Sunday, 30 October 2011

मेरी दो कविताएं

आज सुबह अचानक आलोक कौशिक ने मेरी ये दो कविताएं लाकर दीं, इस आग्रह के साथ कि इन्‍हें ब्‍लॉग पर डाला जाना चाहिए। ये काफ़ी पुरानी कविताएं हैं और मेरे पास ये उपलब्‍ध भी नहीं थीं। भला हो उनका कि उनको दी गई मेरी किसी किताब को देखते हुए उन्‍हें न केवल ये मिल गईं, बल्कि अच्‍छी भी लगीं। तो ये कविताएं सिर्फ़ उनके आग्रह के कारण . . .


हमारे समय की प्रार्थनाएं 


नदियो!
तुम यों ही बहती रहो 
धरती को सींचती हरा-भरा 
करती 
मनुष्‍यों और शेष 
जीव जगत के जीवन को 
सुनिश्चित करती। 


पर्वतो!
तुम यों ही अड़े रहो
विविधतामय वन‍स्‍पति को 
धारण करते हुए 
बादलों से मित्रता को पुख्‍़ता रखते हुए। 


बादलो!
तुम गरजो चाहे जितना भी 
बरसते रहो 
इतना-भर ज़रूर कि 
ताल-तलैया लबालब रहें 
कुएं ज्‍़यादा लंबी रस्‍सी 
की मांग न करें। 


सूर्य!
तुम प्रकाश और ऊष्‍मा का 
संचार करते रहो
धरती को हरा-भरा रखो 
फूलों को खिलाओ 
उन्‍हें रंग दो- गंध दो 
और फलों को रस से 
मालामाल करते रहो। 


धरती मां!
हमें धारण करती रहो 
पर हां हमें 
तुम्‍हारे लायक़ यानि 
बेहतर मनुष्‍य 
बनते चले जाने को 
प्रेरित करती रहो 
कभी-कभी दंडित भी करो 
लेकिन प्‍यार बांटती रहो 
अबाध और अनवरत 
हमारी अंजुरि ख़ाली न रहे। 


और समुद्र!
तुम 
निरंतर उथले 
होते जा रहे 
हम मनुष्‍यों को 
थोड़ी अपनी गहराई 
देते चलो।


घरोंदा हो या मुल्क़ 

कुछ चीज़ें
ऐसी होती हैं जिनका 
कोई विकल्प नहीं होता 
पुरानी भी नहीं पड़ती हैं वे 
जैसे धूप और प्यार
हवा, आग और पानी
रोटी और नमक 
जैसे रोशनी और सपने.
बहुत कुछ हो जाए 
दुनिया में 
चाहे सब- कुछ ही बदल जाए 
ये चीज़ें अपनी जगह रहेंगी 
कुछ भी इन्हें 
हिला-डिगा-धकिया नहीं सकता.

जीने के लिए, कुछ करके,
कुछ बनकर,
कुछ बनाकर दिखाने के लिए 
सपना 
खुली आंख का सपना 
उतना ही ज़रूरी है 
जितना प्यार
हवा, धूप, आग, पानी और 
रोशनी ज़रूरी हैं जीने के लिए
धरती की ऊष्मा, जल, वायु, प्रकाश
छिन जाने पर बीज तक नहीं 
फूट सकता
वैसे ही
जैसे कोई आकृति तक संभव नहीं 
सपने के बिना
न घरोंदा
न मुल्क़
न दुनिया. 

Saturday, 22 October 2011

तुम कविता लिखते किसके बारे में हो?


