Thursday, 26 April 2012

1. बच्चे सपना देखते हैं 

बच्चे सपना देखते हैं
पहले भी देखते थे सपने वे
घोड़े पर बैठे राजकुमार
के रूप में
खुद को देखते थे सपनों में
या फिर परियों की संगत में
उड़ते-फिरते रहते थे
आसमान में
सपनों में.

उनके आज के सपनों का
सारतत्व बदल गया है
बदल क्या गया है
बदलवा दिया है
मा-बाप ने
ऐसे सपने जो छीन लेते हैं
बचपन
बना देते हैं अकाल युवा.
चिंताग्रस्त युवा जो घबराता है
सपनों के बोझ से.


2. बच्चों को बड़ा होने दो पेड़ सा 

बच्चों को उनके अधिकार
बताने का कोई अर्थ नहीं है
बड़ों को बताओ
बच्चों के प्रति उनके कर्तव्य.
कि बच्चे खेल-कूद सकें
पढ़-लिख सकें
बड़े हो सकें
जैसे उन्हें होना चाहिए बड़ा.
और फिर?
और फिर
बड़े होकर वे निभा सकें
अपनी भूमिका घर-परिवार में,
समाज में.

ज़रूरत है इसके लिए बहुत ही
इस बात की
कि वे जोड़ सकें अपने-आपको
घर-परिवार से
आस-पड़ोस से
और देश से जो
बहुत अमूर्त-सा लगता है
सरोकारों के अभाव में.
सरोकार जो देते हैं
विस्तार
एक को दूसरे से जोड़ते हैं
फिर सौवें से हजारवें से
और लाखों-लाखवें से.
तभी तो बनता है,
ऐसे जुड़ते चले जाने ही से
बनता है देश और
समाज.

बच्चों को बढ़ने दो पेड़
की तरह
बोनसाई मत बनाओ उन्हें
सजावट-दिखावट की चीज़ नहीं
होते बच्चे. बच्चों पर गर्व करो
उनकी क्षमताओं के पल्लवित-पुष्पित
हो जाने पर
ग़लत है नाराज़ी उनसे तुम्हारे
सौंपे हुए सपनों की नाकामी पर.
                               -मोहन श्रोत्रिय 

यारोस्लाव साइफ़र्त की तीन कविताएं

चेक कवि यारोस्लाव साइफ़र्त (1901-1986) जीवन के प्रति गहरी काव्य-समझ रखने वाले और उसमें निरंतर आस्थावान कवि के रूप में विख्यात हैं. 1984 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित इस विश्व-कवि की कविताओं में प्रेम, प्रकृति और मानवीय जीवन के विविध रंग गहरे और अलग काव्यबोध के साथ स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं.

1. प्लेग मृतकों की क़तारें

उनके बहकावे में मत आओ
कि शहर में प्लेग का 
दौर-दौरा खत्म हो चुका है.
मैंने खुद देखी हैं
अपनी ही आंखों से 
शहर के प्रवेश-द्वार से गुज़रती 
एक के बाद एक
अनेक लाशें ताबूतों में
रखी हुई.

ध्यान रहे शहर में वह
अकेला प्रवेश-द्वार नहीं है 
और भी हैं.
प्लेग की प्रचंडता अभी भी जारी है
ज़ाहिर है कि दहशत न फैले
इसलिए इसे दूसरे-तीसरे 
नाम दे दिए हैं डॉक्टरों ने  

यह कुछ नहीं है
उसी पुरानी मौत के सिवा.


2. मछुए के जाल में अटका बसंत

मछुए के जाल की चक्राकार 
झालरों में अटका है अटका है बसंत
पेड़ पटे पड़े हैं नई खिली कलियों से
जो मुस्काती हैं हम पर
हमें इधर-उधर देखता पा कर.

मछुए के जाल की चक्राकार 
झालरों में टंगे हैं तीन सितारे
हम आपस में परिचित हैं
इनमें से एक सदा याद रखता है मुझे
अंधियारी यात्रा के खत्म होने तक
मेरे घर के पथ को करता रहता है
आलोकित. कम ही लोग 
इतने सौभाग्यशाली होते हैं
कि सितारों में अपनी 
सच्ची प्रेमिका पजाएं.

