फ बच्चे ही पूछते हैं ....क्यों पूछे जाते हैं ऐसे पोल खोलने वाले सवाल
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण सीख साथ लिए चला...मैं आकांक्षी!!!! आभार......मेरे कवि!!!!व्यष्टि और समष्टि के बीच सामञ्जसय स्थापित किए वगैर और उनमें बिना राग-विराग के कुछ भी लेखन संभव नहीं!!!!!
ReplyDeleteधन्यवाद! सर
शुद्ध अकादमिक कवियों पर इससे बेहतर वक्तव्य या टिप्पणी दूसरी नहीं हो सकती . 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' का प्रश्न सबसे बड़ा प्रश्न है .
ReplyDeleteबहुत काम की कहानी सुनायी सर आपने .
ReplyDeleteगाँठ बाँधने लायक.
आभार.
dilchasp.
ReplyDeleteप्रथम बार आगमन हुआ है आपके ब्लॉग पर ,फेसबुक पर आपने इस कहानी को शेयर किया वहीँ इस पर होने वाली चर्चा को भी पढ़ा ,बड़ी उत्सुकता हुई कि चलो पढते हैं ....यकीन मानिये बहुत अच्छा अनुभव रहा यहाँ पर आने का |मेरा मानना है कि कविता करने वाले मनुष्य से ज्यादा बड़ा कविता का मनुष्य यानि कविता का विषय होता है जब उसी विषय की अनुभूति नगण्य हों तो काहे की कविता !!
ReplyDeleteबहुत ही गंभीर सवाल है? दुखद और सच यही है...
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार मोहन श्रोत्रिय जी का इतने प्रभावशाली और सशक्त सम्प्रेषण हेतु ... यह कहानी मेरे मन में सदैव अंकित रहे जागते रहो की छवि की भाँति ... आकांक्षी नगण्य रहे ....सिर्फ अभिव्यक्ति प्रबल रहे और जिए ... पुनः आभार ...
ReplyDeleteबहुत दिलचस्प कहानी के माध्यम से एक बहुत जरूरी बात. आभार...
ReplyDeleteyaad dilane ke liye dhanyavad. yah aisa prasang hai jiski charcha kavigan indino khud se nahi karna chahte.
ReplyDeletebehatreen .....is kahani prasang ke madhyam se kavita or kavi karm ke bare main bahut jaroori bat kah di gayi hai.....yah gagan vihari kaviyon ke liye ek bahut bada sabak hai. aapane bahut sundar tareeke se apani bat kah di yah doosari bat hai ki kitane kavi rachanakar ise gambheerata se lete hain.
ReplyDeleteबहुत सुंदर और प्रेरक कथा...मक्सिम गोर्की मेरे प्रिय लेखक हैं, काफी पढ़ा उन्हें, उनके पात्र आम रुसी आदमी होते थे, जिनके नाम भी आम प्रचलित नाम होते थे....पेपे, लुका वगैरह, उनकी कहानियों से सहज ही जुडाव महसूस होता थे मुझे, नाम तो अब भूल गयी हूँ,किन्तु कई कहानियां ज्यों की त्यों जेहन में है! इस कहानी को पढ़ा तो एक बेहद अन्तरंग सा रिश्ता महसूस किया इन पात्रों के साथ! लगा कवि जैसे आप मोहन सर और आकांक्षी जैसे मैं! मैं जो हर दिन आपसे कुछ नया सीखना चाहती हूँ! किन्तु मैं सहमत हूँ यदि सीखना चाहते हैं तो धैर्य और जिज्ञासा ज्ञान पर लगे ताले की दो कुंजी होती हैं....कभी एक से काम नहीं चलता...वस्तुतः दोनों का प्रयोग अनिवार्य है! और संवेदनशील दृष्टि हो तो हर और कविता है! आपने इस कहानी को शेयर कर मुझे जैसे अनेकों आकांक्षियों को तो जैसे उपकृत कर दिया! सचमुच हम लोगों को आपसे बहुत कुछ सीखना है! बड़े कवि बने या नहीं एक उत्तम पाठक बन जाएँ तो सारे ताले खुल जायेंगे! .....आभार
ReplyDeleteअनोखी कथा है... सच उद्घाटित करती हुई!
ReplyDeleteसादर!
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ReplyDeleteअपने आस-पास के वातावरण से सहानुभूति के अभाव में ,संवेदनशून्य होकर कुछ भी सार्थक सोंचा ही नहीं जा पायेगा ,कविता लिखना तो दूर !