आज से कोई पैंतीस बरस पहले एक छोटी सी रूसी कहानी पढ़ी थी. मुश्किल से चार पृष्ठों की कहानी. लोकप्रिय पत्रिका ' सोवियत लिटरेचर' में प्रकाशित हुई थी. यह साहित्य की,आकार और गुणवत्ता दोनों ही दृष्टियों से, 'बड़ी' और 'सम्मानित' पत्रिका हुआ करती थी. आज  लेखक का नाम याद नहीं रहा, पर कहानी का शीर्षक याद है. "कवि". कहानी की एक-एक घटना इतनी ताज़ा है स्मृति में, जैसे कहानी कल ही पढ़ी हो. दो पात्रों के बीच सिमटी कहानी मूलतः कवि-कर्म पर केंद्रित है. एक सौन्दर्यशास्त्रीय आख्यान, जो कविता की अंतर्वस्तु, विषय वस्तु और कविता में उसके रूपांतरण पर अद्भुत और अभूतपूर्व ढंग से रौशनी डालता है. एक बड़े कवि हैं, ख्यातनाम और कविता के भविष्य को संवारने के लिए प्रतिश्रुत.फ़र्ज़ कीजिए कि उनका नाम भी था 'कवि'. उनकी ख्याति इस रूप में थी कि वह नए उभरते हुए कवियों या कवि बनकर नाम कमाने की क़वायद से जूझते लोगों को अपना क़ीमती वक़्त देकर उनका मार्गदर्शन करने को सदैव तत्पर रहते थे. कोई भी उनसे मिल सकता था, पहले से उन्हें सूचित करके समय तय कर सकता था. यह जानकारी कवि बनने को आतुर एक युवा तक भी पहुंच गई, यहां-वहां से होती हुई. युवा इतना आतुर कवि बनने को कि रोज़ दस-बीस पन्ने काले कर लेता था. कवि के रूप में अपनी पहचान बनाने को आतुर इस युवा का नाम, फिर से फ़र्ज़ कीजिए, था 'आकांक्षी'. वह कवि से मिलने को आतुर हो उठा. और एक दिन उसने कवि को एक छोटा-सा पत्र लिख ही दिया, कि वह उनसे मिलकर अपनी कविताओं के बारे में उनकी मूल्यवान राय जानना चाहता है, मार्गदर्शन भी. कोई सातेक दिन में कवि का जवाब भी आ गया कि वह अगले रविवार को ( जो सिर्फ़ तीन दिन बाद ही आने वाला था) सुबह दस बजे उनके घर पहुंच जाए. 'आकांक्षी' को इसमें कोई कठिनाई नहीं थी क्योंकि वह सुबह आठ बजे की ट्रेन से चलकर भी आसानी से वहां पहुंच सकता था.
पर यहीं से 'आकांक्षी' की दिक्क़तें शुरू हो गईं. कौनसी कविताएं चुनूं? कितनी कविताएं ले चलूँ? वह कितनी कविताएं देख पाएंगे? कितनी  कविताएं ज़रूरी हैं उनसे कहलवाने के लिए कि मैं कवि के रूप में चमक सकता हूं, आदि,आदि ? यानी खुशी जो हुई थी कवि का खत पाकर, वह थोड़ी देर के लिए काफूर हो गई और उसकी जगह ले ली एक अजब तरह के हाहाकार ने, जैसा उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था. बहरहाल, दो दिन जैसे तैसे बीत गए, आशा और निराशा के बीच पेंडुलम की तरह घूमते, कभी बेहद खुश प्रशंसा की कल्पना मात्र से, और कभी निराशा की अतल गहराइयों में डूब-डूब जाते हुए. ट्रेन की यात्रा एक तरह से सामान्य रही. कोई भीड़-भाड़ नहीं. वह अपने आप में ही खोया रहा. खिड़की के पास बैठा था, पर उसने न तो खिड़की के बाहर किसी चीज़ पर नज़र डाली, न अपने आस-पास के लोगों पर. लगता था उसे किसी भी चीज़ में कोई दिलचस्पी थी ही नहीं. हां, कभी-कभी अपनी कविताओं के पुलिंदे में से कोई कागज़ निकाल कर वापस रख देता.
स्टेशन से कवि के घर पहुंचना आकांक्षी के लिए आसान सिद्ध हुआ क्योंकि पहले व्यक्ति ने ही उसे सीधा रास्ता बता दिया था. कवि का घर कस्बे के आखिरी छोर पर था, और उसके पिछवाड़े से ही जंगल शुरू हो जाता था. आकांक्षी ने जैसे ही दरवाज़े पर लगी घंटी बजाई, अंदर से धीर-गंभीर आवाज़ आई, "आ जाओ, आकांक्षी." सहमे हुए-से आकांक्षी को अपनी घबराहट कम होती- सी लगी. कवि ने उसका स्वागत किया, हाल-चाल पूछा. यात्रा के बारे में भी दरयाफ्त की.इतने में ही नौकरानी चाय लेकर आ गई, बिना दूध की हरी चाय. चाय की चुस्कियों के साथ कवि आकांक्षी से तरह-तरह के सवाल पूछते रहे: घर-पारिवार, खेत-खलिहान, लोगों की हालत, मौसम, वनस्पति-पक्षियों से जुड़े सवाल. गरज़ यह कि कवि ने उसकी कविताओं के अलावा लगभग तमाम विषयों पर सवाल पूछ डाले. आकांक्षी अपने आपको फंसा हुआ महसूस कर रहा था. मन-ही-मन खीझ भी रहा था, ताज्जुब करता हुआ कि पता नहीं कविताओं के बारे मैं बात कब शुरू होगी. यह बात शुरू नहीं हुई, क्योंकि तब तक खाने की तैयारी होती दिखने लग गई थी. दस्तरखान सज चुका था. पर, खाने के लिए बहुत सारी चीज़ें होने के बावजूद आकांक्षी का मन खाने का बन ही नहीं पाया. उधेड़-बुन कविता को लेकर चलती रही. कवि एक-एक चीज़ का नाम लेकर उकी राय और पसंद पूछते रहे, और उसे खुद को भी लगा कि वह अटपटे-से जवाब ही दे पा रहा था. खाना खाते ही कवि उसे एक कमरे में ले गए और उसे विश्राम करने को कहा: 'खाने के बाद दो घंटे विश्राम ज़रूरी होता है.'
आकांक्षी को चैन कहां? कविताओं की बात कब होगी, यह सवाल उसे  'खाए' जा रहा था. निश्चित समय पर कवि उठे. बोले चाय पीने के बाद मैं तुम्हें आसपास  घुमाने ले चलूँगा. देखना हम कहां, किस परिवेश में और कैसे लोगों के बीच रहते हैं. आकांक्षी को तो काटो तो खून नहीं ! कविताएं फिर 'स्थगित'. पता नहीं, लोग क्यों कवि की शान में इतने कशीदे पढते हैं.
रास्ते भर कविजी आकांक्षी को कुछ न कुछ बताते रहे -- लोगों की तंग हाली और बड़े दिल के बारे में, पेड-पौधों के बारे में, रंग बिरंगे फूलों के बारे में. कभी कहते, देखो वह चिड़िया कितना मीठा गाती है या कितनी सुंदर दिखती है. गरज़ यह कि वह विस्तार से उन तमाम चीज़ों के बारे में भावपूर्ण तरीक़े से बात करते रहे, जिनकी कोई पाठक/कवि कल्पना कर सकता है, बीच-बीच में आंख की कोर से आकांक्षी की मुख मुद्रा देख लेते यह जानने के लिए कि उसकी उत्सुकता जागृत हो रही है या नहीं, दिलचस्पी व्यक्त हो रही है कि नहीं. ज़ाहिर है, आकांक्षी उनके साथ चल-भर रहा था. उसका मन कहीं और था. अचानक जैसे कोई विस्फोट हो गया हो, आकांक्षी रुका, और बोला मैं सुबह से आपकी इन 'उबाने वाली' बातों को झेल रहा हूं, आप कभी 'यह' और कभी 'वह' बताने लगते हैं. मैं बड़ी उम्मीद से आपके पास आया, साठ मील दूर से, इस भरोसे से कि आप मुझे बड़ा कवि बनने में मदद करेंगे. आप मेरी कविताओं पर बात कब करेंगे? कवि चौंके, कुछ गंभीर हुए, और हौले से बोले : तुम्हारी किसी चीज़ में दिलचस्पी नहीं है - न मनुष्य में और न प्रकृति में, न मेरी बातों में ! सच बताओ, "तुम कविता लिखते किसके बारे में हो?''