मछुए के जाल की चक्राकार
झालरों में जकड़ी पड़ी 
है हवा
इसकी हंसी को
पहचानती हैं तमाम औरतें 
महसूस करती हैं इसे जब वे 
आपस में बतियाती हैं
पुरुषों के बारे में.

मछुए के जाल की चक्राकार 
झालरों में फंसे हैं
नाखून करुण आशंकाओं के
वैसी ही आशंकाओं के 
जिनसे गुज़रते हैं पुरुष
जब वे बात कर रहे होते हैं
स्त्रियों के बारे में.


3. पिकेडिली से आया छाता 

जिसे पता न हो अपने 
सच्चे प्यार के ठिकाने का
चौंको मत, वह मरने लग सकता है
इंग्लैंड की महारानी पर भी.
क्यों न हो! उसका चेहरा पुराने 
साम्राज्य के हर डाक टिकट पर
देखने वाले को आकृष्ट करता रहता है.
इसमें कोई शुबहा नहीं
कि गर वो चाहे मिलना महारानी से
हाइड पार्क में, तो बस यूं ही
इंतज़ार करता रह जाएगा.
अक्ल ज़रा सी भी 
काम में ले ले तो वह बुदबुदाता हुआ 
खुद को समझाता पाया जाएगा :
'मुझे पता है
हाइड पार्क में बरसात हो रही है.'

मेरा बेटा जब लौटा
इंग्लैंड से तो 
पिकेडिली से छाता ले आया
मेरे लिए.
जब भी ज़रूरत होती है मैं 
पा लेता हूं अपने सिर के ऊपर
मेरा अपना छोटा-सा आकाश
चाहे वह काला ही क्यों न हो!
इसकी तनी हुई पसलीनुमा
तानों में प्रवाहित होती रहती है
ईश-कृपा बिजली की तरह 
पानी न बरस रहा हो 
तो भी मैं खोल लेता हूं छाता
शेक्सपीयर के सानेटों की किताब पर
जो हर वक़्त मेरे साथ होती है 
मेरी जेब में.

कभी कभी मैं घबरा जाता हूं
ब्रह्मांड के दमकते गुलदस्ते को
देख कर. इसकी सुंदरता सब कुछ को
पीछे छोड़ जाती है, पर घुड़की लगाती है,
आंखें तरेरती है इसकी असीमता. बहुत
मिलती-जुलती लगती है वह 
मौत के बाद की नींद से.
हम निरंतर भयग्रस्त रहते हैं
हिमीभूत शून्य से, असंख्य सितारों के 
संकुलों से नहीं. बेशक उनकी दमक के आगे 
हम ठगे-से रह जाते हैं.
जिस सितारे को शुक्र 
नाम दिया गया, वह डराता है
आतंकित करता है, वहां अभी भी 
चट्टानें उबल रही हैं
और पर्वत श्रृंखलाएं विशाल लहरों की भांति 
उत्तप्त सांसें लेती हैं. वहां बरसात 
पानी की नहीं आग और 
गंधक की होती है.
हम न जाने कब से 
पूछते आए हैं कि नरक 
कहां है? बेशक यह वहीं है!
पर ब्रह्माण्ड के खिलाफ़ एक 
कमज़ोर-सा छाता कर ही क्या
सकता है? और फिर इसे
हर वक़्त साथ रखता भी 
कहां हूं?
मेरे लिए यही काफ़ी है
कि मैं धरती से जुड़ा-चिपका रहूं
जैसे रात्रि-कीट दिन कि रोशनी में
पेड़ की खुरदरी छाल से चिपके
रहते हैं.

कभी यहां स्वर्ग था. तमाम उम्र 
मैं उसी की तलाश करता रहा हूं
उसके कुछ निशान भी मिले हैं
मुझे एक स्त्री के
प्यार की गर्माहट से भरे होठों 
व गोलाकारों पर.
तमाम उम्र मैं तडपता रहा हूं 
मुक्ति के लिए. आखिरकार मैंने
खोज ही लिया एक दरवाज़ा
वहां तक पहुंचने के लिए.
मृत्यु!
आज जब मैं बूढ़ा हो गया हूं
एक सुंदर स्त्री का चेहरा कभी-कभी
मेरी पलकों को छू कर हौले से 
गुज़र जाता है. उसकी मुस्कान मेरे
खून में सरसराहट पैदा कर देती है.
लजाता हुआ-सा मैं देखता हूं
उसकी ओर और मुझे याद आती है
इंग्लैंड की महारानी जिसका चेहरा पुराने 
साम्राज्य के हर डाक टिकट पर 
छपा हुआ मिलता है.

