Friday, 25 November 2022

 

पहाड़, स्त्री और दुःख-सुख

कल्पना पंत के कविता संग्रह मिट्टी का दुःख पर

एक बेतरतीब-सी टीप  

 

पहाड़ और उससे जुड़े रूपक और प्रतीक बचपन से ही हमारी क़स्बाई स्मृति से जुड़े रहे हैं. इनमें दुखों का पहाड़ टूट पड़ना आम था. सुखों के पहाड़ का टूटना कभी नहीं सुना. पहाड़-जैसी ज़िंदगी पड़ी है, पहाड़-जैसा दुःख, लंक-पहाड़ दिन आदि ये अभिव्यक्तियां हमने अपने बचपन में उस क़स्बे में सुनी थीं, जहां आस-पास कोई बड़े-ऊंचे पहाड़ नहीं थे, सिर्फ़ पहाड़ियां थीं. तब इनके असल अर्थ हमारी समझ में नहीं आते थे,पर ये हमारी स्मृति में दर्ज़ हो चुकी थीं. बहुत सारी चीज़ें पहाड़ों को नज़दीकी से देखने, वहां विचरण करके, और फिर वहां के जनजीवन को देखकर समझ में आईं, हालांकि पहाड़ के अर्थ सैलानियों के लिए वे नहीं होते जो वहां रहने वालों,और उनमे भी ख़ास तौर पर स्त्रियों के लिए होते हैं. मैदानी दुनिया की स्त्रियों की तुलना में वहां की स्त्रियों का जीवन कहीं ज़्यादा कष्टकर होता है.

कल्पना पंत की कविताएं पिछले दस-बारह बरस से ध्यान खींचती आई हैं. नियमित तौर पर नहीं, जब-तब फ़ेसबुक पर दिख जाया करती थीं. हर बार नए सिरे से उनकी कविता कुछ-कुछ ख़ास लगती रही है, कभी उनके लघु से लघुतर होते जाते आकार के कारण, तो कभी उनकी सघन संवेदनशीलता और चंद पंक्तियों में ही बहुत कुछ कह जाने के उनके कौशल के कारण. स्त्री, उसके दुःख-सुख, पहाड़ (मिट्टी के अर्थ में भी), वहां के जीवन की मुश्किलें, और फिर भी अटूट-अविचल आशावादिता की सहज अभिव्यक्ति कल्पना की कविता को औरों की कविता से अलग और विशिष्ट बनाती है.

उनकी कविता पहाड़ और दादी की कुछेक पंक्तियां देखें :

पिता से सुना है

कि तुम एक आख़िरी लकड़ी की ख़ातिर

फिर से पेड़ पर चढ़ीं और टहनी टूटते टूटते

अंतहीन गहराई में जा गिरीं ...

क्यों गिरती रही हैं चट्टानों से स्त्रियां

कभी जलावन के लिए

कभी पानी की तलाश में कोसों दूर भटकते

कभी चारे के लिए जंगल में

बाघ का शिकार बनती स्त्रियां...

क्यों नहीं जी पाती एक पूरी ज़िंदगी

पहाड़ पर स्त्रियां.

पहाड़ पर स्त्री के दुखों और तकलीफ़ों के महा आख्यान की यह एक छोटी-सी बानगी है, पर किसी भी तरह से अकेली और आख़िरी नहीं है. घर-बाहर के सभी काम स्त्रियों को ही निपटाने होते हैं, और हर काम में हाड़-तोड़ मेहनत के साथ ही जोख़िम भी निहित होती है. पर पहाड़ की स्त्री आसानी से टूटती नहीं है, और उसकी लड़ने- जीने की शक्ति उसके सोच को सकारात्मक बनाए रखती है. तभी तो वह यह कह सकती है :

मैं यहां हूं ज़िंदा                        

अभी मरने की फ़ुर्सत नहीं है

बाक़ी अभी सारी लड़ाइयां हैं

मरने को अभी एक उम्र पड़ी है.

 

एक नौ पंक्तियों की कविता है एक और हस्तिनापुर जो दैनंदिन जीवन-संघर्ष, और उससे भी अधिक आज के सच का सहज चित्र है :

जीवन हस्तिनापुर!

नित्य महाभारत रचता है

दुर्योधन के हाथ शकुनि

अपने पासे देता है,

कर्ण लांछना के भय से

चुपचाप यहां रह लेता है

माननीयों के होठों पर

मौन ही पहरा देता है

और सत्य पराजित होता है!

हमारे इर्द-गिर्द घटित होने वाली सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं, उन पर बड़े लोगों की चुप्पी और भीरुता से उपजी पक्षहीनता (जो बलशाली के प्रच्छन्न समर्थन के सिवा कुछ नहीं है) जिस समय-सच को उजागर करती है, उसे यह छोटी-सी कविता बड़े प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त कर देती है.