ReplyDeleteकवि को जीवन-जगत से जोडने का सन्देश देती एक संदेशपरक कहानी !
बहुत बहुत आभार !
Prabhat Pandey अपनों से दूर अपने में ही सिमटने की आकांक्षा लिए आकांक्षी ..... एक अहम् सवाल कि कविता आख़िर किसके लिए ..... काश, जवाब इसका इसके पहले कि कवि की कलम कविता ख़ातिर .....
ReplyDeleteOctober 23 at 11:52am · Like · 1 person
Ravi Ranjan Prasad जी मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ।.......लेकिन जो बढ़िया लेखक है उनकी ख्याति कभी कम नहीं हो सकती क्योंकि किसी लेखक की पहचान उसकी रचना होती है। येदी उनकी रचना अच्छी है तो वो लोगो के द्वारा पसंद भी कि जाएगी । साथ मे आलचकों की भूमिका भी बहुत महुतवपूर्ण है क्योंकि वही नए लेखको का मार्गदर्शन कर सकते है।
October 23 at 12:05pm · Like · 1 person
Awesh Tiwari बाबा ,चुप्पियों की भी कविता होती है |कविता जब छंद को सहन नहीं कर पायी उसने उसको तोड़ दिया और यकीं मानिए ये बंधन मुक्त कविता ही सच्ची कविता है |अच्छी प्रस्तुति |
October 23 at 12:24pm · Like · 1 person
Devesh Tripathi कविता की सबसे जरूरी चीज है लय.विचार तो मस्तिस्क में जन्म लेते हैं और उनको संवेदना का संबल मिल जाए तो कविता की ईमारत मजबूत और महान होती है .गद्य अगर लय में बांध दिया जाए तो उसे कविता कहने मुझे लगता हैं किसी को कोई आपति नहीं होनी चाहिए .ऐसा किस शास्त्र में लिखा है की अच्छा गद्य लिखने वाला उसी भाव को लयबद्ध कविता में नहीं ढाल सकता .कविता के नए प्रतिमान का इतना बड़ा आन्दोलन इसी परंपरागत नैतिकता को तोड़ने के लिए ही खड़ा हुआ
October 23 at 12:42pm · Like
Jai Narain Budhwar main samajh sakta hoon ki aap kis taraf ishara kar rahe hain,aaj sabko sab kuch turant chahiye...hamse aur aapse n mila to koi aur...panjeeri baantte rahiye to theek verna ulta record bajna shuru
October 23 at 12:44pm · Like · 6 people
Ravi Ranjan Prasad हमारे समाज मे लेखको की बहुत बड़ी भूमिका रही है , इसलिए यह बहुत महतावपूर्ण हो जाता है की वे किस विषय पर अपनी रचना को केन्द्रित करने जा रहे है।बिना इसके तो लेखक के साथ उसकी रचना भी इरेलेवेंट है।
October 23 at 1:00pm · Unlike · 1 person
Vipul Sharma · Friends with Ashutosh Kumar and 14 others
कविता लिखना मतलब निर्माण करना! शब्दों के समूहों के साथ भावनाओं के द्वारा रचित संसार जिसमे कवि जब अपनी लेखनी से प्राण डालता है तो पढने वाला अपने को महसूस कर सकता है, खो जाता है!! सच बात तो यह है कि मानव सहज-स्वभाव प्रकृति से ही प्रसिद्धी पाना चाहता है. चाहे वह सड़क पर काम करने वाला मजदूर ही क्यों न हो उसे भी अपने लोगों के बीच लोकप्रिय होना अच्छा लगता है. आजकल वाकई ऐसा लगता है कि कविता लिखना (यहाँ शब्दों के समूह को कविता कह रहा हूँ जिसमे प्राण नहीं हैं) आसान हो गया है. बहुत से कवि यूँ ही अपनी प्रसिध्ही को पाना चाहते हैं. पर यह दीर्घकालीन नहीं होती. इसमें कवि अपने को झूठी प्रसिद्धी तो दिला सकते हैं परन्तु आप ऐसी रचना नहीं दे सकते जो उनका नाम अमर कर दे.... साथ ही मैं इस बात को भी कहना चाहूँगा की बहुत से ऐसे भी कवि हैं जो अपनी उपस्तिथि बहुत उम्दा प्रकार से दर्ज कराते हैं जो वास्तव में कविता को लेकर गंभीर हैं. भले ही उनकी संख्या कम है. ऐसे गंभीर कवियों के काव्य को छंद या गद्य बाँध नहीं सकते. और हमें उनकी उपस्तिथि को, अपना नैसर्गिक अहं को त्याग कर स्वीकार करना ही चाहिए.