ईश्वर महारानी की रक्षा करे !

अरे हां, मुझे अच्छी तरह से पता है
कि आज इस वक़्त
हाइड पार्क में बरसात हो रही है!
                          अनुवाद : मोहन श्रोत्रिय 

Wednesday, 25 April 2012

साहिल के तमाशाई

कल सुबह मीना कुमारी का एक शेर स्टेटस में दिया था.    साहिल के तमाशाई, हर डूबने वाले पर
अफ़सोस तो करते हैं, इमदाद नहीं करते.

एक मित्र को लगा इस पर आलेख-जैसा कुछ हो तो बात और खुले. मैंने वादा तो किया था एक पूरे आलेख का लेकिन  दिन में कुछ अन्य न टाले जा सकने वाले कामों को पूरा करने के चक्कर में इतने से ही मन को तसल्ली देनी पड़ी. टिप्पणियां देखते हुए मिलती-जुलती ज़मीन पर उनका ही एक शेर और साझा किया.
दिन डूबे है या डूबे बारात लिए क़श्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता.

लिखते-लिखते यकायक कौंधा कि दुष्यंत कुमार ने भी एकदम इसी भाव-भूमि पर एक शेर कहा था, जिसने एक ज़माने में बेहद लोकप्रियता हासिल कर ली थी. कह सकते हैं, अनेक लोगों की ज़बान पर चढ़ गया था, यह शेर.
वो कोई बारात हो या वारदात अब
किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां.