कल्पना पंत अपने  निजी जीवन-अनुभवों का साधारणीकरण करके छोटे-छोटे चित्र खींचती हैं, जो पूरी जीवंतता के साथ उभरते हैं, और रचना के बाहर कूदकर प्रकृति के साथ एकाकार होने लगते हैं, प्रकृति का मानवीकरण कर देती हैं. वह यह बखूबी जानती-समझती हैं कि पहाड़ से जुड़े अधिकांश दुखों के उत्स की सदियों से चली रही पितृसत्ता में ही सन्निहित हैं. उनका मूल स्वर पितृसत्ता के निषेध का है, प्रतिकार का है.

 देवी को देखिए. यह उनकी एक और छोटी कविता है. स्त्री को देवी बना डालने की सदियों पुरानी पारंपरिक साज़िश को यहां ठेठ लोक-अनुभव के रूप में रख दिया गया है, और इस तरह सदियों से स्त्री के साथ चले रहे छल को बेनक़ाब कर दिया गया है :

वे तुम्हारे नाम में

देवी लगाके छोड़ेंगे,

भावना के फूल

भक्ति दे मरोड़ेंगे,

फिर कई लांछन

तुम्हारे नाम जोड़ेंगे...

देवी बनाकर तुम्हारे सपनों को ही निचोड़ेंगे!

भारतीय समाज में स्त्री को लेकर जितना कपट है,स्त्रियों तक के मन में, वह अन्यत्र दुर्लभ है. यह स्त्री-द्वेष ही नहीं है, पाखंड भी है. या कहिए पितृसत्ता का भयंकर दोग़लापन भी.

पहाड़ी जीवन में पितृसत्ता द्वारा पोषित पारंपरिकता के प्रति विद्रोह करती स्त्रियों को भी कल्पना पंत ने कई कविताओं में बेहद आदरपूर्वक प्रस्तुत किया है. दरअसल यह नए बनाम पुराने विचारों का द्वंद्व ही है, जिसमे कवि नए के साथ खड़ी दिखती हैं, पूरी पक्षधरता के साथ.

वे औरतें  शीर्षक कविता दृष्टव्य है :

वे औरतें

जिनके दिल साफ़ थे

पर जो अपनी शर्तों पर जीना चाहती थीं

उनके लिए प्रेम

करवा चौथ और कर्मकांडों में नहीं था 

उन्हें दुष्ट समझा गया

उनकी बातों उनके लेखन

यहां तक कि उनके पार्सलों में

प्रेमियों के चिह्म खोजे गए

उनके शब्दों के अर्थ का अनर्थ बना दिया गया

उन्हें उपाधि मिली ढीट!

उनकेमाता-पिता को

लज्जित करने की कोशिश की गई

पर वे डटी रहीं  आख़िर ढीट जो ठहरीं

साफ़ पानी की झील-सी गहरी!

 

कवि के निजी दुःख-सुख सिर्फ़ उसी के होकर समूचे पहाड़ी अंचल के बन जाते हैं, इसका एक कारण यह भी दिखता है कि तीन-चार परिवार-संदर्भित कविताओं के आलावा कहीं भी उसने निजी तफ़सीलें नहीं दी हैं. और इन कविताओं में भी वह अपने आपको समान सोच की स्त्रियों से तादात्म्य बैठाती दिखती हैं. पहाड़ की अन्य स्त्री कवियों की तरह उनकी कविताओं में भी प्रकृति की भरपूर उपस्थिति है, आम तौर पर चरित्र के रूप में, जिसके बल पर ये दोनों एक-दूसरे के पूरक लगने लगते हैं. मैदानी कविताओं में प्रकृति की ऐसी उपस्थिति लगभग ग़ायब  है. यहां इसे कविता की श्रेष्ठता की कसौटी समझने की भूल की जाए, बल्कि अलग क़िस्म के परिवेश से जुडी चारित्रिक विशिष्टता के रूप में ही देखा जाए. नदी, झरना,वृक्ष, पहाड़ ये सब अंतर्गुम्फित रूपक को निर्मित करते हैं, जो मनुष्य (ख़ासकर स्त्री)  के मनोजगत और अनुभव संसार के साथ एकमेक हो जाते हैं.

फिर भी कहना होगा कि इस संग्रह में कई कच्ची/अधपकी रचनाएं भी हैं. कवि को थोडा धैर्य रखना चाहिए था. वहां कविता बीज रूप में तो दिखती है, पर विकसित नहीं हो पाई है. वे डायरी-प्रविष्टि जैसी लगती हैं. अक्सर यह होता है कि चार-छह पंक्तियों की कविता में जो बिंब कौंधता है, वह कवि की तात्कालिक भावात्मक प्रतिक्रिया को तो दर्शा सकता है, पर अंततः अनुभव के इकहरेपन से आगे नहीं बढ़ पाता. बहरहाल, मिट्टी का दुःख की ऐसी रचनाओं को भी सहानुभूतिपूर्वक देखने की ज़रुरत मेरी नज़र में इसलिए बन जाती है कि यह कल्पना पंत  का पहला कविता संग्रह है, जो उम्मीद जगाता है कि वह अगले संग्रह में सघन और संश्लिष्ट अनुभव के ताप से तपी कविताओं को प्रस्तुत कर पाएंगी जहां भाव और विचार पक्ष अधिक समृद्ध और मुखर होगा.

कल्पना पंत को ढेर सारी शुभकामनाएं.

n  मोहन श्रोत्रिय