आज सुबह अचानक आलोक कौशिक ने मेरी ये दो कविताएं लाकर दीं, इस आग्रह के साथ कि इन्हें ब्लॉग पर डाला जाना चाहिए। ये काफ़ी पुरानी कविताएं हैं और मेरे पास ये उपलब्ध भी नहीं थीं। भला हो उनका कि उनको दी गई मेरी किसी किताब को देखते हुए उन्हें न केवल ये मिल गईं, बल्कि अच्छी भी लगीं। तो ये कविताएं सिर्फ़ उनके आग्रह के कारण . . .
हमारे समय की प्रार्थनाएं
नदियो!
तुम यों ही बहती रहो
धरती को सींचती हरा-भरा
करती
मनुष्यों और शेष
जीव जगत के जीवन को
सुनिश्चित करती।
पर्वतो!
तुम यों ही अड़े रहो
विविधतामय वनस्पति को
धारण करते हुए
बादलों से मित्रता को पुख़्ता रखते हुए।
बादलो!
तुम गरजो चाहे जितना भी
बरसते रहो
इतना-भर ज़रूर कि
ताल-तलैया लबालब रहें
कुएं ज़्यादा लंबी रस्सी
की मांग न करें।
सूर्य!
तुम प्रकाश और ऊष्मा का
संचार करते रहो
धरती को हरा-भरा रखो
फूलों को खिलाओ
उन्हें रंग दो- गंध दो
और फलों को रस से
मालामाल करते रहो।
धरती मां!
हमें धारण करती रहो
पर हां हमें
तुम्हारे लायक़ यानि
बेहतर मनुष्य
बनते चले जाने को
प्रेरित करती रहो
कभी-कभी दंडित भी करो
लेकिन प्यार बांटती रहो
अबाध और अनवरत
हमारी अंजुरि ख़ाली न रहे।
और समुद्र!
तुम
निरंतर उथले
होते जा रहे
हम मनुष्यों को
थोड़ी अपनी गहराई
देते चलो।
घरोंदा हो या मुल्क़
हमारे समय की प्रार्थनाएं
नदियो!
तुम यों ही बहती रहो
धरती को सींचती हरा-भरा
करती
मनुष्यों और शेष
जीव जगत के जीवन को
सुनिश्चित करती।
पर्वतो!
तुम यों ही अड़े रहो
विविधतामय वनस्पति को
धारण करते हुए
बादलों से मित्रता को पुख़्ता रखते हुए।
बादलो!
तुम गरजो चाहे जितना भी
बरसते रहो
इतना-भर ज़रूर कि
ताल-तलैया लबालब रहें
कुएं ज़्यादा लंबी रस्सी
की मांग न करें।
सूर्य!
तुम प्रकाश और ऊष्मा का
संचार करते रहो
धरती को हरा-भरा रखो
फूलों को खिलाओ
उन्हें रंग दो- गंध दो
और फलों को रस से
मालामाल करते रहो।
धरती मां!
हमें धारण करती रहो
पर हां हमें
तुम्हारे लायक़ यानि
बेहतर मनुष्य
बनते चले जाने को
प्रेरित करती रहो
कभी-कभी दंडित भी करो
लेकिन प्यार बांटती रहो
अबाध और अनवरत
हमारी अंजुरि ख़ाली न रहे।
और समुद्र!
तुम
निरंतर उथले
होते जा रहे
हम मनुष्यों को
थोड़ी अपनी गहराई
देते चलो।
घरोंदा हो या मुल्क़
कुछ चीज़ें
ऐसी होती हैं जिनका
कोई विकल्प नहीं होता
पुरानी भी नहीं पड़ती हैं वे
जैसे धूप और प्यार
हवा, आग और पानी
रोटी और नमक
जैसे रोशनी और सपने.
बहुत कुछ हो जाए
दुनिया में
चाहे सब- कुछ ही बदल जाए
ये चीज़ें अपनी जगह रहेंगी
कुछ भी इन्हें
हिला-डिगा-धकिया नहीं सकता.
जीने के लिए, कुछ करके,
कुछ बनकर,
कुछ बनाकर दिखाने के लिए
सपना
खुली आंख का सपना
उतना ही ज़रूरी है
जितना प्यार
हवा, धूप, आग, पानी और
रोशनी ज़रूरी हैं जीने के लिए
धरती की ऊष्मा, जल, वायु, प्रकाश
छिन जाने पर बीज तक नहीं
फूट सकता
वैसे ही
जैसे कोई आकृति तक संभव नहीं
सपने के बिना
न घरोंदा
न मुल्क़
न दुनिया.