Friday, 21 October 2011

अशोक कुमार पांडेय की पांच कविताएं

अशोक कुमार पांडेय तीसरे कवि थे जिन्हें केन्द्र में रख कर समकालीन कविता में वैचारिकता के प्रश्न पर, पिछले महीने जोधपुर विश्वविद्यालय के पुनश्चर्या पाठ्यक्रम में अपने व्याख्यान में विचार किया था. अशोक फ़ेसबुक पर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, कवि-संपादक-ब्लॉगर-समीक्षक के रूप में उनकी पहचान बन चुकी है. समाज विज्ञान (अर्थशास्त्र जिसके मूल में है) के अध्येता होने के नाते वह मनुष्य के कार्य-व्यापार को अंतर-अनुशासनिक दृष्टि से देख पाते हैं, इसलिए उनकी कविता में भाव पक्ष के साथ विचार पक्ष भी बड़े प्रबल रूप में सामने आता है. वह जीवन की छोटी-बड़ी स्थितियों/ घटनाओं का वीक्षण करके मात्र चित्रित नहीं कर देते, बल्कि कवि-कर्म को गंभीरता से लेते हुए, उन पर टिप्पणी भी करते हैं.यहां यथार्थ 'जस-का-तस' चित्रित नहीं होता बल्कि विचार की कीमियागरी एक नए यथार्थ का सृजन कर देती है. उनके समवयस्क कई कवि शब्दों के जादू/चमत्कार/वैचित्र्य के सहारे छोटी-छोटी अनुभूतियों (अनुभवों नहीं) को रूपायित करने वाली, यद्यपि मन को छू लेने वाली कविताएं ही ज़्यादा लिखते हैं, विचार पक्ष या तो वहां ग़ायब मिलता है, या फिर अत्यंत दुर्बल रूप में अभिव्यक्ति पाता है. इसका एक कारण यह भी है कि वे विचार और भाव की संश्लिष्‍टता पैदा करने में या तो अपने आपको समर्थ नहीं पाते या फिर विचार को कविता के लिए अनुपयुक्‍ पाते हैं. कविता, मनुष्‍ के अन् किसी सृजनात्‍मक कर्म की तरह, विचारमुक् हो नहीं सकती. टी. एस. इलियट के प्रशंसक/अनुयायी बेशक ऐसा मानते हों पर उन मान्‍यताओं का खंडन तो बहुत पहले अंग्रेज़ी आलोचकों ने ही कर दिया था, इनमें ग़ैर मार्क्‍सवादी आलोचकों का भी योगदान समान रूप से उल्‍लेखनीय रहा था. तो अशोक कुमार पांडेय की कविता में विचार दोनों रूपों में प्रकट होता है: कहीं यह अंतर्वस्‍तु के साथ एकमेक हो जाता है तो कहीं ज़रूरत पड़ने पर अत्‍यंत प्रकट रूप में भी सामने आता है पर वह किसी भी तरह से कविता के 'कवितापन' को किसी भी अर्थ में कम नहीं होने देता बल्कि इसके उलट कविता की शक्ति को ही बढ़ाता है. विचार को लेकर कुछ लोगों के मन में यह भ्रम बना रहता है कि इससे कविता प्रचारात्‍मक'' बन जाती है. ऐसे लोगों को लेनिन की यह प्रसिद्ध उक्ति याद रखनी चाहिए: ''हर साहित्‍ प्रचार होता है किंतु हर प्रचार साहित्‍ नहीं होता.'' कवि की चेतना शून्‍ में निर्मित नहीं होती, इसी तरह कविताएं भी शून्‍ में जन्‍ नहीं लेतीं. उनका एक ठोस सुनिश्चित सामाजिक संदर्भ होता है, सांस्‍कृतिक भी. ऐसे में विचार से बच पाने की इच्‍छा कहीं एक दोयम दर्जे के विचार की भी उंगली पकड़ सकती है. जब राजनीति हमारे जीवन के प्रत्‍येक क्षेत्र को प्रभावित कर रही हो, ऐसे में उस राजनीति से कवि भी कैसे बच सकता है यदि वह एक सजग कवि है तो. हिंदी में जैसे कभी 'अराजनीति की राजनीति' का खेल चला था, वैसे ही 'विचारमुक्ति' का भी आग्रह दिखाई पड़ता है. इस संदर्भ में उल्‍लेखनीय है कि विचार का अर्थ एक ख़ास विचारधारा से जोड़कर ही लिया जाता है. एक प्रगतिशील/जनवादी कवि अपने विचारों को छुपाता नहीं है क्‍योंकि छुपाने का यह काम तो रूपवादी कवि करते हैं. 