इन तीनों शेरों की जो भाव-भूमि है, वह लोगों की उदासीनता और तटस्थता पर चोट करती है. "क्या फ़र्क़ पड़ता है के भाव पर!" यानि जो 'रोज़ घटित होने वाली बातें हैं, उन पर कितना/क्या स्यापा किया जाए.' लोहार वाली चोट तो नहीं कहा जा सकता इन्हें, सुनार वाली चोट कह लीजिए. दोनों शायरों की जो अंतर्निहिहित दृष्टि है, वह व्यंग्य के बहुत क़रीब है. लोगों की बढ़ती चेतना-शून्यता पर. अचानक दुष्यंत कुमार का ही एक और शेर याद आया जो आज पहले कभी से ज़्यादा प्रासंगिक लगता है.
लहू-लुहान नज़ारों की बात आई तो,
शरीफ़ लोग उठे, दूर जाके बैठ गए.
कहने की ज़रूरत नहीं कि यहां इशारा न केवल वास्तविक जीवन की घटनाओं के प्रति उदासीनता की ओर है बल्कि उस दुविधा और भयग्रस्त मानसिकता की ओर भी है जो लोगों को किसी भी तरह के संभावित संकट की ज़द में आ जाने से अपनेआपको बचाने की उत्कट इच्छा की ओर भी है.
यह सब सोच ही रहा था कि एक मित्र ने याद दिलाया कि आज दिनकर जी की पुण्यतिथि है. दिनकर जी, जिन्होंने तटस्थता पर सबसे घनघोर प्रहार किया था.
...जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध. दिनकर जी की उत्कृष्ट सामाजिक सचेतनता का ही नहीं अपितु स्पष्ट एवं मुखर सामाजिक पक्षधरता का भी साक्ष्य मिलता है इस पंक्ति में. प्रसंगवश, वह जनता के साथ थे, यह तो उनकी बहु-उद्धृत पंक्ति (जिसने नारे का रूप भी ग्रहण कर लिया था) : सिंहासन खाली करो कि जनता आती है  से भी साफ़ ही है.
तटस्थता ढोंग है. दिखावा है. आत्म-प्रवंचना है, कायरता है. हम जब तटस्थ दिखने का उपक्रम कर रहे होते हैं, उस समय भी मन ही मन एक पक्ष ले रहे होते हैं. पक्षधरता को उजागर करना जोखिम भरा काम लगता है, तो लोग तटस्थ होने का भरम फैलाते हैं. कोई भी व्यक्ति 'पिटने वाले' और 'पीटने वाले' के प्रति सम भाव नहीं रख सकता. उसकी मनुष्यता का लोप ही हो गया हो तो बात अलग है. वैसे भी, मैं इस कोटि के लोगों के बारे में बात नहीं कर रहा. आज जैसी स्थितियां-परिस्थितियां बनती दिख रही हैं, इनके आलोक में एक चीज़ दिन की तरह उजागर है कि जो लोग भी समतामूलक समाज की स्थापना के स्वप्न को अभी भी प्रासंगिक मानते हैं, जो कॉरपोरेटी लूट के निहितार्थों और फलितार्थों को समझते हैं, जो जात-मजहब के खतरनाक खेल की हक़ीक़त को समझते हैं, उन्हें घोषित रूप से पक्ष तो लेना ही पड़ेगा. अमरीकी साम्राज्यवाद निकृष्टतम राजनीति करते हुए भी दुनियाभर में 'अराजनैतिक होने' को एक 'वरेण्य मूल्य' के रूप में प्रस्तावित-प्रचारित करता रहता है, इस हक़ीक़त की गहराई में जाकर ग़लत राजनीति के खिलाफ़ और सही राजनीति के पक्ष में खड़ा होना होगा. दुविधाग्रस्त मन दुश्मन के काम को आसान बना देता है. ब्रेख्त की इस मुतल्लिक कविता फ़ेसबुक पर ही रोज़ दिख जाती है. मुक्तिबोध जब बशर्ते तय करो किस ओर हो तुम  का आह्वान करते हैं, या पूछते हैं तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है, पार्टनर? तो वह सबसे ज़रूरी सवालों को सीधे समझ में आ जाने वाली भाषा में रखते हैं, ताकि दुरूहता/दुर्बोधता का आरोप न लगे उन पर.
समय आ गया है कि साहिल पर खड़े लोग सिर्फ़ अफ़सोस न करें, इमदाद भी करें ; क़श्ती डूबे तो साहिल पर खड़े लोगों के बीच कोहराम भी मचे ; वारदात हो या बारात निकले तो घरों की खिड़कियां खुलने लगें. 
लहू-लुहान नज़ारों की बात आए तो न केवल समूची वास्तविकता को जानने-समझने से नज़रें न चुराएं. कुल मिलाकर यह कि हमारे चारों ओर जो भी घटित हो रहा है, उसमें हमारा रचनात्मक हस्तक्षेप हमारे सरोकारों, हमारी चिंताओं और हमारी पक्षधरता का साक्ष्य प्रस्तुत करे. बेलाग और बेलौस तरीक़े से. 