October 23 at 1:02pm · Like · 1 person
Ashok Kumar Pandey गजब! जिसे जगत गति व्यापति ही नहीं है उसे तुलसी बाबा ने भी मूढ़ ही कहा है. वे व्यक्ति कविता क्या ख़ाक लिखेगा?
ReplyDeleteOctober 23 at 1:36pm · Like · 3 people
Ashvani Sharma छंदबद्ध या मुक्त दोनों ही अभिव्यक्तियाँ इस बात पर निर्भर करती हैं कि हम कहना क्या चाहते हैं ?.....छंद को कविता हि नहीं मानने वाले महानुभाव भी समयानुसार आवश्यकतानुसार छंद को कोट करते हैं .....छंद किसी अभिव्यक्ति कि सीमा नहीं है .....अनुभव सीमा है ...अनुभूति सीमा है ......अनुभूति को अभ्व्यक्ति में बदलने कि सामर्थ्य सीमा है ......जीवन के आयामों को देख पाने कि,समझ पाने कि सामर्थ्य अवश्य सीमायें हैं ....कहानी भी यही सब रेखांकित कर रही है
October 23 at 2:22pm · Unlike · 1 person
Kalpana Pant bhut mahatvpoorn evm prabhavee kahanee aabhar sir itanee behatareen kahanee prastut karne ke liye rachana ka prayojan uskee arthvatta par jitane mahtvpoorn sanket yah kahanee detee hai bade bade lekh naheen de sakte aajkal pahle din likhkar doosare din se Chapas kee beemaree par bhee ye rachana vygy kartee hai.
October 23 at 3:16pm · Unlike · 1 person
Suman Singh बेहद प्रेरक और प्रासंगिक भी...व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगा...''आकांक्षी उस दौर का कवि है...जहां 'भाव-जगत' का पूरी तरह से 'व्यावसायीकरण' हो गया है....लोगबाग जो 'तथाकथित-कवि' भी कहलाते हैं...अब मूड को 'स्विच-ओंन' और 'स्विच-ऑफ' मोड पर डाल कर...बड़े आराम से कविता लिख डालते हैं.......
कहानी पढ़ते हुए...कई पंक्तियाँ अपने मन पर भी चुपके से एक प्रहार करती हैं....मन भले ही उसे माने या न माने...इतनी खूबसूरती से मार्ग-दर्शन के लिए बहुत आभार.....
October 23 at 3:47pm · Unlike · 3 people
Hitendra Patel bhale hi yah 'gaye zamane' ki patrika 'Soviet Literature' se shuru hoti hai lekin ise yad rakhne se kisi bhi Hindi ke kavi ka bhala hoga.
October 23 at 10:01pm · Like
Shamshad Elahee Ansari सच बताओ, "तुम कविता लिखते किसके बारे में हो?'' यही मर्म है....आज जिसे देखो, कविता के नाम पर उसे खांसी सी उठती है और उगल देता है..जानता हूं यह उपमा किसी सौंदर्यशास्त्र के ऐतबार से लिखने की काबिल नहीं, लेकिन जो मनोस्थिती उत्पन्न होती है, मेरी पास इससे अच्छा कोई दूसरा शब्द भी नहीं जो इस व्यथा को कायदे से संप्रेषित कर सके..कहानी बहुत प्रेरक है, कवि पूरी तन्मयता के साथ आकांक्षी को वही बनाने के हुनर देता रहा लेकिन इस नादीदे को वह सब दिखाई ही न दिया...आज भी, बल्कि आज यह और भी उप्युक्त और प्रासंगिक है..कविता लिखने का चाव सभी में है..यह एक अच्छी बात भी है, कम से कम वह विचार के साथ खेलने का मन तो बनाता है, प्रोनोग्राफ़ी, डेटिंग जैसी हरकतों से दूर तो हुआ...लेकिन न उसे संदर्भ पता हैं, न प्रयोजन...विचार तो मानो एक सिरे से खारिज है, तब वैचारिक प्रतिबद्धता होगी कहां से...बारहाल, मोहन जी..आपकी यह पोस्ट किसी कार्यशाला से कम नहीं..आंखो वाले, चिंतन वाले और विवेकपूर्ण युवकों को यह निश्चय ही प्रेरणा देगी...शुक्रिया.
October 23 at 10:23pm · Like