अशोक कुमार पांडेय की कविताओं से गुज़रना एक ख़ास अनुभव इसलिए बन जाता है कि आज के इस जटिल दौर में कविता और साहित्‍ की अन्‍ विधाओं को भी सामाजिक बदलाव में जो भूमिका अदा करनी है, ये कविताएं काफ़ी हद तक उस काम को अंजाम देती दिखाई पड़ती हैं. ऐसे में कविता यदि कहीं बहस का रूप लेती दिखती है या अपने पक्ष को ज़ोरदार ढंग से रखती दिखती है तो मेरी राय में यह बुरे वक्‍़ में कविता का प्रमुख कार्यभार है. 

अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार
(एक)
इस जंगल में एक मोर था
आसमान से बादलों का संदेशा भी जाता
तो ऐसे झूम के नाचता
कि धरती के पेट में बल पड़ जाते
अंखुआने लगते खेत
पेड़ों की कोख से फूटने लगते बौर
और नदियों के सीने में ऐसे उठती हिलोर
कि दूसरे घाट पर जानवरों को देख
मुस्कुरा कर लौट जाता शेर
एक मणि थी यहां
जब दिन भर की थकन के बाद
दूर कहीं एकान्त में सुस्ता रहा होता सूरज
तो ऐसे खिलकर जगमगाती वह
कि रात-रात भर नाचती वनदेवी
जान ही नहीं पाती
कि कौन टांक गया उसके जूड़े में वनफूल
एक धुन थी वहां
थोड़े से शब्द और ढेर सारा मौन
उन्हीं से लिखे तमाम गीत थे
हमारे गीतों की ही तरह
थोड़ा नमक था उनमें दुख का
सुख का थोड़ा महुआ
थोड़ी उम्मीदें थी- थोड़े सपने
उस मणि की उन्मुक्त रोशनी में जो गाते थे वे
झिंगा-ला-ला नहीं था वह
जीवन था उनका बहता अविकल
तेज पेड़ से रिसती ताड़ी की तरह
इतिहास की कोख से उपजी विपदायें थीं
और उन्हें काटने के कुछ आदिम हथियार
समय की नदी छोड़ गयी थी वहां
तमाम अनगढ़ पत्थरशैवाल और सीपियां...
(दो)
वहां बहुत तेज रोशनी थी
इतनी कि पता ही नहीं चलता
कि कब सूरज ने अपनी गैंती चाँद  के हवाले की
और कब बेचारा चाँद अपने ही औजारों के बोझ तले
थक कर डूब गया
बहुत शोर था वहां
सारे दरवाजे बंद
खिड़कियों पर शीशे
रौशनदानों पर जालियां
और किसी की श्वासगंध नहीं थी वहां
बस मशीने थीं और उनमें उलझे लोग
कुछ भी नहीं था ठहरा हुआ वहां
अगर कोई दिखता भी था रुका हुआ
तो बस इसलिये
कि उसी गति से भाग रहा दर्शक भी...
वहां दीवार पर मोरनुमा जानवर की तस्वीर थी
गमलों में पेड़नुमा चीज जो
छोटी वह पेड़ की सबसे छोटी टहनी से भी
एक ही मुद्रा में नाचती कुछ लड़कियां अविराम
और कुछ धुनें गणित के प्रमेय की तरह जो
खत्म हो जाती थीं सधते ही...
वहां भूख का कोई संबध नहीं था भोजन से
नींद का सपनों से
उम्मीद के समीकरण कविता में नहीं बहियों में हल होते
शब्द यहां प्रवेश करते ही बदल देते मायने
उनके उदार होते ही थम जाते मोरों के पांव
वनदेवी का नृत्य बदल जाता तांडव में
और सारे गीत चीत्कार में
जब वे कहते थे विकास
हमारी धरती के सीने पर कुछ और फफोले उग आते