Saturday, 21 April 2012

लेनिन की 142वीं जयंती की पूर्वसंध्या पर

कल लेनिन जयंती है. ठीक 142 बरस पहले दुनियाभर के मेहनतकशों के हमदर्द और पथ प्रदर्शक, तथा मार्क्स-एंगेल्स के दर्शन पर आधारित पहली क्रांति के जनक लेनिन का जन्म हुआ था, और सैंतालीस वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लिया था : दुनिया के पहले समाजवादी गणतंत्र की नींव रखकर. यह सच है कि आज वह समाजवादी गणतंत्र अस्तित्वमान नहीं है. पर इसके मायने ये क़तई नहीं हैं कि उस गणतंत्र के विखंडन के बाद, या दुनियाभर में समाजवादी ढांचे के कमज़ोर अथवा क्षीण हो जाने के बाद से समाजवाद के सपने की कोई जगह नहीं रह गई. पूंजीवादी और नव- साम्राज्यवादी मंसूबों के सार तत्व को जो तनिक भी समझ रहे हैं, वे इस बात से बाखबर हैं कि समाजवाद का सपना न केवल वक़्त की जरूरत है, बल्कि पूंजीवाद की निर्णायक पराजय की एकमात्र गारंटी है. ज़रूरी नहीं कि समाजवादी संरचना वैसी ही हो, जैसी पहली क्रांति के बाद हुई थी. पिछले दिनों समूची पूंजीवादी दुनिया में मार्क्सवाद की ओर आकृष्ट होने वाले जनगण की संख्या में न केवल बढ़ोतरी हुई है, बल्कि एक तरह का धमाकेदार जन-उद्घोष सुनाई पड़ने लगा है, जिसके संदेश को सार रूप में इसी तरह समझा जा सकता है कि मौजूदा संकट से मुक्ति की दिशा मार्क्सवाद के नज़दीक ही चिह्नित की जा सकती है.
यह कहने का आशय कतई यह न लिया जाए कि पूंजीवाद के पोषकों ने निर्णायक तौर पर उम्मीद छोड़ दी है, या वे पस्त-हिम्मत हो गए हैं. इसके एकदम उलट वे पूंजीवाद को चमकाने की तमाम कोशिशें कर रहे हैं. विकासशील देशों में फ़ोर्ड फाउंडेशन तथा अनेक अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा विभिन्न परियोजनाओं के तहत अनाप-शनाप पैसा सिर्फ़ इसलिए खर्च किया जा रहा है कि वाम-विरोध को फिर से उसी तरह ज़िंदा किया जा सके, जैसा शीतयुद्ध काल में, मैकार्थी के ज़माने में किया जा सका था. तब भी अमरीकी एजेंसियों की नज़र साहित्य-संस्कृति कर्मियों, वाम-विरोधी राजनेताओं आदि पर केंद्रित थी. तब विचारधारा और राजनीति के विरोध को हथियार बनाकर, पूंजीवाद-परस्त विचारधारा चलायी गई थी. भारत में तब इसके पुरोधा अज्ञेय थे. आज भी जो सक्रिय वाम-विरोधी हैं, उनमें से अधिकांश उनके शिष्य संप्रदाय से ही संबद्ध हैं. थोडा फ़र्क़ यह आया है कि स्थानीय स्तर पर, अज्ञेय के शताब्दी-मूल्यांकन के बहाने, इन लोगों को वाम वैचारिक शिविर में सेंध लगा पाने का अवसर मिल गया है. इसे विडंबना के अलावा क्या कहा जा सकता है कि अमरीकी साम्राज्यवाद के घोर विरोधी कुछेक शीर्षस्थ नाम अज्ञेय-स्तुतिगान में इनके साथ जुड़ गए. निस्संदेह, इससे वाम शिविर में थोडा भटकाव आया है, पर यह देर तक चल सकने वाली स्थिति नहीं बन सकती, क्योंकि बड़ी लड़ाईयां लड़ी जानी हैं, न केवल यहां, बल्कि दुनियाभर में.
लेनिन जयंती एक मौक़ा है, तमाम वामपक्षी संरचनाओं के लिए कि वे आत्म-निरीक्षण करें, निर्मम आत्मालोचन करें, और समय रहते अपनी छोटी-बड़ी भूलों को दुरुस्त करें. इतना ही नहीं, बल्कि नए सिरे से अपनी निष्ठा ज़ाहिर करें, एक नया समाज बनाने के संकल्प को दोहराते हुए. एक ऐसा समाज जहां किसी भी तरह की गैर-बराबरी को एक दंडनीय अपराध के रूप में मान्यता हो, जहां शोषण, दमन और उत्पीडन समूल नष्ट कर दिए जाने के संकल्प को मूर्तिमान करने के लिए किसी भी क़ुरबानी को बड़ा नहीं माना जाए.
"लेनिन को उनकी जयंती पर लाल सलाम" सिर्फ़ एक नारा न रहे, जनता के व्यापक हिस्सों को शिक्षित एवं संगठित करने का आह्वान बन जाए. लेखकों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों को और अधिक खुलकर काम करने की ज़रूरत है.