(तीन)
हमें लगभग बीमारी थी ‘हमारा’ कहने की
अकेलेपन के ‘मैं’ को काटने का यही हमारा साझा हथियार
वैसे तो कितना वदतोव्याघात
कितना लंबा अंतराल इस ‘’ और ‘’ में
हमारी कहते हम उन फैक्ट्रियों कों
जिनके पुर्जों से छोटा हमारा कद
उस सरकार को कहते ‘हमारी
जिसके सामने लिलिपुट से भी बौना हमारा मत
उस देश को भी
जिसमे बस तब तक सुरक्षित सिर जब तक झुका हुआ
...और यहीं तक मेहदूद नहीं हमारी बीमारियां
किसी संक्रामक रोग की
तरह आते हमें स्वप्न
मोर हमारी दीवार पर आंगन में
लेकिन सपनों में नाचते रहते अविराम
कहां-कहां की कर आते यात्रायें सपनों में ही...
ठोकरों में लुढ़काते राजमुकुट और फिर
चढ़कर बैठ जाते सिंहासनों पर...
कभी उस तेज रौशनी में बैठ विशाल गोलमेज के चतुर्दिक
बनाते मणि हथियाने की योजनायें
कभी उसी के रक्षार्थ थाम लेते कोई पाषाणयुगीन हथियार
कभी उन निरंतर नृत्यरत बालाओं से करते जुगलबंदी
कभी वनदेवी के जूड़े में टांक आते वनफूल...
हर उस जगह थे हमारे स्वप्न
जहां वर्जित हमारा प्रवेश!


(चार)
इतनी तेज रोशनी उस कमरे में
कि जरा सा कम होते ही
चिंता का बवण्डर घिर आता चारों ओर
दीवारें इतनी लंबी और सफेद
कि चित्र के होने पर
लगतीं फैली हुई कफन सी आक्षितिज
इतनी गति पैरों में
कि जरा सा शिथिल हो जायें
तो लगता धरती ने बंद कर दिया घूमना
विराम वहां मृत्यु थी
धीरज अभिशाप
संतोष मौत से भी अधिक भयावह
भागते-भागते जब बदरंग हो जाते
तो तत्क्षण सजा दिये जाते उन पर नये चेहरे
इतिहास से निकल ही जाती अगर कोई धीमी सी धुन
तो तत्काल कर दी जाती घोषणा उसकी मृत्यु की
इतिहास वहां एक वर्जित शब्द था
भविष्य बस वर्तमान का विस्तार
और वर्तमान प्रकाश की गति से भागता अंधकार
यह गति की मजबूरी थी
कि उन्हें अक्सर आना पड़ता था बाहर
उनके चेहरों पर होता गहरा विषाद
कि चौबीस मामूली घंटों के लिये
क्यूं लेती है धरती इतना लंबा समय?
साल के उन महीनों के लिये बेहद चिंतित थे वे
जब देर से उठता सूरज और जल्दी ही सो जाता
उनकी चिंता में शामिल थे जंगल
कि जिनके लिये काफी बालकनी के गमले
क्यूं घेर रखी है उन्होंने इतनी जमीन ?
उन्हें सबसे ज्यादा शिकायत मोर से थी
कि कैसे गिरा सकता है कोई इतने कीमती पंख यूं ही
ऐसा भी क्या नाचना कि जिसके लिये जरूरी हो बरसात
शक तो यह भी था
कि हो हो मिलीभगत इनकी बादलों से...


उन्हें दया आती वनदेवी पर
और क्रोध इन सबके लिये जिम्मेदार मणि पर 
वही जड़ इस सारी फसाद की
और वे सारे सीपीशैवालपत्थर और पहाड़
रोक कर बैठे जाने किन अशुभ स्मृतियों को
वे धुनें बहती रहती जो प्रपात सी निरन्तर
और वे गीत जिनमे शब्दों से ज्यादा खामोशियां...
उन्हें बेहद अफसोस
विगत के उच्छिष्टों से
असुविधाजनक शक्लोसूरत वाले उन तमाम लोगों के लिये
मनुष्य तो हो ही नहीं सकते थे वे उभयचर
थोड़ी दयाथोड़ी घृणा और थोड़े संताप के साथ
आदिवासी कहते उन्हें ...
उनके हंसने के लिये नहीं कोई बिंब
रोने के लिये शब्द एक पथरीला - अरण्यरोदन
इतना आसान नहीं था पहुंचना उन तक
सूरज की नीम नंगी रोशनी में
हजारों प्रकाशवर्ष की दूरियां तय कर
गुजरकर इतने पथरीले रास्तों से
लांघकर अनगिनत नदियां,जंगल,पहाड़
और समय के समंदर सात ...
हनुमान की तरह हर बार हमारे ही कांधे थे
जब-जब द्रोणगिरियों से ढूंढ़ने निकले वे अपनी संजीवनी...

(पाँच )
अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही देखते रहे हम
रात के किसी अनन्त विस्तार सा नहीं हमारा अतीत
उजालों के कई सुनहरे पड़ाव इस लम्बी यात्रा में
वर्जित प्रदेशों में बिखरे पदचिन्ह तमाम
हार और जीत के बीच अनगिनत शामें धूसर
निराशा के अखण्ड रेगिस्तानों में कविताओं के नखलिस्तान तमाम
तमाम सबक और हजार किस्से संघर्ष के
और यह भी नहीं कि बस अरण्यरोदन तक सीमित उनका प्रतिकार
उस अलिखित इतिहास में बहुत कुछ
मोरमणि और वनदेवी के अतिरिक्त
इतिहास के आगे बहुत आगे जाने की इच्छा
इच्छा जंगलों से बाहर
क्षितिज के इस पार से उस पार तक की यात्रा की
जो था उससे बहुत बेहतर की इच्छा...
इच्छाओं के गहरे समंदर में तैरना चाहते थे वे
पर उन्हें कैद कर दिया गया शोभागृहों के एक्वेरियम में
उड़ना चाहते थे आकाश में
पर हर बार छीन ली गयी उनकी जमीन...
और फिर सिर्फ ईंधन के लिये नहीं उठीं उनकी कुल्हाड़ियां
हाँ ... नहीं निकले जंगलों से बाहर छीनने किसी का राज्य
किसी पर्वत की कोई मणि नहीं सजाई अपने माथे पर
शामिल नहीं हुए लोभ की किसी होड़ में
किसी पुरस्कार की लालसा में नहीं गाये गीत
इसीलिये नहीं शायद सतरंगा उनका इतिहास!
हर पुस्तक से बहिष्कृत उनके नायक
राजपथों पर कहीं नहीं उनकी मूर्ति
साबरमती के संत की चमत्कार कथाओं की
पाद टिप्पणियों में भी नहीं कोई बिरसा मुण्डा
किसी प्रातः स्मरण में जिक्र नहीं टट्या भील का
जन्म शताब्दियों की सूची में नहीं शामिल कोई सिधू-कान्हू
बस विकास के हर नये मंदिर की आहुति में घायल
उनकी शिराओं में कैद हैं वो स्मृतियां
उन गीतों के बीच जो खामोशियां हैं
उनमें पैबस्त हैं इतिहास के वे रौशन किस्से
उनके हिस्से की विजय का अत्यल्प उल्लास
और पराजय के अनन्त बियाबान...
इतिहास है कि छोड़ता ही नहीं उनका पीछा
बैताल की तरह फिर-फिर बैठता उन चोटिल पीठों पर
सदियों से भोग रहे एक असमाप्त विस्थापन ऐसे ही उदास कदमों से
थकन जैसे रक्त की तरह बह रही शिराओं में
क्रोध जैसे स्वप्न की तरह होता जा रहा आंखों से दूर
पर अकेले ही नहीं लौटते ये सब
कोई बिरसा भी लौट आता इनके साथ हर बार
और यहीं से शुरु होता उनकी असुविधाओं का सिलसिला
यहीं से बदलने लगती उनकी कुल्हाड़ियों की भाषा
यहीं से बदलने लगती उनके नृत्य की ताल
गीत यहीं से बनने लगते हुंकार
और नैराश्य के गहन अंधकार से निकल
उन हुंकारों में मिलाता अपना अविनाशी स्वर
यहीं से निकल पड़ता एक महायात्रा पर हर बार
हमारी खंडित चेतना का स्वपनदर्शी पक्ष
यहीं से सौजन्यतायें क्रूरता में बदल जातीं
और अनजान गांवों के नाम बन जाते इतिहास के प्रतिआख्यान!