पैरों से रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल- लेनिन 

पैरों से
रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल
और अधिक चटख रंगों में
फिर से खिलने के लिए।

जब भी बहता है
मेहनतकश का लहू सड़कों पर,
परचम और अधिक सुर्ख़रू
हो जाता है।

शहादतें इरादों को
फ़ौलाद बनाती हैं।
क्रान्तियाँ हारती हैं
परवान चढ़ने के लिए।

गिरे हुए परचम को
आगे बढ़कर उठा लेने वाले
हाथों की कमी नहीं होती।

Sunday, 15 April 2012

काव्य प्रतिभा: रसूल हमज़ातोव

रसूल हमज़ातोव के मेरा दागिस्तान की गणना विश्व क्लासिकों में होती है. यह पुस्तक अपने भीतर इतना कुछ समेटे हुए है जिससे परिचित होकर युवा लेखकों की पीढ़ी कविता से जुड़े न जाने कितने ज़रूरी घटकों की समझ से संपन्न बन सकती है. यहां भाषा, रचना-प्रक्रिया, रचना का प्रयोजन, लोक से प्राप्त मेधा का सृजनात्मक उपयोग से जुड़ी सामग्री का भंडार भरा पड़ा है. काव्य-प्रतिभा पर रसूल हमज़ातोव ने बड़े दिलचस्प तरीके से विचार किया है. उनकी शैली तो पाठक को बांध ही लेती है. पाठक में यदि धैर्य हो तब तो कहना ही क्या!


जलो कि प्रकाश हो !
                                          लैंप पर आलेख

कवि और सुनहरी मछली का क़िस्सा. कहते हैं कि किसी अभागे कवि ने कास्पियन सागर में एक सुनहरी मछली पकड़ ली.
       "कवि, कवि, मुझे सागर में छोड़ दो," सुनहरी मछली ने मिन्नत की.
       "तो इसके बदले युम मुझे क्या दोगी?"
       "तुम्हारे दिल की सभी मुरादें पूरी हो जाएंगी."
      कवि ने खुश होकर सुनहरी मछली को छोड़ दिया. अब कवि की किस्मत का सितारा बुलंद होने लगा. एक के बाद एक उसके कविता-संग्रह निकलने लगे. शहर में उसका घर बन गया और शहर के बाहर एक बढ़िया बंगला भी. पदक और "श्रम-वीरता के लिए" तमगा भी उसकी छाती पर चमकने लगे. कवि ने ख्याति प्राप्त कर ली और सभी की ज़बान पर उसका नाम सुनाई देने लगा. ऊंचे से ऊंचे ओहदे उसे मिले और सारी दुनिया
उसके सामने भुने हुए, प्याज और नींबू से मज़ेदार बने हुए सीख कबाब के सामान थी. हाथ बढ़ाओ, लो और मज़े से खाओ.
जब वह अकादमीशियन और सांसद बन गया था और पुरस्कृत हो चुका था, तो एक दिन उसकी पत्नी ने ऐसे ही कहा --
"आह, इन सब चीज़ों के साथ-साथ तुमने सुनहरी मछली से कुछ प्रतिभा भी क्यों न मांग ली?" 
कवि मानो चौंका, मानो वह समझ गया कि इन सालों के दौरान किस चीज़ की उसके पास कमी रही थी.
वह सागर-तट पर भागा-भागा गया और मछली से बोला -
 "मछली, मछली, मुझे थोड़ी-सी प्रतिभा भी दे दो."
  सुनहरी मछली ने जवाब दिया -
"तुमने जो भी चाहा, मैंने वह सभी कुछ तुमको दिया. भविष्य में भी जो कुछ तुम  चाहोगे, मैं तुम्हें दूंगी, 
मगर प्रतिभा नहीं दे सकती. वह, कवि-प्रतिभा तो खुद मेरे पास भी नहीं है."
  तो प्रतिभा या तो है, या नहीं. उसे न कोई दे सकता है, न ले सकता है. प्रतिभाशाली तो पैदा ही होना चाहिए.
...
...
पिताजी ने यह बात सुनाई. दूर के किसी गांव से एक पहाड़ी आदमी पिताजी के पास आया और अपनी कविताएं सुनाने लगा. पिताजी ने  इस नए कवि की रचनाएं बड़े ध्यान से सुनीं और फिर अपेक्षाकृत कमज़ोर और बेजान स्थलों की ओर संकेत किया. इसके बाद उन्होंने पहाड़ी को यह बताया कि वह खुद, त्सादा का हमज़ात इन्हीं कविताओं को कैसे लिखता..
"प्यारे हमज़ात," पहाड़ी आदमी कह उठा, "ऐसी कविताएं लिखने के लिए तो प्रतिभा चाहिए !"
"शायद तुम ठीक ही कहते हो, थोड़ी-सी प्रतिभा से तुम्हें कोई हानि नहीं होगी."
'तो यह बताइए वह कहां मिल सकती है, हमज़ात के जवाब में निहित व्यंग्य को न समझते हुए पहाड़ी ने खुश होकर पूछा.
"दुकानों पर तो मैं आज गया था, वहां वह नहीं थी, शायद मंडी में हो."