(छः)
यह पहला दशक है इक्कीसवीं सदी का
एक सलोने राजकुमार की स्वप्नसदी का पहला दशक
इतिहासग्रस्त धर्मध्वजाधारियों की स्वप्नसदी का पहला दशक
पहला दशक एक धुरी पर घूमते भूमण्डलीय गांव का
सबके पास हैं अपने-अपने हिस्से के स्वप्न
स्वप्नों के प्राणांतक बोझ से कराहती सदी का पहला दशक
हर तरफ एक परिचित सा शोर
पहले जैसी नहीं रही दुनिया
हर तरफ फैली हुई विभाजक रेखायें
हमारे साथ या हमारे खिलाफ
युद्ध का उन्माद और बहाने हजार
इराक, ईरानलोकतंत्र या कि दंतेवाड़ा
हर तरफ एक परिचित सा शोर
मारे जायेंगे वे जिनके हाथों में हथियार
मारे जायेंगे अब तक बची जिनकी कलमों में धार
मारे जायेंगे इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज
मारे जायेंगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के खिलाफ
और इस शोर के बीच उस जंगल में
नुचे पंखों वाला उदास मोर बरसात में जा छिपता किसी ठूंठ की आड़ में
फौजी छावनी में नाचती वनदेवी निर्वस्त्र
खेत रौंदे हुए हत्यारे बूटों से
पेड़ों पर नहीं फुनगी एक
नदियों में बहता रक्त लाल-लाल
दोनों किनारों पर सड़ रही लाशें तमाम
चारों तरफ हड्डियों के.... खालों के सौदागरों का हुजूम
किसी तलहटी की ओट में डरा-सहमा चांद
और एक अंधकार विकराल चारों ओर
रह-रह कर गूंजतीं गोलियों की आवाज
और कर्णभेदी चीत्कार
मणि उस जगमगाते कमरे के बीचोबीच सजी विशाल गोलमेज पर
चिल्ल पोंखींच तान ,शोर... खूब शोर... हर ओर
देखता चुपचाप दीवार पर टंगा मोर
पौधा बालकनी का हिलता प्रतिकार में...


सबसे बुरे दिन


सबसे बुरे दिन नहीं थे वे
जब घर के नाम पर
चैकी थी एक छह बाई चार की
बमुश्किलन समा पाते थे जिसमे दो जिस्म
लेकिन मन चातक सा उड़ता रहता था अबाध!
बुरे नहीं वे दिन भी
जब ज़रूरतों ने कर दिया था इतना मज़बूर
कि लटपटा जाती थी जबान बार बार
और वे भी नहीं
जब दोस्तों की चाय में
दूध की जगह मिलानी होती थी मज़बूरियां.
कतई बुरे नही थे वे दिन
जब नहीं थी दरवाज़े पर कोई नेमप्लेट
और नेमप्लेटों वाले तमाम दरवाज़े
बन्द थे हमारे लिये.
इतने बुरे तो खैर नही हैं ये भी दिन
तमाम समझौतों और मजबूरियों के बावजूद
ही जाती है सात आठ घण्टों की गहरी नीद
और नीं में वही अजीब अजीब सपने
सुबह अखबार पढ़कर अब भी खीजता है मन
और फाइलों पर टिप्पणियां लिखकर बी क़लम
अब भी हुलस कर लिखती है कविता.
बुरे होंगे वे दिन
अगर रहना पड़ा सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला
दोस्तों की शक्लें हो गईं बिल्कुल ग्राहकों सीं
नेमप्लेट के आतंक में दुबक गया मेरा नाम
नींद सपनों की जगह गोलियों की हो गई ग़ुलाम
और कविता लिखी गई फालों की टिप्पणियों सी.
बहुत बुरे होंगे वे दिन
जब रात की शक्ल होगी बिल्कुल देह जैसी
और उम्मीद की चेबुक जैसी
विश्‍वा होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
खुशी घर का कोई नया सामान
और समझौते मजबूरी नही बन जायेंगे आदत.
लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन
जब आने लगेंगे इन दिनों के सपने!

कहां होंगी जगन की अम्मा ?


सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये
ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा शर्मिंदा सा जेबें टटोलते
अचानक पहुंच जाता हूं
बचपन के उस छोटे से कस्बे में
जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं
और मां बांस की रंगीन सी डलिया में
दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर
जहां इंतज़ार में होती थीं
सुलगती हुई हांड़ियों के बीच जगन की अम्मा.
तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी
बस जगन की अम्मा थीं वह
हालांकि पांच बेटियां भी थीं उनकीं
एक पति भी रहा होगा ज़रूर
पर कभी ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई उसे जानने की
हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू
और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान.
हालांकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर
नहीं था कहीं उसका विज्ञापन
हमारी अपनी नंदन, पराग या चंपक में भी नहीं
अव्वल तो थी हीं नहीं इतनी होर्डिगें
जो थीं उन पर कहीं नहीं था इनका ज़िक्र
पर मां के दूध और रक्त से मिला था मानो इसका स्वाद
तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू
और तमाम दृश्यों में सबसे खूबसूरत था वह दृश्य.
मुट्ठियां भर भर कर फांकते हुए इसे
हमने खेले बचपन के तमाम खेल
ऊंघती आंखों से हल कि ये गणित के प्रमेय
रिश्तेदारों के घर रस के साथ यही मिला अक्सर
एक डलिया में बांटकर खाते बने हमारे पहले दोस्त
फ्राक में छुपा हमारी पहली प्रेमिकाओं ने
यही दिया उपहार की तरह
यही खाते खाते पहले पहल पढ़े
डिब्बाबंद खाने और शीतल पेयों के विज्ञापन!
और फिर जब सपने तलाशते पहुंचे
महानगरों की अनजान गलियों के उदास कमरों में
आतीं रहीं अक्सर जगन की अम्मा
मां के साथ पिता के थके हुए कंधो पर
पर धीरे धीरे घटने लगा उस खुशबू का सम्मोहन
और फिर खो गया समय की धुंध में तमाम दूसरी चीज़ों की तरह.
बरसों हुए अब तो उस गली से गुज़रे
पता ही नहीं चला कब बदल गयी
बांस की डलिया प्लास्टिक की प्लेटों में
और रस भूजा - चाय नमकीन में!