कोई भी यह नहीं जानता कि आदमी में प्रतिभा कहां से आती है. यह भी किसी को मालूम नहीं कि कि इसे धरती देती है या आकाश. या शायद वह धरती और आकाश दोनों की संतान है? इसी तरह कोई नहीं जानता कि इंसान में वह किस जगह रहती है - दिल में, खून में या दिमाग़ में? जन्म के साथ ही वह छोटे-से इंसानी दिल में अपनी जगह बना लेती है या धरती पर अपना कठिन मार्ग तय करते हुए आदमी बाद में उसे हासिल करता है? किस चीज़ से उसे अधिक बल मिलता है -प्यार से या घृणा से, खुशी से या ग़म से, हंसी से या आंसुओं से? या प्रतिभा के इए इन सभी की ज़रूरत होती है वह विरासत में मिलती है या मानव जो कुछ देखता, सुनता, पढता, अनुभव करता और जानता है, उस सभी के परिणामस्वरुप यह उसमें संचित होती है?

प्रतिभा श्रम का फल है या प्रकृति की देन? यह आंखों के उस रंग के समान है, जो आदमी को जन्म के साथ ही मिलता है, या उन मांसपेशियों के समान है, जिनका दैनिक व्यायाम के फलस्वरूप वह विकास करता है? यह माली द्वारा बड़ी मेहनत से उगाए गए सेब के पेड़ के समान है या उस सेब के समान, जो पेड़ से सीधा लड़के की हथेली पर आ गिरता है?
...
दो प्रतिभावान व्यक्तियों की प्रतिभा एक जैसी नहीं होती, क्योंकि समान प्रतिभाएं तो प्रतिभाएं ही नहीं होतीं. शक्ल-सूरत की समानता पर तो प्रतिभा बिल्कुल ही निर्भर नहीं करती. मैंने अपने पिताजी के चेहरे से मिलते-जुलते चेहरों वाले बहुत-से लोग देखे हैं, मगर पिताजी के समान प्रतिभा मुझे किसी में दिखाई नहीं दी.
प्रतिभा विरासत में भी नहीं मिलती, वरना कला-क्षेत्र में वंशों का बोलबाला होता. बुद्धिमान के यहां अक्सर मूर्ख बेटा पैदा होता है, और मूर्ख का बेटा बुद्धिमान हो सकता है.

किसी व्यक्ति में अपना स्थान बनाते समय प्रतिभा कभी इस बात की परवाह नहीं करती कि वह किस राज्य में रहता है, वह कितना बड़ा है, उसकी जाति के लोगों की संख्या कितनी है. प्रतिभा बड़ी दुर्लभ होती है, अप्रत्याशित ही आती है और इसलिए वह बिजली की कौंध, इंद्रधनुष अथवा गर्मी से बुरी तरह झुलसे और उम्मीद छोड़ चुके रेगिस्तान में अचानक आने वाली बारिश की तरह आश्चर्यचकित कर देती है...
...    

Sunday, 1 April 2012

रुकना चाहिए यह सिलसिला

सही वक़्त पर सही सवाल 
खड़े करने से कतराते रहने का 
यह सिलसिला कभी टूटेगा भी
या चलता ही रहेगा यह 
यूं ही अनवरत? ज़रूरी है 
सब कुछ की समीक्षा
बेलाग बेलौस ढंग से.

यों तो पुस्तक समीक्षा भी ज़रूरी है बेशक
पर लगता है कई बार कि 
समीक्षाओं की समीक्षा ज़रूरी है
क्योंकि
समीक्षाओं से उनके छद्म का 
तिलिस्म तो टूटता नहीं दिखता
पता ही नहीं चलता क्यों
लिखी जाती हैं जैसी 
लिखी जाती हैं वे? जुगाड़ किया जाता 
है जो, रहस्यों को परत-दर-परत
छिपाने का ही करता है काम
रचना का, समीक्षा का पूरा सच 
नहीं आ पाता सामने. 

कैसे हो जाता है 
कि युवा कवि लिख देता है
चार कविताएं "बड़े" कवि की शान में
और औचक रह जाती है साहित्यिक दुनिया
जब पा जाता है युवा कवि एक 
प्रतिष्ठित पुरस्कार "न कुछ कविता"
के बूते पर! पुरस्कार के लिए अनुशंसा भी
तो समीक्षा ही होती है, मूलतः और
अंततः ...

मज़ा यह कि तिकडम के सहारे
इस तरह बहुत कुछ पा जाने वाले 
रोते ही रहते हैं रोना फिर भी 
शिकार बन जाने का  न जाने किस-किस 
तरह के पूर्वाग्रहों का
पुरस्कृत-सम्मानित होते हुए भी 
वंचित रखे जाने का 
ध्यान अपने पर से हटाने का
समय-सिद्ध टोटका है यह जब
भीड़ में घुस कर चोर ही चिल्लाने लगे 
"चोर,चोर" क्योंकि कर ही नहीं सकती 
कोई शक़ ऐसे आदमी पर वह भीड़
जो भागी जा रही है चोर की तलाश में !

कैसा लगे जब पता चले
कि कविता में पूरी धरती से 
सरोकार जताने वाला कवि
परदे के पीछे
"पुरबिया" बन जाता है
पुरस्कार पाने को, एक 
"बड़े" कवि-निर्णायक का 
दुमछल्ला बन जाता है !

कि कैसे एक कवि 
अच्छी-दिखती कविताएं लिखने
के साथ-साथ ही 
गुमनाम पत्र भी लिखता है
बेहद पुरअसर और फलदायी
अपने "नामित प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ़
पुरस्कार-आयोजक-संपादक की
सलाह पर ! नेपथ्य में चलता रहता है जो
वह दुनिया को, हमारी दुनिया को
कुछ ज़्यादा ही बदसूरत बना देता है.
"भीतर" और "बाहर" के बीच ऐसा
फ़र्क़ तो नहीं होता था आज से
कुछ समय पहले तक. यों लोभ-लालच से
मुक्त नहीं थी दुनिया तब भी
पूर्वाग्रह काम करते थे तब भी
निजी पसंद-नापसंद का मसला 
उतना "गौण" नहीं हो गया था,
और जात-बिरादरी का खेल झांक ही
जाता था उन दिनों भी
यानि समीक्षा का स्वर्ण युग वह भी नहीं था
फिर भी इतनी समझदारी नहीं 
आ गई थी, समयपूर्व 
कवियों में
"साधने" की कला में ऐसी महारत 
हासिल नहीं थी...अपवाद हो सकते थे
इक्का-दुक्का. और खेल की चालें भी 
उतनी उजागर नहीं हई थीं.

समीक्षा के औजारों की समझ  जितनी ज़रूरी है
उससे कम ज़रूरी नहीं है
समीक्षा के औजारों की समीक्षा.
इसीसे संभव होगी समीक्षा की समीक्षा
इसीसे खुलेंगे रचना-समीक्षा के प्रयोजन
गिरोहबंदियां भी होंगी उद्घाटित इसी से.
खुला खेल फ़रुक्काबादी
कैसे चल सकता है अनवरत?

तो क्यों नहीं होनी चाहिए कवियों की 
पक्षधरताओं  की और 
उतनी ही कड़ी समीक्षा समीक्षकों,
निर्णायकों और 
प्रस्तावित-अनुमोदित-प्रोन्नत 
करने वालों की भी?

यह सब नहीं होगा तो
जीवन की समीक्षा का क्या होगा?
और जीवन की समीक्षा नहीं 
तो साहित्य की क़ीमत क्या?
                               -मोहन श्रोत्रिय