अब कहां होंगी जगन की अम्मा?


बुझे चूल्हे की कब्र पर तो कबके बन गये का
और उस कस्बे में अब तक नहीं खुली चिप्स की फैक्ट्री
और खुल भी जाती तो कहां होती जगह जगन की अम्मा के लिए?
क्या कर रहे होंगे आजकल
मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भर देने वाले हाथ?
आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले
होती हैं अनेक भयावह संभावनायें....
जेबें टटोलते मेरे शर्मिन्दा हाथों को देखते हुए ग़ौर से
दुकानदार ने बिटिया को पकड़ा दिये हैं- अंकल चिप्स!

मां की डिग्रियां


घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक
जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीज़ों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
मां की डिग्रियों का एक पुलिन्दा
बचपन में अक्सर देखा है मां को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
मरे हुए चूहे सी एक ओर कर देतीं
वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी
और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों सा
देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिन्दा
कभी क्रोध कभी खीझ
और कभी हताश रूदन के बीच
टुकड़े-टुकड़े सुनी बातों को जोड़कर
धीरे-धीरे बुनी मैंने साड़ी की कहानी
कि कैसे ठीक उस रस्म के पहले
घण्टों चीखते रहे थे बाबा
और नाना बस खडे रह गये थे हाथ जोड़कर
मां ने पहली बार देखे थे उन आंखों में आंसू
और फिर रोती रही थीं बरसों
अक्सर कहतीं
यही पहनाकर भेजना चिता पर
और पिता बस मुस्कुराकर रह जाते...
डिग्रियों के बारे में तो
चुप ही रहीं मां
बस एक उकताई सी मुस्कुराहट पसर जाती आंखों में
जब पिता किसी नए मेहमान के सामने दुहराते
उस ज़माने की एम.. हैं साहब
चाहतीं तो काले में होतीं किसी
हमने तो रोका नहीं कभी
पर घर और बच्चे रहे इनकी पहली प्राथमिकता
इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ
बहुत बाद में बताया नानी ने
कि सिर्फ कई रातों की नींद नहीं थी उनकी क़ीमत
अनेक छोटी-बड़ी लड़ायां
दफ़्न थीं उन पुराने काग़ज़ों में...
आठवीं के बाद नहीं था आसपास कोई स्कूल
और पूरा गांव एकजुट था हर भेजे जाने के खिलाफ़
उनके दादा ने तो त्याग ही दिया था अन्न-जल
पर निरक्षर नानी अड़ गयी थीं चट्टान सी
और झुकना पड़ा था नाना को पहली बार
अन्न-जल तो ख़ैर कितने दिन त्यागते
पर गांव की उस पहली ग्रेजुएट का
फिर मुंह तक नहीं देखा दादा ने
डिग्रियों से याद आया
ननिहाल की बैठक में टंगा
वह धूल-धूसरित चित्र
जिसमें काली टोपी लगाये लम्बे से चोगे में
बेटन सी थामे हुए डिग्री
मां जैसी शक्लोसूरत वाली
एक लड़की मुस्कुराती रहती है
मां के चेहरे पर तो
कभी नहीं देखी वह अलमस्त मुस्कान
कॉले के चहचहाते लेक्चर थियेटर में
तमाम हमउम्रों के बीच कैसी लगती होगी वह लड़की?
क्या सोचती होगी
रात के तीसरे पहर
इतिहास के पन्ने पलटते हुए?
क्या उसके आने के भी ठीक पहले तक
काले की चहारदीवारी पर बैठा
कोई करता होगा इंतज़ार?
(जैसे मैं करता था तुम्हारा)
क्या उसकी किताबों में भी
कोई रख जाता होगा
सपनों का महकता गुलाब?
परिणामों के ठीक पहले वाली रात
क्या हमारी ही तरह धड़कता होगा उसका दिल?
और अगली रात
पंख लगाये डिग्रियों के उड़ता होगा उन्मुक्त...
जबकि तमाम दूसरी लड़कियों की तरह
एहसास होगा ही उसे
अपनी उम्र के साथ गहराती जा रही पिता की चिन्ताओं का
तो क्या परीक्षा के बाद किताबों के साथ
ख़ुद ही समेटने लगी होगी स्वप्न?


या सचमुच इतनी सम्मोहक होती है
मंगलसूत्र की चमक और सोहर की खनक
कि आंखों में जगह ही बचे किसी अन्य दृश्य के लिए?
.
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पूछ तो नहीं सका कभी
पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद
इतना तो समझ सकता हूँ
कि उस चटख पीली लेकिन उदास साड़ी के नीचे
दब जाने के लिये नहीं थीं उस लड़की की डिग्रियां.